होंश या सहज ध्यान/सुरती/सम्यक स्मृति/जागरुक रहना

 

 पढ़ा लिखा मनुष्य भी यदि होंश में नहीं हो तो मदारी उससे ताली बजवा लेता है।
होंश जीवन में उतना ही महत्वपूर्ण है जितना पढ़ना लिखना सीखना

ओशो कहते हैं :-

कबीर इसी को सुरती कहते हैं।

सूरत सम्भाल ऐ गाफ़िल, अपना आप पहचान।

मेरे अपने अनुभव से मैं कह सकता हूँ कि ‘ऐसे ही थोड़े से प्रयास से हम भी अपने होश को सहज ही बनाए रखने में सफल हो जाते हैं। फिर धीरे धीरे यह सारे काम में सहज हो जाता है’। क्योंकि शरीर को किसी काम को सहज होकर करने के लिए कम ऊर्जा लगती है तो वह वैसा ही होने लगता है। नींद भी रात को सोते ही आ जाएगी, और पाँच से छह घंटे की नींद में आप तरोताज़ा महसूस करेंगे। आपके निर्णय लेने की क्षमता में भी काफ़ी इज़ाफ़ा हो जाएगा। यह सब bye-product हैं, लेकिन कोई इसके लिए सहज होने का प्रयत्न करेगा तो वही असहजता का कारण हो जाएगा। सहज का मतलब ही है बस करना है, कोई कारण नहीं है उसके पीछे।

अब मैं ओशो के सन्यासियों से चर्चा के दौरान उन्होंने होंश पर क्या क्या कहा उसकी तरफ़ आपको लेकर जा रहा हूँ। इससे मेरे अनुभव और होंश दोनों के बारे में आपको अधिक जानकारी मिलेगी। होंश के प्रयोग को करना ज़्यादा ज़रूरी है, जानकारी लेने से। इसलिए आगे आप बाद में भी पढ़ सकते हैं। 

 इसलिए मेरा sujhavएक बार होंश का प्रयोग किसी भी कार्य में ज़रूर करें, आज ही। 

ओशो कहते हैं:

मैं तुमसे कहता हूं: सिगरेट अगर पीते हो तो ध्यानपूर्वक पीयो। यह और ही बात कह रहा हूं। मैं तुमसे कह रहा हूं: जब तुम सिगरेट अपने खीसे से निकालो, पाकेट सिगरेट का निकालो, तो जल्दी मत निकालना जैसे तुम रोज निकालते हो। जल्दी क्या? धीरे से निकालना। बस विपस्सना शुरू हो जाएगी। बिलकुल धीरे से निकालना। इतने आहिस्ता जैसे कोई जल्दी नहीं, अनंत काल पड़ा है, जल्दी क्या है? बिलकुल आहिस्ता-आहिस्ता निकालना। जितने धीरे निकाल सको उतने धीरे निकालना। जब सिगरेट ही पीने जा रहे हैं तो जरा ढंग से पीयो, थोड़ी शालीनता से पीयो। यह क्या चोरी-चपाटी कि जल्दी से निकाला और किसी तरह धुआं अंदर-बाहर फेंका, फेंकी सिगरेट, पश्चात्ताप भी किए जा रहे हैं कि नहीं पीना चाहिए, यह बहुत बुरा हो रहा है.

भूल हो रही है। थोड़ी संस्कार से पीयो!

थोड़ी शालीनता, थोड़ा प्रसाद! सिगरेट का डब्बा हाथ में लो, फिर सिगरेट को बाहर निकालो, फिर ठीक से सिगरेट को डब्बे पर ठोंको, बजाओ। फिर आहिस्ता से मुंह में रखो। फिर माचिस निकालो। फिर माचिस जलाओ। आहिस्ता से, जैसे कि पूजा…धीमे से कोई पूजा का दीप जलाता है, ऐसे सिगरेट को जलाओ। भयभीत क्या हो? इतने डरे क्या हो? पश्चात्ताप क्या है? तुम्हें प्रीतिकर लग रहा है, तुम्हारा जीवन है, तुम अपने मालिक हो। तुम किसी की कोई हानि नहीं कर रहे हो। और अगर तुम अपनी हानि भी करना चाहते हो तो तुम उसके भी हकदार हो। लेकिन इसको एक कलात्मकता दो। और तुम चकित हो जाओगे, तुम्हें पहली दफा पाप नहीं मालूम पड़ेगा, मूर्खता दिखायी पड़ेगी। और वहीं भेद है। पाप नहीं, पाप से तो कोई छुटकारा हुआ नहीं। पाप है, ऐसा तो कहते-कहते सदियां बीत गईं। किस पाप से आदमी को छुड़ा पाए हो? मैं नहीं कहता सिगरेट पीना पाप है; यद्यपि मैं जरूर कहता हूं, मूढ़ता है। पाप क्या है? पर मूढ़ता निश्चित है। बस मूढ़ता तुम्हें दिखाई पड़ने लगे…और जितने धीमे-धीमे इस प्रक्रिया को करोगे उतनी स्पष्टता से मूढ़ता दिखाई प़ड़ेगी। इसका वैज्ञानिक कारण है। जिस काम को भी हम करने के आदी हो गए हैं, वह काम यंत्रवत हो जाता है; मशीन की तरह कर लेते हैं। अगर तुम उस प्रक्रिया को शिथिल कर दो तो तुम अचानक पाओगे कि तुम उसी काम को होशपूर्वक कर रहे हो, यंत्रवत नहीं।

