बीज से सुगंध के रूप में अदृश्य हो जाने की प्रेम की यात्रा

एक पौधा जिसकी पत्तियाँ दिल के आकार की होती हैं और फूल पीला होता है। उसकी पत्तियों के बीच खुले फ़ुल का फ़ोटो जो प्रेम की यात्रा सेक्स से इस फ़ुल के माध्यम से करुणा रूपी सुगंध हो जाने तक।
प्रेम की यात्रा के अंतिम पड़ाव पर पहुँचा यह दिल आकार की पत्तियों वाला पौधा मेरे बगीचे में अपनेआप उग आया। सहसा मुझे लगा कि इस पोस्ट के लिए इसका फोटो बिलकुल उपयुक्त रहेगा। दिल आकार के पौधे में पत्तियाँ भी तीन है! सेक्स, प्रेम और करुणा को बताती इस पत्तियों का फ़ुल पीला है, जैसे उसके जीवन में वसंत आ गया हो।

मेरे अनुभव से ओशो के प्रवचन के हिस्से के माध्यम से ‘बीज से सुगंध तक प्रेम की यात्रा’ पर प्रकाश (अपनी बात कोष्ठक में लिखकर इस तरह) डाला गया है ताकि आपको बात गहरे बैठ जायँ और आप आज ही से जीवन में कुछ बदलाव लाकर उसका प्रभाव देख सकें । यह ज़रूरी नहीं कि यह सुझाव आपके कोई काम आएगा लेकिन इसी तरह प्रयोग करते रहे तो एक दिन आप उस विधि को जान ही लेंगे जो एकदम प्रभावकारी सिद्ध होगी, फिर उसे ही प्रयोग में लेते रहें, मंज़िल ज़रूर मिलेगी। अंत में भी मैंने अपने अनुभव और कुछ सुझाव दिए हैं।

राजस्थान के महान संत दादू के प्रेम पर दिये संदेशों के आधार पर सेक्स रूपी प्रेम को बीज बताते हुए हमारे जीवन में सेक्स की यात्रा का महत्व बताते हुए कहते हैं कि इस प्रेम की यात्रा की अनंत करुणा रूपी  सुगंध में पूर्णाहुति हो सकती है जिसका मार्ग और उसका महत्व बताते हुए ओशो कहते हैं :-

प्रेम ज्ञान है। एकमात्र ज्ञान प्रेम ही है। बाकी सब जानना ऊपर-ऊपर है। क्योंकि ऐसा और कोई भी जानना नहीं है जिसमें जानने वाले को मिटना पड़ता हो। वह प्रेम की पहली शर्त है: मिट जाना, खो जाना।

जन्म होता है, मृत्यु होती है। सभी का जन्म होता है, सभी की मृत्यु होती है। जन्म और मृत्यु के बीच जो व्यक्ति प्रेम से परिचित हो जाता है, वह अमृत को उपलब्ध हो जाता है।

इसक अलह औजूद है, इसक अलह का रंग।।

परमात्मा की जाति प्रेम; परमात्मा की देह प्रेम; परमात्मा की आत्मा, अस्तित्व प्रेम; परमात्मा का ढंग, होने का रंग, रूप-रेखा प्रेम।

जीसस का यह वचन कि परमात्मा प्रेम है, बहुत गहरे में खोजने जैसा है।

इसका यह अर्थ नहीं है कि परमात्मा प्रेमी है।

इसका यह अर्थ नहीं कि परमात्मा करुणावान है।

इसका यह अर्थ नहीं कि परमात्मा दयावान है।

जैसा कि बहुत से ईसाइयों ने इसका अर्थ किया है।

अगर ऐसा ही कहना होता जीसस को तो वे कहते: परमात्मा प्रेमी है, परमात्मा महाकारुणिक है, परमात्मा दयावान है।

पर उन्होंने ऐसा नहीं कहा। उन्होंने कहा, परमात्मा प्रेम है। प्रेमी नहीं, दयावान नहीं, करुणावान नहीं; सिर्फ प्रेम है।

परमात्मा का सारा रूप व्यक्तित्व का नहीं है, ऊर्जा का है। प्रेम ऊर्जा है; शुद्ध शक्ति है; शुद्धतम शक्ति है। वह श्रेष्ठतम है, अंतिम है।

जैसे बीज को हम बोते हैं, वह पहला चरण है। वृक्ष होता है, वह दूसरा चरण। (इस लिंक से आप एक ऐनिमेशन के माध्यम से इस यात्रा को YouTube पर देख सकते हैं) फूल लगते हैं, वह तीसरा चरण। फिर सुवास आकाश में उड़ जाती है, वह चौथा चरण। प्रेम सुवास है

बीज कामवासना के हैं। प्रेम आखिरी घटना है। उसके पार फिर कुछ भी नहीं है।

बीज का तो रूप है;

सुवास का कोई रूप है? (परमात्मा का भी कोई रूप नहीं है)

बीज का तो पता-ठिकाना है;

