भार झोंकी के भाड़ (भट्टी)में, उतरे सागर पार।

कबीर कहते हैं :

भार झोंकी के भाड़ (भट्टी)में, उतरे सागर पार। वे बूढ़े(डूबे) मँझधार में, जिनके सार पर भार।।

रहीम कहते हैं उसी बात को दूसरे ढंग से:

रहिमन पैडा प्रेम को, विकट सिलसिली गैल।
बिछलत पाँव पिपीलिको, लोग लदावत बैल।।


रहीम कहते हैं कि प्रभु प्रेम का रास्ता बहुत फिसलन भरा है यहाँ चींटी के भी पैर फिसल जाते हैं, (इतना भी अहंकार का भार बहुत है) और लोग बैल (बराबर भारी अहंकार लिए) लादकर इसको पार करना चाहते हैं। अहंकार शून्य की दशा में ही अपनी आत्मा का दर्शन होता है।

और मँझधार में ही डूबने की बात क्यों की गयी है? क्योंकि पानी के तेज बहाव में यदि नदी पार करनी हो तो सिर्फ़ मँझधार तक ही तैरना होता है, फिर बस अपने आपको आप छोड़ दो और पानी की सतह पर बने रहो तो पानी की धार आपको दूसरे किनारे पर पहुँचा देती है। ठीक वैसे ही भौतिक संसार की यात्रा पूरी कर चुकने पर (संसार सागर के तेज बहाव में आधी यात्रा पूरी कर चुकने के बाद) यदि हम अपना अहंकार छोड़ सकें तो आध्यात्मिक यात्रा की (संसार सागर के दूसरे किनारे पहुँचने के लिए) बाक़ी यात्रा अपने आप पूरी हो जाती है।

और मेरे देखे मेरे अपने अनुभव से कहता हूँ ‘awareness meditation’ से बेहतर कोई उपाय नहीं। क्योंकि इससे नो-माइंड की दशा ठहरने लगती है और जब कुछ निश्चित समय के लिए ठहरती है तो आप अहंकार शून्य अवस्था को प्राप्त हो जाते हैं। यह करने से नहीं अपनेआप होता है।

इसे कहें कि Jesus आपको गोदी में उठाकर तुम्हारे घर तक लाते हैं। यही दर्शन है, Philosia है और Satori का अनुभव है। पल भर में आप transform हो जाते हैं।
हिंदुओं की भाषा में कहें तो इसे यूँ समझो कि जब हम ध्यान अवस्था में ज़्यादा तीव्रता से (ज़्यादा देर नहीं) ठहरने लगते हैं तो हमारे आसपास का जो aura है वह बढ़ने लगता है। और अनंत तक उसका फैलाव हो सकता है, जैसे दो समानांतर रेखाएँ अनंत पर मिलती है। वैसे हम सबका aura अनंत पर मिलता है लेकिन सिर्फ़ एक दिशा में वहाँ से साँस के रूप में ऊर्जा लेने में।

ध्यान हमारा जाने का मार्ग बनाता है। लेकिन valency band की तरह वहाँ भी बहुत विशाल band होता है जिसे पार करना मनुष्य की क्षमता के बाहर है। तब हमारी ध्यान की तीव्रता एक सीमा तक जब बढ़ जाती है तो ईश्वर ‘प्रसाद स्वरूप’ या ‘कृपा दृष्टि से’ इसको छोटा करता है और एक क्षण के लिए हमें दिव्य दृष्टि प्राप्त होती है। कृष्ण के विराट स्वरूप का ‘दर्शन’ होता है और हम रूपांतरित हो जाते हैं। यह दर्शन अपने स्वरूप का दर्शन है, इसका कृष्ण या Jesus या मोहम्मद से कोई लेना देना नहीं है। यह सभी को एक जैसा अनुभव होता है। इसलिए जो अपने धर्म को या अपने ओहदे को या अपने हुनर को नहीं छोड़ पाते उनके लिए यह घटना असम्भव है। इस दर्शन को ही ओशो ने Philosia नाम दिया.


जितना हम दूसरे के झगड़े को सुनेंगे, देखेंगे और उसमें हिस्सा लेंगे उतना हमारा अहंकार पोषित होता है। सरसरी निगाह से सब देखते रहो और अपनी साधना में लगे रहो यही साक्षी भाव है। यही मददगार है हमारी यात्रा में, दूसरे का इसमें कोई role ही नहीं है, किसी भी रूप में। बस आप और वह रह जाते हैं। तुम अपने आपको नहीं कैसे कर सकते हो? करने वाला तो रहेगा ही!

एक साधे सब सधे, सब साधे सन जाय।

यदि मेरे जीवन में मेरी साधना को एक शब्द में कहने को कहा जाए तो वह होगा ‘होश’. पिछले 35 वर्षों से सुबह toothbrush का समयपूरी तरह मेरा अपना समय है। इसी में मैंने होश को साधा। पूरा ध्यान इस विडीओ में बताए अनुसार किया। धीरे धीरे यह मेरे जीवन केहर काम में अतिक्रमण कर गया। मुझे पता ही नहीं चला। लेकिन मुझे लोग कहते थे कि शाम को काम से आप बड़े ताजे होकर लौटते हैं।मुझे राज का पता आज चला इसे सुनने के बाद। आप होंश को साध लो सब अपने आप सध जाएगा।

ओशो द्वारा सुझाया सहज ध्यान यानी होंश पूर्वक जीना यानी रोज़ के काम में होंश का प्रयोग मेरे जीवन को बदलकर रख गया। अपने आप सहज ही मन सपने देखना कम कर देता है, फिर जब भी सपना शुरू करता है तो विवेकपूर्वक उसका आना दिखाई देने लगता है, और दिखाई दे गया कि फिर बुना नया सपना मन ने-तो फिर रोकना कोई कठिन काम नहीं है। मैंने इसे ओशो की एक किताब से सीखा और जीवन में सुबह ब्रश करते समय प्रयोग करके साधा।

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