तुम एक खास चाल से चलते हो। बौद्ध ध्यानशालाओं में वे तुम्हारी चाल बदल देते हैं। वे कहते हैं: इसको आधा कर दो, चाल को। होशपूर्वक धीमे चलो। छोटे-छोटे कदम रखो। तुम चकित होओगे, जब भी तुम्हारा होश खो जाएगा, तुम फिर कदम जोर से रख दोगे, जो तुम्हारी आदत है। अगर होश रखना है तो कदम धीमे रखना पड़ेगा; अगर कदम धीमे रखना है तो होश रखना पड़ेगा। अगर होश खोकर चलना है तो फिर पुरानी आदत पर्याप्त होगी। किसी भी प्रक्रिया को, अगर तुम उसकी गति धीमी कर दो तो उसके साथ होश जुड़ जाता है। भोजन भी अगर आहिस्ता करो, बहुत आहिस्ता, अड़तालीस बार चबाओ हर कौर को, तो तुम चकित हो जाओगे कि कितना होशपूर्वक तुम कर रहे हो! क्योंकि हिसाब रखना है, अड़तालीस बार चबाना है, ऐसे ही लीलते नहीं चले जाना है। मैं तुमसे कहता हूं कि ज्यादा भोजन मत करो। मैं कहता हूं अड़तालीस बार चबाओ और होशपूर्वक धीमे-धीमे भोजन करो। अपने-आप भोजन की मात्रा एक तिहाई हो जाएगी। उतनी ही हो जाएगी जितनी जरूरी है, और ज्यादा तृप्त करेगी, ज्यादा परितृप्त करेगी। क्योंकि उसका रस फैलेगा, ठीक पचेगा। ऐसी ही किसी भी प्रक्रिया को धीमा करो। अगर वह सार्थक प्रक्रिया है तो टूटेगी नहीं। अगर व्यर्थ प्रक्रिया है, अपने-आप टूट जाएगी, क्योंकि मूढ़ता स्पष्ट हो जाएगी। पाप को छोड़ना पड़ता है, मूढ़ता को छोड़ना नहीं पड़ता; जानना ही पड़ता है, मूढ़ता छूट जाती है।” (from “मरौ हे जोगी मरौ – Maro He Jogi Maro (Hindi Edition)” by Osho .)

कहे वाज़िद पुकार में ओशो कहते हैं

“मैं कहता हूं, कुछ भी गलत नहीं; बोधपूर्वक जो भी करो, ठीक। बोध सही, अबोध गलत। बस सीधे से सूत्र हैं——जाग्रत होकर तुम जो भी करो, होशपूर्वक जो भी करो, ठीक है।

नागार्जुन से एक चोर ने पूछा था: आप कहते हैं होशपूर्वक जो भी करो, वह ठीक है। अगर मैं होशपूर्वक चोरी करूं तो?

नागार्जुन ने कहा: तो चोरी भी ठीक है; होशपूर्वक भर करना, शर्त याद रखना!

उस चोर ने कहा: तो ठीक है, तुमसे मेरी बात बनी। मैं बहुत गुरुओं के पास गया, मैं जाहिर चोर हूं। जैसे गुरु प्रसिद्ध हैं, ऐसे ही मैं भी प्रसिद्ध हूं। सब गुरु मुझे जानते हैं। आज तक पकड़ा नहीं गया हूं। सम्राट भी जानता है; उसके महल से भी चोरियां मैंने की हैं, मगर पकड़ा नहीं गया हूं। अब तक मुझे कोई पकड़ नहीं पाया है। तो जब भी मैं किसी गुरु के पास गया, तो वे मुझसे यही कहते हैं——पहले चोरी छोड़ो, फिर कुछ हो सकता है। चोरी मैं छोड़ नहीं सकता। तुमसे मेरी बात बनी। तुम कहते हो चोरी छोड़ने की जरूरत ही नहीं है?

नागार्जुन ने बड़े अदभुत शब्द कहे थे। नागार्जुन ने कहा था: तो जिन गुरुओं ने तुमसे कहा चोरी छोड़ो, वे भी चोर ही होंगे; भूतपूर्व चोर होंगे, इससे ज्यादा नहीं। नहीं तो चोरी से उनको क्या लेना—देना? मुझे चोरी से क्या लेना—देना? मैं तुमसे कहता हूं होश सम्हालो, फिर तुम्हें जो करना हो करो। मैं तुम्हें दीया देता हूं; फिर दीए के रहते भी तुम्हें दीवाल से निकलना हो, तो निकलो। मगर मैं जानता हूं, जिसके हाथ में दीया है, वह द्वार से निकलता है। मैं नहीं कहता कि दीवाल से मत निकलो।