सुगंध का कोई पता-ठिकाना है? (परमात्मा का भी कोई पता ठिकाना नहीं है)

बीज को तो तुम पकड़ लोगे। वृक्ष को भी पकड़ लोगे। फूल को भी मुट्ठी में ले सकते हो।

लेकिन सुवास का क्या करोगे? (परमात्मा की तरह सिर्फ़ महसूस कर सकते हैं, एक एहसास है परमात्मा) 

मुट्ठी बांधोगे तो मुट्ठी में सुवास न रह जाएगी। (सिर्फ़ महसूस कर पाओगे) 

प्रेम को कोई बांध नहीं सकता। और जिसने भी प्रेम को बांधने की कोशिश की, उसके हाथ में कूड़ा-करकट लगेगा।

सुवास को बांधने का यह ढंग नहीं। सुवास के साथ तो स्वयं जो उड़ जाए; सुवास के साथ तो स्वयं जो लीन हो जाए; सुवास के अंतहीन, आकारहीन अस्तित्व के साथ जो अपनी एकता साध ले; गिर जाए बूंद की भांति सागर में, वही जान पाएगा। जो सुवास हो जाए वही जान पाएगा।

स्वभावतः जरूर कोई बड़ी बाधा होगी कि इतने लोग जन्मते हैं, बहुत कम लोग प्रेम को जान पाते हैं। इतने लोग मरते हैं, बिना प्रेम को जाने मर जाते हैं। कोई गहरी बाधा होनी चाहिए। बाधा है। उसे हम ठीक से समझ लें तो फिर ये सूत्र समझ में आ जाएंगे।

(प्रेम की यात्रा में) कामवासना प्रेम की निम्नतम दशा है। है तो प्रेम की ही, पर बड़ी सीमाओं में बंधी है, क्षुद्र से घिरी है। कामवासना का अर्थ है: शरीर का शरीर के प्रति आकर्षण। स्वभावतः कामवासना पृथ्वी की है; बहुत स्थूल है। उसमें बास भूमि की है। वह मिट्टी से ही पैदा हुई है और मिट्टी में ही गिर जाएगी। मिट्टी से ऊपर उसका कोई अस्तित्व नहीं है।

फिर जीवन में जिसे हम साधारणतः प्रेम कहते हैं, वह है। उसको प्रेम दादू नहीं कहते, हम उसे प्रेम कहते हैं। वह प्रेम है दो मनों का आकर्षण। शरीर से ऊपर है। थोड़ी यात्रा ऊपर उठी। थोड़ी सीढ़ी पर ऊपर चढ़े। जो इतने प्रेम को भी उपलब्ध हो जाए वह भी धन्यभागी है।

अधिक लोग तो शरीर पर ही समाप्त हो जाते हैं।( प्रेम की यात्रा में बिना एक कदम उठाये ही यात्रा समाप्त हो जाती है।)

उन्हें पता ही नहीं चलता कि शरीर से और भी ऊंचाइयां थीं, और भी गहराइयां थीं। उन्हें यह भी पता नहीं चलता कि शरीर तो एक पायदान था। उस पर पैर रखना था, ऊपर उठ जाना था।

लेकिन जिनके जीवन में थोड़ी सी प्रेम की झलक आती है, जो शरीर के आकर्षण के कारण नहीं है, जो दूसरे व्यक्ति के व्यक्तित्व, उसके मन–शरीर के पार थोड़ा सा उठता है (जिनका) भाव–जिन्होंने यह प्रेम भी जान लिया, उनको एक बात समझ में आ जाती है कि जानने को और भी बाकी हो सकता है। द्वार खुलता है। अब दीवार नहीं रह जाती। (मानसिक प्रेम को कोई कितनी ही दूर बैठा हो, महसूस कर सकता है। कबीर कहते हैं जहां ना चींटी चढ़ सके मन वहाँ लिए जाई)

जो शरीर पर ही समाप्त हो जाते हैं, उनके लिए सिर्फ दीवार ही रह जाती है।(दीवार मतलब स्थूल, शरीर)

फिर (इस प्रेम की यात्रा में) एक तीसरा और प्रेम है, जिसको भक्तों ने प्रार्थना कहा है।

जब दो शरीर के बीच आकर्षण होता है तो काम;

जब दो मनों के बीच आकर्षण होता है तो प्रेम–जिसे हम प्रेम कहते हैं;

जब दो आत्माओं के बीच आकर्षण होता है तब प्रार्थना;

और जब दो बिलकुल खो जाते हैं, दो ही नहीं रह जाते, तब इसक। जिसको दादू प्रेम कहते हैं; जिसको जीसस ने प्रेम कहा है। वह आखिरी ऊंचाई है।