अंधेरे में जो आदमी है, उससे क्या कहना कि दीवाल से मत निकलो! वह तो टकराएगा ही, वह तो गिरेगा ही। उसे तो द्वार कैसे मिलेगा? दीवाल बड़ी है; चारों तरफ दीवालें ही दीवालें हैं। हमने ही खड़ी की हैं। निकल नहीं पाओगे। और जब निकलोगे नहीं, बार—बार गिरोगे। और पुजारी—पंडित चिल्ला रहे हैं कि दीवाल से टकराए कि पाप हो गया। फिर टकराए, फिर पाप हो गया! और जितने तुम घबड़ाने लगोगे, उतने ज्यादा टकराने लगोगे। उतने तुम्हारे पैर कंपने लगेंगे।

नागार्जुन ने ठीक कहा——मैं दीया देता हूं, अब तुझे दीवाल से निकलना हो, तेरी मर्जी; मगर दीया भर न बुझ पाए, दीए को सम्हाले रखना।

वह चोर पंद्रह दिन बाद आया, उसने कहा: मैं हार गया, तुम जीत गए। तुम आदमी बड़े होशियार हो। तुमने खूब मुझे धोखा दिया। मैं जिंदगी—भर लोगों को धोखा देता रहा, तुमने मुझे धोखा दे दिया! आज पंद्रह दिन से कोशिश कर रहा हूं होशपूर्वक चोरी करने की, नहीं कर पाया। क्योंकि जब होश सम्हलता है, चोरी की वृत्ति ही चली जाती है; जब चोरी की वृत्ति आती है, तब होश नहीं होता।

तुम जरा करके देखना, तुम भी करके देखना, होशपूर्वक झूठ बोलकर देखना। होश सम्हलेगा, सच ओंठों पर आ जाएगा। होश गया, झूठ बोल सकते हो। जरा होशपूर्वक कामवासना में उतरकर देखना। होश आया, और सारी वासना ठंडी पड़ जाएगी, जैसे तुषारपात हो गया! होश गया, उत्तप्त हुए। बेहोशी में ताप है, ज्वर है। होश शीतल है। होशपूर्वक कोई कामवासना में न कभी उतरा है, न उतर सकता है। इसलिए मैं तुमसे नहीं कहता कामवासना छोड़ो, मैं तुमसे कहता हूं होश सम्हालो। फिर जो छूट जाए, छूट जाए; जो न छूटे, वह ठीक है। होशपूर्वक जीवन जीने से जो बच जाए, वही पुण्य है; और जो छूट जाए, छोड़ना ही पड़े होश के कारण, वही पाप है। मगर पाप—पुण्य का मैं तुम्हें ब्योरा नहीं देता, मैं तो सिर्फ दीया तुम्हारे हाथ में देता हूं।

और तुम्हारे पंडित—पुरोहित, तुम्हारे राजनेता, तुम्हारे नीतिशास्त्री, उनका काम यही है: फेहरिस्त बनाओ, नियम बनाओ, कानून बनाओ; इतने कानून दे दो कि आदमी दब जाए, मर जाए!

बौद्ध ग्रंथों में तैंतीस हजार नियम हैं नीति के। याद भी न कर पाओगे। कैसे याद करोगे? तैंतीस हजार नियम! और जो आदमी तैंतीस हजार नियम याद करके जीएगा, वह जी पाएगा? उसकी हालत वही हो जाएगी, जो मैंने सुनी है, एक बार एक सेंटीपीड, शतपदी की हो गई।

यह शतपदी, सेंटीपीड जो जानवर होता है, इसके सौ पैर होते हैं। चला जा रहा था सेंटीपीड, एक चूहे ने देखा। चूहा बड़ा चौंका, उसने कहा: सुनिए जी, सौ पैर! कौन—सा पहले रखना, कौन—सा पीछे रखना, आप हिसाब कैसे रखते हो? सौ पैर मेरे हों तो मैं तो डगमगाकर वहीं गिर ही जाऊं। सौ पैर आपस में उलझ जाएं, गुत्थमगुत्था हो जाए। सौ पैर! हिसाब कैसे रखते हो कि कौन—सा पहले, फिर नंबर दो, फिर नंबर तीन, फिर नंबर चार, फिर नंबर पांच…सौ का हिसाब! गिनती में मुश्किल नहीं आती?

सेंटीपीड ने कभी सोचा नहीं था; पैदा ही से सौ पैर थे, चलता ही रहा था। उसने कहा: भाई मेरे, तुमने एक सवाल खड़ा किया! मैंने कभी सोचा नहीं, मैंने कभी नीचे देखा भी नहीं कि कौन—सा पैर आगे, कौन—सा पहले। लेकिन अब तुमने सवाल खड़ा कर दिया, तो मैं सोचूंगा, विचारूंगा।

सेंटीपीड सोचने लगा, विचारने लगा; वहीं लड़खड़ाकर गिर पड़ा। खुद भी घबड़ा गया कि कौन—सा पहले, कौन—सा पीछे।