(प्रेम की यात्रा की) वे सीढ़ियां तुम्हारे भीतर हैं। तुम पहली ही सीढ़ी पर खड़े रह जाओ तो कोई और जिम्मेवार नहीं है। दूसरी सीढ़ी पास ही थी। लेकिन कोई अड़चन होनी चाहिए। कोई गहरी बाधा होनी चाहिए। इतने लोग चूक जाते हैं कि करीब-करीब ऐसा लगता है, चूकना स्वाभाविक है। और इतने कम लोग उपलब्ध हो पाते हैं कि ऐसा लगता है, पाना अपवाद है, नियम नहीं। कोई बुद्ध, कोई चैतन्य, कोई दादू, कोई नानक–कभी करोड़ों लोगों में एक।

बाधा है: मरने का डर। क्योंकि जितनी ऊंचाई पर तुम जाते हो, उतना ही तुम्हारा अहंकार क्षीण होने लगता है, गलने लगता है। जितनी ऊंचाई होगी, उतने ही तुम कम हो जाओगे। यह डर है। जितनी नीचाई होगी, उतने ही तुम रहोगे। ठीक जमीन पर पड़े रहो तो पत्थर की चट्टान की तरह तुम होओगे। स्वभावतः ऊपर उठना हो तो पत्थर की चट्टानें ऊपर नहीं उठतीं; सुगंध उठती है, अग्नि की शिखा उठती है, भाप उठती है। विरल हो जाना पड़ता है। स्वयं को खोना पड़ता है।

कामवासना में कोई खोता नहीं अपने को। कामवासना में तुम तुम रहते हो। तुम दूसरे का उपयोग कर लेते हो। तुम मिटते नहीं, वस्तुतः तुम दूसरे को मिटाने की चेष्टा करते हो।

इसीलिए तो पति-पत्नियों में इतनी कलह है सारे संसार में पूरे मनुष्य-जाति के इतिहास में। हजार तरह से सोचा गया है कि पति-पत्नी की कलह कैसे मिटे। कोई उपाय नहीं दिखता। कलह मिट नहीं सकती, ऐसा लगता है।

जब तक मनुष्य ऊपर न उठना सीखे, कलह नहीं मिट सकती। कलह यही है कि पत्नी पति को मिटाने की चेष्टा कर रही है, पति पत्नी को मिटाने की चेष्टा कर रहा है। एक गहन संघर्ष है, जो चाहे उन्हें ज्ञात भी न हो। पति कोशिश कर रहा है कि मैं सब कुछ हूं, तू मेरी परिधि है। पत्नी भी यही कोशिश कर रही है कि मैं केंद्र हूं, तुम परिधि हो। दोनों के अहंकार अपने को बचाने की चेष्टा में संलग्न हैं। कहीं दूसरा मिटा न दे। इसके पहले कि दूसरा मिटाए, मैं उसे मिटा दूं; यही सुरक्षा का उपाय मालूम पड़ता है।

इसलिए कामवासना प्रेम की तो बड़ी दूर की खबर है, हिंसा की ज्यादा। और अगर ज्ञानियों ने कामवासना से ऊपर उठने को कहा है, तो इसीलिए कहा है ( प्रेम की यात्रा कहीं हिंसा पर ही ख़त्म ना हो जाए, नहीं तो मनुष्य होकर भी जानवर या शाक-भाजी की तरह जीते रहे)

 महावीर ने तो स्पष्ट कहा है कि कामवासना हिंसा है।

ये जैन शास्त्र अब तक नहीं समझा पाए हैं इस बात को कि कामवासना को हिंसा कहने का अर्थ क्या है?

उन्होंने मूढ़तापूर्ण बातें खोज ली हैं, पंडितों ने, कि संभोग करने में कीटाणुओं की हिंसा होती है। क्योंकि दो शरीर का घर्षण होता है, इसलिए कुछ कीटाणु छोटे हवा के मर जाते हैं। इसलिए महावीर ने कामवासना को हिंसा कहा है।

पंडितों से मूढ़ आदमी खोजने मुश्किल हैं।(पूरे लालबुझक्कड़ होते हैं) उनके पास आंखें तो नहीं हैं, अंधे हैं। शब्दों के कुछ भी अर्थ तो निकालने ही पड़ेंगे। तो वे अपने अंधेपन से यह अर्थ निकाल लेते हैं। कामवासना को महावीर ने इसलिए हिंसा नहीं कहा है।

इसलिए हिंसा कहा है कि जहां भी काम है वहां दूसरे को मिटाने की चेष्टा है। वही हिंसा है। और जब तक काम प्रेम न बन जाए तब तक हिंसा जारी रहेगी। और जब तक काम प्रेम न बन जाए तब तक ब्रह्मचर्य का कोई आविर्भाव न होगा।

तो ब्रह्मचर्य कामवासना का त्याग नहीं है, बल्कि कामवासना के भीतर जो छिपे हुए प्रेम का तत्व है, उसको मुक्त करना है। कामवासना की हत्या नहीं कर देनी है। यह तो ऐसे हुआ जैसे बीज को कुचल कर मार डाला। अब तुम बैठे रहो, सुगंध न आएगी।