एक जीवन की सहजता है। तुम्हारे नियम, तुम्हारे कानून सारी सहजता नष्ट कर देते हैं। तैंतीस हजार नियम! कौन—सा पहले, कौन—सा पीछे? तैंतीस हजार का हिसाब रखोगे, मर ही जाओगे, दब ही जाओगे, प्राणों पर पहाड़ बैठ जाएंगे।

मैं तो तुम्हें सिर्फ एक नियम देता हूं——होश। बेहोशी छोड़ो, होश सम्हालो।

और ये तैंतीस हजार नियम भी बेईमानों को नहीं रोक सकते। वे कोई न कोई तरकीब निकाल लेते हैं। अंग्रेजी में एक कहावत है——कि जहां भी संकल्प है, वहीं मार्ग है। उस कहावत में थोड़ा फर्क कर लेना चाहिए। मैं कहता हूं——जहां भी कानून है, वहीं मार्ग है। तुम बनाओ कितने कानून बनाते हो, मार्ग निकाल लेगा आदमी।”

और मेरे अनुभव से मैं यह कहता हूँ कि यह साधारण सा लगने वाला ध्यान बड़ा करामाती है, इसने मेरी आँखों के सामने एक दर्पण बनाने में बड़ी सहायता की और उसी से यह सम्भव हो पाया कि मैं अपने भीतर झांक सका। नीचे ओशो के इसी बाबत दिए वक्तव्य जो मेरे जीवन में मैंने सत्य घटित होते पाया, इससे यह बात भी साबित होती है कि उनकी कही हर बात सच है।

“तुम्हारी आंख में जो छिपा है, वह तुम्हारी आंख को नहीं दिखाई पड़ सकता है।
उसकी कला सीखनी होगी। उसके लिए दर्पण बनाना होगा।
अगर तुम्हें अपनी आंख देखनी हो तो दर्पण बनाना होगा, तो आंख देख सकोगे।
हालांकि आंख और सब कुछ देख लेती है, यह मजा, यह विडंबना! आंख सब देख लेती है, सिर्फ अपने को छोड़कर।
तुम सब देख लेते हो, सिर्फ अपने को छोड़कर।
तुम्हें आईना बनाना होगा। तुम्हें ध्यान का दर्पण बनाना होगा।
उस में तुम्हें अपनी आंख दिखाई पड़ेगी।
अपने भीतर छिपे हुए आकाश का पहली दफा प्रतिबिंब मिलेगा।
और बस उसी क्षण से तुम अंधे नहीं हो।
अंधे तुम कभी भी न थे।
मगर उस क्षण तुम्हें पहचान होगी कि मैं न अंधा था, न अंधा हूं, न अंधा हो सकता हूं।
बस आंख बंद किए बैठा था!”

ओशो, बिरहिनी मंदिर दियना बार, प्रवचन #पांचवां तत्‍वमसि,
दिनांक 15 जनवरी, 1979, पूना

उन्हें सआदते-मंजिल रसी नसीब हो गया
वो पांव राहे तलब में जो डगमगा न सके।

यदि तुम्हारे पैर न डगमगाएं, तो इसी जीवन में आखिरी मंजिल उपलब्ध हो जाती है।

किन पैरों की बात है? होश के पैरों की बात है।

अगर होश न डगमगाए तो जिसको कृष्ण ने गीता में स्थितिप्रज्ञ कहा है, जिसकी चेतना थिर हो जाती है, जिसकी चेतना में कोई कंपन नहीं होता, अकंप हो जाती है–उस अकंप दशा में कोई चीज प्रभावित नहीं करती, क्योंकि प्रभावित हुए कि कंपन शुरू हुआ।

प्रभाव यानी कंपन, डगमगाहट।

तो, मैं यह कहूंगा कि फिर से होश को साधना। और जल्दी न करो, कामवासना बड़ी गहरी वासना है। तुम्हारी भूल मैं समझता हूं कहां हो जाती है। तुमने अभी उड़ना भी नहीं सीखा आंगन में, और तुम बड़े आकाश की यात्रा पर निकल जाते हो; गिरोगे–मुश्किल में पड़ोगे।

अभी तुम जरा नदी के किनारे थोड़ा तैरना सीखो, फिर गहरे सागरों में उतरना।

होश के साथ यही कठिनाई है कि तुम सोचते हो, चलो होश का प्रयोग कर लें कामवासना पर। कामवासना सबसे गहरी वासना है। इतनी जल्दी मत करो। पहले ऐसी चीजों पर होश को साधो, जिनमें किनारे पर थोड़ा प्रशिक्षण हो जाए।

जैसे राह पर चल रहे हो, होशपूर्वक चलो। सिर्फ चलने के प्रति होश रहे। भूल-भूल न जाओ। याद बनी रहे कि चल रहा हूं–यह बायां पैर उठा, यह दायां पैर उठा। अब यह एक छोटी सी क्रिया है जिसका कोई बंधन नहीं तुम्हारे ऊपर। तुम चकित होओगे कि इसमें भी होश नहीं सधता! भूल-भूल जाओगे।

बैठे हो शांत, श्वास पर होश साधो। बुद्ध ने श्वास पर होश साधने को सबसे महत्वपूर्ण प्रक्रिया माना; क्योंकि श्वास चौबीस घंटे चल रही है, तुम न भी कुछ करो तो भी चल रही है।

तो इस सहज क्रिया पर होश को साधना आसान होगा। और जब चाहो तब साध सकते हो–जरा आंख बंद करो, श्वास को देखो और होश को साधो।

श्वास भीतर जाए, होशपूर्वक भीतर ले जाओ–जानते हुए जागते हुए, कि श्वास भीतर जा रही है, भीतर पहुंच गई है, वापस लौटने लगी, बाहर गई, बाहर निकल गई, फिर भीतर आने लगी–माला बना लो श्वास की–भीतर-बाहर, भीतर-बाहर! एक-एक गुरिया श्वास का सरकाते रहो।

तुम चकित होओगे कि यह भी भूल-भूल जाता है। क्षण भर को होश आएगा, फिर मन चला गया दुकान पर, कुछ खरीदने लगा, बेचने लगा, किसी से झगड़ा हो गया; फिर चौंकोगे, पाओगे, ‘अरे! घड़ी बीत गई! कहां चले गए थे, श्वास तो भूल ही गई!’ फिर पकड़ कर ले आओ। इसको मैं किनारे का अभ्यास कहता हूं।

श्वास में कुछ झंझट नहीं है। अब तुम या तो क्रोध पर साधोगे…। क्रोध रोज तो होता नहीं, प्रतिपल होता नहीं, कभी-कभी होता है; जब होता है तब इतनी प्रगाढ़ता से होता है कि तुम गहरे में उतर रहे हो; जब होता है तब इतनी बातें दांव पर लग जाती हैं कि शायद तुम सोचोगे, ‘फिर देख लेंगे होश इत्यादि! यह अभी, अभी तो निपट लें।’

कामवासना तो बहुत गहरी है, क्योंकि प्रकृति ने उसे बहुत गहरा बनाया है, क्योंकि जीवन उस पर निर्भर है। अगर कामवासना इतनी आसान हो कि तुमने चाहा और छूट गए, तो तुम शायद पैदा ही न होते, क्योंकि तुमसे पहले बहुत लोग छूट चुके होते; तुम्हारे होने की संभावना न के बराबर होती। मगर वह तो तुम्हारे माता-पिता उनके माता-पिता नहीं छूट सके, इसलिए तुम हो। तुम भी इतनी आसानी से न छूट जाओगे, क्योंकि तुम्हारे बच्चों को भी होना है; वे भी प्रतीक्षा कर रहे हैं कि ऐसे भाग मत जाना बीच से। जीवन बहुत कुछ टिका है कामवासना पर। इसलिए उसका छूटना इतना आसान नहीं है। असंभव नहीं है, आसान भी नहीं है।

और तुम्हारी यह भूल होगी, अगर तुम इतनी कठिन प्रक्रिया पर पहले ही अभ्यास करो। यह मन की तरकीब है। मन हमेशा तुम्हें कठिन चीजें सुझा देता है, ताकि तुम पहले ही दांव में हार जाते हो… चारों खाने चित! फिर तुम सोचते हो, ‘छोड़ो भी! यह कुछ होने वाला नहीं!’ मन तुम्हें ऐसी दुविधा में उतारता है जहां तुम हार जाओ और मन जीत जाए। तुम्हारी हार में मन की जीत है।

तो मन तुम्हें तरकीबें ऐसी बताता है कि तुम पहली दफा पांव उतारो नदी में कि डुबकी खा जाओ, कि सदा के लिए भयभीत हो जाओ कि यहां जान का खतरा है, जाना ही नहीं! थोड़े बोधपूर्वक चलो।

पहले ऐसी चीजों पर होश साधो जिनका कोई भी बल नहीं है: राह पर चलना, श्वास का देखना; कोई भी ऐसी चीज–पक्षी गुनगुना रहे हैं गीत, बैठ कर शांति से उनका गीत सुनना। सतत होश रहे, इतनी बात है। अखंडित होश रहे, धारा टूटे न।

जैसे कि कोई तेल को एक पात्र से दूसरे पात्र में डालता है तो अखंड धारा रहती है तेल की, टूटती नहीं–बस ऐसी तुम्हारी होश की धारा रहे।

पक्षी गुनगुनाते रहें गीत, तुम सुनते ही रहो, सुनते ही रहो, सुनते ही रहो; एक क्षण को भी तुम कहीं और न जाओ। तो धीरे-धीरे किनारे का अभ्यास करो।

जैसे-जैसे अभ्यास घना होगा, वैसे-वैसे तुम्हारे भीतर उत्फुल्लता बढ़ेगी। जैसे-जैसे अभ्यास घना होगा, तुम्हारे भीतर अपने प्रति आश्वासन, विश्वास बढ़ेगा। फिर तुम धीरे-धीरे प्रयोग करना। वह भी जल्दी नहीं करना। क्रोध पर भी प्रयोग करने हों तो क्रोध भी हजार तरह के हैं।