यद्यपि बीज के रहते भी सुगंध न आ सकती थी। बीज को टूटना था–टूटना था भूमि में; ताकि बीज तो मिट जाए, लेकिन बीज में छिपी हुई जो सुवास है वह मुक्त हो जाए। उसको मुक्त होने पर लंबी यात्रा करनी पड़ेगी। बीज को वृक्ष बनना पड़ेगा, वृक्ष को फूल बनना पड़ेगा, फूल से सुवास मुक्त होगी। लंबी यात्रा है।

लेकिन अगर तुमने पत्थर उठा कर बीज मिटा दिया, जैसा कि बहुत से लोग करते हैं, साधु-संन्यासी करते हैं; उन्होंने कामवासना को पत्थर से मार डाला। अब वे बैठे हैं। ब्रह्मचर्य की कोई गंध नहीं आती। कामवासना मिटा दी और ब्रह्मचर्य की कोई सुगंध नहीं आती। तुम उनके जीवन को बड़े अधर में लटका हुआ पाओगे, त्रिशंकु की भांति पाओगे। न तो वे इस जगत के रहे, न उस जगत के।

तुम्हारे तथाकथित साधु-संन्यासी की बड़ी दुर्गति है। वे तुमसे भी बुरी स्थिति में हैं। तुम्हारे पास कम से कम बीज है। तुम भला बीज में ही अटके हो, लेकिन अभी भी संभावना है कि बीज को तुम बो दो, अंकुर आ जाए। अभी भी देर नहीं हो गई है। कभी भी देर नहीं हो गई है। जब भी तुम बीज को बो दोगे तभी अंकुर आ जाएगा। लेकिन तुम्हारे साधु-संन्यासी ने तो बीज को तोड़ डाला, इस डर से कि कामवासना में हिंसा है। बीज तो मर गया। उस बीज के साथ ही सुवास की संभावना भी मर गई।

कामवासना के विपरीत नहीं है ब्रह्मचर्य, कामवासना का शुद्धतम रूप है। बीज के विपरीत नहीं है सुगंध, बीज की ही शुद्धतम अभिव्यक्ति है

क्या फर्क है बीज में और सुगंध में?

बीज में जो-जो पृथ्वी का अंश था वह पृथ्वी में डूब गया और जो-जो आकाश का अंश था वह सुवास से मुक्त हो गया।

(प्रेम की यात्रा पर जब भी निकलोगे क्योंकि किसी ना किसी जन्म में तो निकलना होगा ही, जिस जन्म में साहस से भर जाओगे तो निकल पड़ोगे। जो इसी जन्म में साहसी हुए यदि तो )

तुम्हारे भीतर जो-जो पृथ्वी का अंश है, वह कामवासना के धीरे-धीरे छूटते-छूटते पृथ्वी में लीन हो जाएगा। और

तुम्हारे भीतर जो आकाश है–आत्मा कहो, परमात्मा कहो, वह मुक्त हो जाएगा। उसकी कोई जड़ें जमीन में न रह जाएंगी। वह उड़ जाएगा आकाश में। यही मोक्ष है, यही निर्वाण है।

लेकिन मेरी बात ठीक से समझ लेना। मैं ब्रह्मचर्य के पक्ष में हूं और कामवासना के विपक्ष में नहीं हूं। क्योंकि कामवासना के विपक्ष में होते ही ब्रह्मचर्य का तो उपाय ही खो गया। यह तो तुमने प्रेम की यात्रा की सीढ़ी का पहला पायदान ही तोड़ दिया। अब इस पर दूसरे पर तो जाने का उपाय न रहा। तुमने सीढ़ी जला दी। सीढ़ी जला कर तुम ऊपर न पहुंच जाओगे, तुम सीढ़ी से भी नीचे गिर जाओगे।

इसलिए मैं कहता हूं कि जिसने कामवासना को ठीक से समझा नहीं, वह ब्रह्मचर्य को तो नहीं होगा उपलब्ध, नपुंसकता को उपलब्ध हो जाएगा। वह सीढ़ी से भी नीचे गिर जाएगा। अगर सिर्फ नपुंसकता ही परमात्मा को पाने का उपाय होती, तो सभी नपुंसक पा लेते।

लेकिन तुमने कभी सुना है किसी नपुंसक को मुक्त होते?

कोई इतिहास में उल्लेख है किसी नपुंसक का, जो कि परम ज्ञान को उपलब्ध हुआ हो?