एक क्रोध है जो तुम्हें अपने बच्चे पर आ जाता है। उस पर अभ्यास करना आसान होगा क्योंकि बच्चे के क्रोध में प्रेम भी सम्मिलित है।

फिर एक क्रोध है जो तुम्हें दुश्मन पर आता है, उसमें प्रेम बिलकुल सम्मिलित नहीं है; उस पर अभ्यास करना कठिन होगा।

तुम क्रोध में भी गौर करना कि कहां अभ्यास शुरू करो। जो अति निकट हैं, जिन पर तुम क्रोध करना भी नहीं चाहते और हो जाता है, उन पर अभ्यास करो।

फिर कुछ हैं जो बहुत दूर हैं–दूर ही नहीं, विपरीत हैं; जिन पर तुम चाहोगे भी कि क्रोध न हो, तो भी भीतर की चाह है कि हो जाए; जिन पर तुम खोजते हो, अकारण भी, कि कोई निमित्त मिल जाए और क्रोध हो जाए–उन पर जरा देर से अभ्यास करना।

पहले अपनों पर, फिर पड़ोसियों पर, फिर शत्रुओं पर। इतने जल्दी तुम अगर शत्रु पर अभ्यास करने चले जाओगे, तो यह ऐसे ही हुआ कि तलवार हाथ में ली और सीधे युद्ध के मैदान में पहुंच गए, कोई प्रशिक्षण न लिया।

पहले प्रशिक्षण लो। प्रशिक्षण का मतलब होता है: पहले मित्र के साथ ही तलवार चलाओ। शत्रु के साथ चलाना खतरनाक हो जाएगा। अभी मित्र के साथ खेल-खेल में तलवार चलाओ। जब हाथ सध जाएं, भरोसा आ जाए, सुरक्षा हो जाए, तब थोड़े आगे बढ़ना।

मनुष्य अपने भीतर सब लेकर आया है–सब! होश से गुजर जाए तो जिसे तुम संसार कहते हो, वही सत्य बन जाता है। होश से गुजर जाए तो जिसे तुमने पत्थर जाना है, वही परमात्मा बन जाता है। इसलिए ‘होश’ बहुमूल्य शब्द है। इसे सम्हालना संपदा की भांति। इससे बड़ी और कोई संपदा नहीं है। होश, स्मृति, सुरति, सम्यक बोध–नाम बहुत हैं, बात एक ही है।

। –भक्ति सूत्र, ओशो #१२ अभी और यहीं है भक्ति

एक सलाह और देना चाहता हूँ कि यदि आप मेरे इसी ब्लॉग पर सहज जीवन के सूत्र पोस्ट में दिए सुझाव भी अपने जीवन में प्रयोग करके देखेंगे और आपको लगे कि यह ध्यान में सहयोगी है तो इससे आपका आत्मज्ञान का मार्ग बग़ैर किसी गुरु के घर बैठे काफ़ी छोटा हो सकता है। छोटा कह रहा हूँ, आसान नहीं यह ध्यान में रखा जाए। क्योंकि ये दोनों एक दूसरे को मदद पहुँचाते हैं।

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ओशो द्वारा सुझाया सहज ध्यान यानी होंश पूर्वक जीना यानी रोज़ के काम में होंश का प्रयोग मेरे जीवन को बदलकर रख गया। अपने आप सहज ही मन सपने देखना कम कर देता है, फिर जब भी सपना शुरू करता है तो विवेकपूर्वक उसका आना दिखाई देने लगता है, और दिखाई दे गया कि फिर बुना नया सपना मन ने-तो फिर रोकना कोई कठिन काम नहीं है। मैंने ओशो की एक किताब से सीखा और जीवन में सुबह ब्रश करते समय प्रयोग करके साधा.

नारद के भक्ति सूत्र पर प्रवचन देते हुए ओशो ने यह बहुत ही अच्छा प्रयोग बताया है जिसको हम प्रयोग करके ‘होंश’और उसके विपरीत स्थिति ‘स्मृतिभ्रंश’ दोनों को समझ सकते हैं।

‘स्मृतिभ्रंश’ बड़ा महत्वपूर्ण शब्द है।

बुद्ध ने जिसे सम्यक-स्मृति कहा है, यह उसकी विपरीत अवस्था है–स्मृतिभ्रंश।

जिसे कृष्णमूर्ति अवेयरनेस कहते हैं, होश कहते हैं–स्मृतिभ्रंश उसकी विपरीत अवस्था है।

जिसको गुरजिएफ ने सेल्फ-रिमेंबरिंग कहा है, आत्म-स्मरण–स्मृतिभ्रंश उसकी विपरीत अवस्था है।

जिसको नानक ने, कबीर ने सुरति कहा है–स्मृतिभ्रंश उसकी उलटी अवस्था है। सुरति स्मृति का ही रूप है।

सुरतियोग (awareness मैडिटेशन) का अर्थ है: स्मृतियोग–ऐसे जीना कि होश रहे; प्रत्येक कृत्य होशपूर्ण हो; उठो तो जानते हुए; बैठो तो जानते हुए।

एक छोटा सा प्रयोग करो।

आज जब तुम्हें फुरसत मिले घंटे भर की, तो अपने कमरे में बैठ जाना द्वार बंद करके और एक क्षण को सारे शरीर को झकझोर कर होश को जगाने की कोशिश करना–बस एक क्षण को कि तुम बिलकुल परिपूर्ण होश से भरे हो।

बैठे हो, आस-पास आवाज चल रही है, सड़क पर लोग चल रहे हैं, हृदय धड़क रहा है, श्वास ली जा रही है–तुम सिर्फ होश मात्र हो–एक क्षण के लिए। सारी स्थिति के प्रति होश से भर जाना; फिर उसे भूल जाना; फिर अपने काम में लग जाना।

फिर घंटे भर बाद फिर दुबारा कमरे में जाकर, फिर द्वार बंद करके, फिर एक क्षण को अपने होश को जगाना–

तब तुम्हें एक बात हैरान करेगी कि बीच का जो घंटा था, वह तुमने बेहोशी में बिताया; तब तुम्हें अपनी बेहोशी का पता चलेगा कि तुम कितने बेहोश हो।

पहले एक क्षण को होश को जगा कर देखना, झकझोर देना अपने को; जैसे तूफान आए और झाड़ झकझोर जाए, ऐसे अपने को झकझोर डालना, हिला डालना। एक क्षण को अपनी सारी शक्ति को उठा कर देखना–क्या हूं, कौन हूं, कहां हूं! ज्यादा देर की बात नहीं कर रहा हूं, क्योंकि एक क्षण से ज्यादा तुम न कर पाओगे। इसलिए एक क्षण काफी होगा।

बस एक क्षण करके बाहर चले जाना, अपने काम में लग जाना–दुकान है, बाजार है, घर है–भूल जाना। जैसे तुम साधारण जीते हो, घंटे भर जी लेना।

फिर घंटे भर बाद कमरे में जाकर फिर झकझोर कर अपने को देखना। तब तुम्हें तुलनात्मक रूप से पता चलेगा कि ये दो क्षण अगर होश के थे, तो बीच का घंटा क्या था?

तब तुम तुलना कर पाओगे। मेरे कहने से तुम न समझोगे; क्योंकि होश को मैं समझा सकता हूं शब्दों में, लेकिन होश तो एक स्वाद है।

मीठा, मीठा, मीठा कहने से कुछ न होगा। वह तो तुम्हें मिठाई का पता है, इसलिए मैं मीठा कहता हूं तो तुम्हें अर्थ पता हो गया। मैं कहूं स्मृति, सुरति उससे कुछ न होगा; उसका तुम्हें पता ही नहीं है। तो तुम यह भी न समझ सकोगे कि स्मृतिभ्रंश क्या है।

होश को जगाना क्षण भर को, फिर घंटे भर बेहोश; फिर क्षण भर को होश को जगा कर देखना–तुम्हारे सामने तुलना आ जाएगी; तुम खारे और मीठे को पहचान लोगे।

वह जो घंटा बीच में बीता, स्मृतिभ्रंश है। वह तुमने बेहोशी में बिताया–जैसे तुम थे ही नहीं, जैसे तुम चले एक यंत्र की भांति; जैसे तुम नशे में थे–और तब तुम्हें अपनी पूरी जिंदगी बेहोश मालूम पड़ेगी। मन दुःसंग है, मन बेहोशी है, मन ही स्मृतिभ्रंश है।

मेरे अनुभव से कुछ सुझाव :- 

होंश का प्रयोग मैंने एक बार सीखा और जीवन में उतार लिया। एक बार सध जाने के बाद इसे मैंने जीवन के कई कामों को करते हुए प्रयोग किया, जिसमें सेक्स भी शामिल है। और इसके परिणाम आश्चर्यजनक रहे।

मैंने अनुभव किया कि होंश को जगाना और अपनेआप का द्रष्टा होना क़रीब क़रीब एक ही बात है तो यदि कोई होंश का प्रयोग नहीं कर पाता हो तो उसे भीतर की आँख यानी दृष्टा पर काम करना चाहिए।

इसे ओशो ने इस प्रकार बताया है। :-

द्रष्टा (यानी भीतर की आँख से) होने का चमत्कार यह है कि जब तुम (आँख बंद करके अपने ) शरीर को देखते हो, तो तुम्हारा द्रष्टा अधिक मजबूत होता है। जब तुम अपने विचारों को देखते हो, तो तुम्हारा द्रष्टा और भी मजबूत होता है। और जब अनुभूतियों को देखते हो, तो तुम्हारा द्रष्टा फिर और मजबूत होता है। जब तुमअपनी भाव-दशाओं को देखते हो, तो द्रष्टा इतना मजबूत हो जाता है कि स्वयं बना रह सकता है — स्वयं को देखता हुआ, जैसे किअंधेरी रात में जलता हुआ एक दीया न केवल अपने आस-पास प्रकाश करता है, बल्कि स्वयं को भी प्रकाशित करता है!