वह असंभव है; इसलिए उल्लेख नहीं है। असंभव है इसलिए कि उसके पास बीज ही नहीं है। वह बो नहीं सकता। वह फसल नहीं काट सकता। वह सुगंध को फैला नहीं सकता आकाश में।

कामवासना में बुराई कुछ भी नहीं है, उस पर रुक जाने में बुराई है। कामवासना के पार जाना है।

तब तुम उसे भी धन्यवाद दोगे। तब तुम कहोगे, तेरे बिना ऊपर भी न उठ सकते थे। तब तुम्हारा मन वासना के प्रति भी अनुग्रह से भरा होगा; क्रोध से, निंदा से नहीं। (जो कोई भी प्रेम की यात्रा के एक चरण को जब सही से पार करेगा तब वह दूसरे के प्रति अनुग्रह से भर जाएगा )

दो शरीरों के बीच जो आकर्षण है उसमें हिंसा रहेगी। क्योंकि शरीर आपस में मिल कैसे सकते हैं? ठोस हैं। उनका मिलना संभव नहीं है। कामवासना में भी मिलते हैं तो मिलना क्या है? कहां मिलते हैं? मिलने का धोखा है। इतनी ठोस चीजें कहीं मिली हैं! तुम दो दीयों को मिलाने की कोशिश कर रहे हो।

दो ज्योतियां मिल सकती हैं। दो दीयों की ज्योतियां करीब ले आओ, एक ज्योति हो जाएगी। कोई बाधा न पड़ेगी। कोई संघर्षण भी न होगा। जरा भी आवाज न होगी कहीं। किसी को कानों-कान खबर न होगी कि दो ज्योतियां मिल गईं। क्योंकि दो ज्योतियों के बीच मिलने में कोई बाधा नहीं। सूक्ष्म सूक्ष्म से मिल जाता है, आत्मा आत्मा से मिल जाती है।

लेकिन दो दीयों को टकराओ! बड़ी कलह होगी, आवाज मचेगी, शोरगुल होगा, हिंसा होगी। (कामवासना पर आधारित प्रेम दो दियों का मिलने की कोशिश करना है) हां, दीये एक-दूसरे को तोड़ सकते हैं; मिल नहीं सकते। और अगर मिलें तो मिलने का एक ही उपाय है कि दोनों टूट जाएं। तो उसको अगर तुम मिलना कहते हो तो बात दूसरी। लेकिन जितने वे टूटने के पहले अलग थे, उतने ही टूटने के बाद भी अलग होंगे।

स्थूल मिल ही नहीं सकता। सब मिलन सूक्ष्म का है। इसलिए जितना सूक्ष्म होते जाओगे उतना मिलन सघन होता जाएगा। और एक ऐसी भी घड़ी आती है, अंतिम घड़ी, जिसको दादू ने कहा है: इसक अलह औजूद है। परमात्मा का अस्तित्व प्रेम है। जहां दो बिलकुल मिल जाते हैं कि फिर तुम उन्हें दुबारा अलग भी न कर सकोगे। उनकी रूप-रेखा ही खो जाती है। उनको अलग करने का उपाय ही समाप्त हो जाता है। लेकिन यह तो ऊंचाई पर होगा।

कामवासना को प्रेम बनाओ। दो व्यक्तियों के मन मिल सकते हैं–थोड़े से मिल सकते हैं। शरीर से ज्यादा मिल सकते हैं, क्योंकि मन थोड़ी सूक्ष्म बात है। कभी-कभी ऐसी घटना घट जाती है।

मैं बोल रहा हूं। जब मैं बोल रहा हूं तो मैं मन का उपयोग कर रहा हूं। तुम जब सुन रहे हो तो मन का उपयोग कर रहे हो। कभीकभी ऐसी घड़ी जाती है जब तुम वहां नहीं होते, मैं यहां नहीं होता। कभीकभी सुनने वाला बोलने वाले से एक क्षण को एक हो जाता है। उसी घड़ी तुम्हें एक स्वाद मिलेगा ध्यान का। जो तुम्हें करकर के भी नहीं मिलता होगा, अचानक मिल जाएगा।

दो मन मिल गए, करीब आ गए। दो लपटें पास आईं और एक हो गईं। फिर दूर हो जाएंगी। क्योंकि मन सदा पास नहीं हो सकता। मन कोई स्थिर तत्व नहीं है। इसलिए मिल सकता है, अलग हो जाएगा। मन के साथ कोई स्थिरता नहीं है। वह गति तत्व है। वह भाग रहा है। वह दो नदियों की तरह है भागता हुआ। कभी पास आ जाएंगे किनारे तो मिल जाएंगे; फिर अलग हो जाएंगे।

मन एक प्रवाह है। वह शाश्वतता नहीं है। इसलिए प्रवाह का तो थोड़ी देर के लिए मिलना हो सकता है। वह तो ऐसा ही है, जैसे दो व्यक्ति रास्ते पर दौड़ते थे; करीब आ गए; फिर दूर हो गए। दौड़ते ही दौड़ते थोड़ी बात हो गई, थोड़ा मिलन हो गया, फिर अपने-अपने रास्तों पर विदा हो गए। दो पक्षी आकाश में उड़ते हुए करीब आए, फिर दूर हो गए।

लेकिन मन शरीर से ज्यादा करीब आ सकता है। कभी किसी संगीतज्ञ को सुनते वक्त कुछ लीन हो जाता है, कोई तल्लीनता जग जाती है। संगीतज्ञ नहीं रह जाता, श्रोता नहीं रह जाता, संगीत ही रह जाता है। उस संगीत में दोनों मिल गए होते हैं।

यह घटना कभी-कभी घटती है। जिनके जीवन में प्रेम की घटना घटती है उनको दिखाई पड़ता है: कैसा अभाग्य होता अगर हम शरीर पर ही रुक जाते।

इसलिए शरीर की वासनाओं से मन की वासनाएं ऊपर हैं। जैसे एक आदमी खाने में रस लेता है; यह भी वासना है। और एक आदमी संगीत में रस लेता है; यह भी वासना है। लेकिन भोजन का रस शरीर का रस है। बहुत स्थूल है। संगीत का रस सूक्ष्म है, मन का है, थोड़ा गहरा है। थोड़े गहरे संस्कार होंगे उसके। और आगे की यात्रा के लिए थोड़े संकेत मिलेंगे। थोड़े शरीर से हटे।

और जिसके जीवन में मन के रस की संभावना खुल गई, उसे एक दिन कभी दो आत्माओं के मिलने का रस भी आ जाता है। गुरु और शिष्य के बीच वैसी घटना घटती है; जहां शिष्य बड़ी गहन श्रद्धा में अपने को सौंप देता है। इस भांति सौंप देता है कि जरा भी संदेह मन में नहीं होता। अपने को बचाता नहीं जरा भी। सौंप देता है पूरा। शिष्य का अर्थ ही है, जिसने अपने को सौंप दिया और जिसने कहा–अब जैसी तेरी मर्जी!

इसे तुम ठीक से समझ लो। क्योंकि पत्थर की मूर्ति के सामने तुम्हारे अहंकार को कोई अड़चन ही नहीं होती झुकने में। वहां दूसरा कोई है ही नहीं जिसके सामने अड़चन हो। जीवन की वास्तविक प्रार्थना तो किसी जीवंत गुरु के पास ही पैदा होती है। क्योंकि वहीं तुम्हें झुकने की अड़चन मालूम होती है–कैसे झुकें? किसी जीवित व्यक्ति के सामने कैसे झुकें? आसान है किसी पत्थर के सामने झुक जाना। क्योंकि वहां कोई है ही नहीं जिसके सामने तुम झुक रहे हो। वस्तुतः तुम पत्थर की मूर्ति के सामने जब झुकते हो तो तुम अपने ही मन की धारणा के सामने झुक रहे हो।

मुसलमान मस्जिद में झुक जाता है, क्योंकि मस्जिद उसकी मन की धारणा है। हिंदू मंदिर में झुक जाता है, क्योंकि वह मंदिर उसका मंदिर है। हिंदू को मस्जिद में झुकाओ, तब बड़ी कठिनाई होगी। जैन को हिंदू मंदिर में झुकाओ, तब बड़ी कठिनाई होगी। रीढ़ अकड़ी रहेगी। सिर नीचे नहीं झुकेगा। क्योंकि यह मेरी धारणा नहीं है, इसके सामने मैं कैसे झुकूं!

इसे थोड़ा समझ लो। हम अपनी ही धारणा के सामने झुक जाते हैं। इसको अगर ठीक से कहा जाए तो ऐसा हुआ: हम अपने ही चरणों में झुके रहते हैं। यह तो अहंकार का खेल है। कृष्ण तुम्हारे भगवान हैं, इसलिए तुम झुक जाते हो। तुम्हारी मान्यता है कि वे भगवान हैं, इसलिए झुक जाते हो।

तुम अपनी ही मान्यता के सामने झुकते हो, कृष्ण के सामने नहीं। कृष्ण के सामने झुकते तो रूपांतरित हो जाते। अपनी ही मान्यता के सामने हजारों बार झुकते रहोगे, कुछ भी न होगा। व्यर्थ की कवायद हो रही है। नाहक शरीर को कष्ट दे रहे हो। इतना समय तुमने यूं ही गंवाया।

लेकिन जब तुम किसी जीवंत व्यक्ति के पास पहुंचते हो, कोई जीवित व्यक्ति तुम्हारी धारणा के अनुकूल नहीं हो सकता। मुर्दे ही केवल तुम्हारी धारणा के अनुकूल हो सकते हैं। जीवंत व्यक्ति तो इतनी महा घटना है कि तुम्हारी सब धारणाओं को तोड़ कर बहेगा। वह तो बाढ़ आई गंगा है। वह कोई नहरों में बहता हुआ पानी नहीं है कि तुमने लकीरें बांध दी हैं, वहीं-वहीं बहता है। जहां तुम ले जाना चाहते हो, वहीं जाता है। जीवंतता तो बाढ़ है; जीवन की बाढ़ है। वह कोई कूल-किनारा नहीं मानता। उसके सामने जब तुम झुकोगे, तो एक ही उपाय है: तुम अगर मिटो तो ही झुक सकते हो। तुम्हारी अगर जरा सी भी धारणा शेष है, तो तुम झुकने में अड़चन पाओगे।