लेकिन लोग बस दूसरों को देख रहे हैं, वे कभी स्वयं को देखने की चिंता नहीं लेते। हर कोई देख रहा है — यह सबसे उथले तल परदेखना है — कि दूसरा व्यक्ति क्या कर रहा है, दूसरा व्यक्ति क्या पहन रहा है, वह कैसा लगता है। हर व्यक्ति देख रहा है — देखने की प्रक्रिया कोई ऐसी नई बात नहीं है, जिसे तुम्हारे जीवन में प्रवेश देना है। उसे बस गहराना है — दूसरों से हटाकर स्वयं की आंतरिकअनुभूतियों, विचारों और भाव-दशाओं की ओर करना है — और अंततः स्वयं द्रष्टा की ओर ही इंगित कर देना है।

लोगों की हास्यास्पद बातों पर तुम आसानी से हंस सकते हो, लेकिन कभी तुम स्वयं पर भी हंसे हो? कभी तुमने स्वयं को कुछ हास्यास्पदकरते हुए पकड़ा है? नहीं, स्वयं को तुम बिलकुल अनदेखा रखते हो — तुम्हारा सारा देखना दूसरों के विषय में ही है, और उसका कोईलाभ नहीं है।

अवलोकन की, अवेयरनेस की इस ऊर्जा का उपयोग अपने अंतस के रूपांतरण के लिए कर लो। यह इतना आनंद दे सकती है, इतने आशीष बरसा सकती है कि तुम स्वप्न में भी नहीं सोच सकते। सरल सी प्रक्रिया है, लेकिन एक बार तुम इसका उपयोग स्वयं पर करने लगो, तो यह एक ध्यान बन जाता है। किसी भी चीज को ध्यान बनाया जा सकता है!

अवलोकन तो तुम सभी जानते हो, इसलिए उसे सीखने का कोई प्रश्न नहीं है, केवल देखने के विषय को बदलने का प्रश्न है। उसे करीबपर ले आओ। अपने शरीर को देखो, और तुम चकित होओगे।

अपना हाथ मैं बिना द्रष्टा हुए भी हिला सकता हूं, और द्रष्टा होकर भी हिला सकता हूं। तुम्हें भेद नहीं दिखाई पड़ेगा, लेकिन मैं भेद कोदेख सकता हूं। जब मैं हाथ को द्रष्टा-भाव के साथ हिलाता हूं, तो उसमें एक प्रसाद और सौंदर्य होता है, एक शांति और एक मौन होताहै।

तुम हर कदम को देखते हुए चल सकते हो, उसमें तुम्हें वे सब लाभ तो मिलेंगे ही जो चलना तुम्हें एक व्यायाम के रूप में दे सकता है, साथही इससे तुम्हें एक बड़े सरल ध्यान का लाभ भी मिलेगा।

–ओशो , ध्यानयोग: प्रथम और अंतिम मुक्ति

मेरे अनुभव जो शायद आपके कुछ काम आ सकें:- 

समय के साथ, 20 वर्षों के भीतर, मैं अन्य कृत्यों के दौरान होंश या जागरूकता को लागू करने में सक्षम हो गया, जबकि मुझे बाद में एहसास हुआ कि कई कृत्यों में यह पहले ही स्वतः होने लगा था।

संपूर्णता के साथ जीना, जीवन को एक प्रामाणिक रूप में जीना यानी भीतर बाहर एक या सहज जीवन जीना और ईमानदारी से जीना, लोगोंकी बिना भेदभाव के निःस्वार्थ भाव से सेवा करना और सभी बंधनों (धार्मिक, शैक्षिक, जाति, रंग आदि) से मुक्त होना यह तीन महत्वपूर्ण उत्प्रेरक हैं जो किसी को गहराई तक गोता लगाने में मदद करते हैं।

होंश का प्रयोग मेरे लिए काम करने का तरीका है, (instagram पर होंश) हो सकता है कि आपको भी यह उपयुक्तलगे अन्यथा अधिकांश लोगों के लिए गतिशील ध्यान है। लगभग 500 साल पहले भारतीय रहस्यवादी गोरखनाथद्वारा खोजी गई और ओशो द्वारा आगे संशोधित की गई 110 अन्य ध्यान तकनीकें हैं जिनका प्रयोग किया जा सकताहै और नियमित जीवन में उपयुक्त अभ्यास किया जा सकता है।

मेरे सुझाव :- 

नमस्कार ….. मैं अपनी आध्यात्मिक यात्रा के व्यक्तिगत अनुभवों से अपनी टिप्पणियाँ लिखता हूँ। इस पोस्ट में दुनिया भरके रहस्यवादियों की शिक्षाएँ शामिल हो सकती हैं जिन्हें मैं आज भी मानने लायक समझता हूँ। मेरे बारे में अधिकजानकारी के लिए और मेरे साथ सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर जुड़ने के लिए, मेरे सोशल मीडिया लिंक से जुड़ने केलिए वेबसाइट https://linktr.ee/Joshuto पर एक नज़र डालें, या मेरे यूट्यूब चैनल की सदस्यता लें और/यापॉडकास्ट आदि सुनें।

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10 thoughts on “होंश या सहज ध्यान/सुरती/सम्यक स्मृति/जागरुक रहना

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