तुम्हारी धारणा कहेगी, इस आदमी के सामने झुकते हो? पहले पक्का तो कर लो कि तुम जिसे मानते हो ज्ञानी है, यह वैसा ज्ञानी है? पहले पक्का तो कर लो कि तुम जिसे आचरण कहते हो, वैसा आचरण इसका है? तुम पहले पक्का तो कर लो कि तुम जिस शास्त्र को मानते हो, यह उस शास्त्र के अनुकूल है? तुम सारी बातें पक्की कर लो। हां, अगर तुम्हारी धारणा के अनुकूल पड़ता हो तो झुक जाना।

तब तुम ध्यान रखना, तुम फिर भी अपनी धारणा के सामने ही झुक रहे हो।

गुरु की खोज एक ऐसे व्यक्ति की खोज है जो तुम्हारी धारणाओं को तोड़ दे। वह तुम्हारी धारणाओं के अनुकूल व्यक्ति की खोज नहीं है। वह किसी जीवंत घटना की खोज है जहां तुम्हारी सारी धारणाएं डगमगा जाएं, टूट जाएं, छितर-बितर जाएं। जो तुम्हारे विचारों को उखाड़ दे; जो तुम्हारी नींद को तोड़ दे। और तुम्हारी नींद टूटे, मूर्च्छा टूटे, तो तुम शायद झुको। क्योंकि अहंकार मूर्च्छा है। वह गहरी नींद है। तुम सब उपाय कर लो, उससे कुछ भी न होगा, जब तक तुम्हारी नींद न टूटे।

और अहंकार नशा है। इसलिए तो हमने उसको मद कहा है। अहंकार के नशे में तुम सोए हो। किसी के चरणों में जब तुम छोड़ दोगे अपने को…।

और ध्यान रखना, सूक्ष्म बात है, खयाल रख लेनी। अगर किसी व्यक्ति से तुम्हारे विचार मेल खाते हों और तुम छोड़ो, तो वह नंबर दो की घटना होगी–मन और मन के मिलने की। लेकिन ऐसे व्यक्ति के चरणों में अपने को छोड़ो, जिससे तुम्हारे विचार मेल न भी खाते हों, लेकिन जिसमें तुम्हें कुछ दिखाई पड़ता है जो तुमसे पार है। भला तुम्हारे विचार उससे सब तरह मेल न भी खाते हों, कई जगह वह तुम्हारे विचार के प्रतिकूल हो, भिन्न हो, विपरीत हो; लेकिन जिस व्यक्ति में तुम्हें ऐसी झलक मिलती हो कि वह तुम्हारी जीवन-चेतना से ऊपर है। विचार की फिक्र मत करना। क्योंकि अंततः विचारों का कोई मूल्य नहीं है। अंततः तो जीवन-चेतना की स्थिति-सोपान का मूल्य है। जिसके पास जाकर तुम्हें लगता हो कि सिर उठा कर ऊपर देखना पड़ता है तब इस आदमी की थोड़ी प्रतिमा दिखाई पड़ती है, उसके चरणों में अपने को छोड़ देना; तो तीसरी घटना घटेगी प्रार्थना की।

और इस तीसरे के बाद ही चौथे का उपाय है, जिसकी दादू चर्चा कर रहे हैं। उस चौथे को वे इसक कहते हैं, प्रेम कहते हैं। उसी चौथे का नाम परमात्मा है। तब तुम किसी खास व्यक्ति के चरणों में अपने को नहीं छोड़ रहे हो। तीसरी घटना गुरु के चरणों में घटती है। गुरु का आकार है, रूप है, रंग है।

( इस अपूर्व, अलौकिक प्रेम की यात्रा में अंतिम चरण में )

चौथी घटना अरूप और निराकार के चरणों में घटती है। फिर तुम सिर्फ अपने को छोड़ देते हो। तुम फिर यह भी नहीं पूछते, किसके चरणों में? समग्र के चरणों में तुम अपने को छोड़ देते हो। तुम समग्र के साथ बहने लगते हो।

जब लगि सीस न सौंपिए, तब लगि इसक न होई।

आसिक मरणै न डरै, पिया पियाला सोई।।

जब तक सिर सौंपने की तैयारी न हो तब तक प्रेम न होगा।

सिर के दो अर्थ हैं। एक तो तुम्हारा सोच-विचार; और दूसरा तुम्हारा अहंकार। सिर तुम्हारी अकड़ है और सिर तुम्हारा चिंतन भी। तुम्हारे विचार भी सारे सिर में संगृहीत हैं और तुम्हारी अस्मिता भी, मैं-भाव भी।

जब लगि सीस न सौंपिए…

जब तक इस सिर को ही उतार कर न दे दोगे कहीं…

…तब लगि इसक न होई।

तब तक तुम्हें प्रेम का पता न चलेगा। मिटोगे नहीं, प्रेम का पता न चलेगा। तुम्हारे रहते प्रेम का पता न चलेगा, तुम्हारे मिटते ही पता चलेगा। तुम्हारे मिटने पर ही प्रेम पैदा होता है। जैसे बीज के मिटने पर वृक्ष पैदा होता है। ठीक तुम बीज की तरह हो। मिटोगे तो ही कुछ बड़ा तुम्हारे भीतर पैदा होगा। और यही बाधा है। तुम डरते हो मिटने से। तुम मृत्यु से भयभीत हो कि कहीं मिट न जाऊं! तुम अपने को बचाते हो। बचाने से हिंसा पैदा होती है। तुम दूसरे को मिटाने में लग जाते हो।

दो तरह के लोग हैं संसार में। एक, जो अपने को बचाने में लगे हैं। स्वभावतः जो अपने को बचाने में लगता है, वह दूसरे को मिटाने में लग जाता है।

दूसरे, जिन्होंने यह समझ लिया कि मिटना तो होगा ही, मौत तो आने ही वाली है। इसलिए उसकी चिंता छोड़ दी। विपरीत, उन्होंने अपने को मिटाने में लगा दिया। जो अपने को मिटाने में लगता है, वह दूसरे को मिटाने में नहीं जाता। और जो स्वयं को पूरी तरह मिटा देता है, उसी के जीवन में प्रेम की सुगंध का जन्म होता है।

-ओशो, सभी सयाने एक मत, ओशो (के दादू दयाल के संदेशों पर प्रवचन) से, सातवाँ प्रवचन ‘इसक अलह का रंग’

मेरे अनुभव से:- 

ओशो के वक्तव्य “जैसे बीज को हम बोते हैं, वह पहला चरण है। वृक्ष होता है, वह दूसरा चरण। फूल लगते हैं, वह तीसरा चरण। फिर सुवास आकाश में उड़ जाती है, वह चौथा चरण। प्रेम सुवास है। बीज कामवासना के हैं। प्रेम आखिरी घटना है। उसके पार फिर कुछ भी नहीं है।” में बीज से वृक्ष होने की प्रेम की यात्रा के दूसरे चरण के मेरे अनुभव से जो आवश्यक है उसे यहाँ बताना ज़रूरी लगता है, क्योंकि यही आपकी साधना का हिस्सा है बाक़ी अपने आप होता है

आख़िर निराकार से ही आकार का निर्माण हुआ है , और जब तक वापस निराकार आत्मा की झलक नहीं मिलती तब तक जीवन में सभी तरह के उतार-चढ़ाव आते जाते रहेंगे और जीवन बीत जाएगा। निराकार की एक झलक अपनेआप से, बग़ैर किसी बाहरी सहयोग के,(चाहे वह गुरु ही क्यों ना हो) आपको अपने साथ बहा ले जाती है। वही प्रेम की सबसे उच्च स्थिति का प्रतीक है जिसमें दो मिट जाते हैं और आपसे ‘अहं ब्रह्मस्मि’ का उदघोश निकलता है, करना नहीं होता।

होंश के छोटे से प्रयोग से आप भी इस अवस्था को समय के साथ अपने भीतर मौजूद पाएँगे। मेरे एक पोस्ट में इसके बारे में विस्तार से बताया है। लिंक पर क्लिक करके उसे भी पढ़ सकते हैं।

इसके साथ ‘सहज जीवन के सूत्र’ पोस्ट में मैंने जीवन को कैसे जिया जाए की होंश के प्रयोग का प्रभाव देखने में आ सके, उसे भी पढ़ेंगे तो और भी बेहतर होगी आपकी आंतरिक यात्रा। अनंत शुभकामनाओं के साथ।

मेरे जीवन के अनुभव से मैं कहता हूँ कि दैनिक जीवन में होंश के प्रयोग के साथ साथ सहज जीवन भी यदि जिया जाए तो साधना की सरलता से सफलता भी बढ़ जाती है। ये दोनों एक दूसरे को मज़बूत करते जाते हैं। मुझसे सोशल मीडिया और अन्य ब्लॉग पर जुड़ने के लिए।

कॉपीराइट © ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन, अधिकतर प्रवचन की एक एमपी 3 ऑडियो फ़ाइल को osho डॉट कॉम से डाउनलोड किया जा सकता है या आप उपलब्ध पुस्तक को OSHO लाइब्रेरी में ऑनलाइन पढ़ सकते हैं।यू ट्यूब चैनल ‘ओशो इंटरनेशनल’ पर ऑडियो और वीडियो सभी भाषाओं में उपलब्ध है। OSHO की कई पुस्तकें Amazon पर भी उपलब्ध हैं।

मेरा सुझाव:- 

ओशो के डायनामिक मेडिटेशन को ओशो इंटरनेशनल ऑनलाइन (ओआईओ) ऑनलाइन आपके घर से सीखने की सुविधा प्रदान करता है। ओशो ध्यान दिवस अंग्रेज़ी में @यूरो 20.00 प्रति व्यक्ति के हिसाब से। OIO तीन टाइमज़ोन NY, बर्लिन औरमुंबई के माध्यम से घूमता है। आप अपने लिए सुविधाजनक समय के अनुसार प्रीबुक कर सकते हैं।

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