दुनिया बदलने की कुंजी है कि तुम अपने को जमा लो

एक माँ अपने बच्चे को पजल को जोड़कर चित्र बनाना सिखाते हुए बचपन में ही दुनिया बदलने की कुंजी दे सकती है।जैसा इस चित्र में बताया है।
दुनिया बदलने की कुंजी तो हमको बचपन में ही मिल गई थी लेकिन जवानी में जो दूसरे पर ध्यान जाना शुरू होता है तो उसको कभी रोकना भी होता है। जो रोक पाते हैं वही मनुष्य के रूप में वसुंधरा को भोगते हैं, वही वीर हैंफ़्रेंच संत जॉर्ज गुर्जिएफ़ की नज़र में बाक़ी सारे मनुष्य बस शाक भाजी ही हैं, क्योंकि उन्होंने अपनी आत्मा को क्रिस्टलाइज़ नहीं किया, जिसे यहाँ ओशो ‘अपने को जमा लो’ कह रहे हैं।

यह पोस्ट उन लोगों को समर्पित है जो अपने आसपास की सारी दुनिया को बदलने की चिंता करते हैं, मानवता की चिंता करते हैं।

मेरे अनुभव से ओशो के प्रवचन पर प्रकाश डाला गया है ताकि आपको बात गहरे बैठ जायँ और आप आज ही से जीवन में कुछ बदलाव लाकर उसका प्रभाव देख सकें । यह ज़रूरी नहीं कि यह सुझाव आपके कोई काम आएगा लेकिन इसी तरह प्रयोग करते रहे तो एक दिन आप उस विधि को जान ही लेंगे जो एकदम प्रभावकारी सिद्ध होगी, फिर उसे ही प्रयोग में लेते रहें, मंज़िल ज़रूर मिलेगी। अंत में भी मैंने कुछ सुझाव दिए हैं।

संत फ़रीद की किताब ‘अकथ कहानी प्रेम की’ में फ़रीद के संदेशों पर बोलते हुए ओशो उनको दुनिया बदलने की कुंजी देते हैं कि :-

मैं तुमसे कहता हूं कि तुम इतना ही कर लो कि तुम अपने को जमा लो, सारी दुनिया अपने आप जमने लगेगी।

एक छोटे स्कूल में ऐसा हुआ कि एक शिक्षक बच्चों को समझा रहा था। दुनिया का नक्शा उसने कई टुकड़ों में काट दिया और बच्चों से कहा कि अब तुम इसे जमा कर बताओ। बच्चे बड़ी मुश्किल में पड़ गए। कोई सौ टुकड़े कर दिए उसने दुनिया के नक्शे के मुश्किल था..टिम्बकटू की जगह मैडगास्कर चला गया, मैडगास्कर की जगह टिम्बकटू आ गया। कठिनाई मालूम होने लगी कि कहां स्पेन को रखें, कहां तिब्बत को; क्योंकि टुकड़े-टुकड़े कर दिए।

लेकिन एक छोटे बच्चे ने, उस नक्शे के गत्तों को उलटा कर देखा। उसे तरकीब मिल गई। दूसरी तरफ कुंजी थीदूसरी तरफ एक आदमी की तसवीर बनी थी, उसने सब टुकड़े उलटा दिए और आदमी की तसवीर जमा दी। इस तरफ आदमी जमता गया उस तरफ दुनिया जम गई।

वहीं मैं तुमसे कहता हूं। आदमी जम जाए, सारी दुनिया जम जाएगी। तुम दुनिया को जमाते रहो..(तुमसे एक) आदमी भी न जमेगा। दुनिया भी न जमेगी।(कभी नहीं जमेगी, जब भी किसी ने दुनिया को जमाया होगा तो उसने आदमी को ही जमाया होगा क्योंकि वह सबसे आसान और वही संभव भी है) 

दुनिया बदलने की कुंजी आदमी की तस्वीर है। उस तस्वीर को जमाने कहीं भी नहीं जाना है, क्योंकि तुम भी वही कुंजी हो। तुम अपने से शुरू कर दो। क्योंकि हर एक व्यक्ति महत्वपूर्ण है।

गाँव हो, ज़िला हो, या राज्य हो या देश हो वह एक एक व्यक्ति से बनता है।

(मेरे अनुभव से :- मैंने बांध के विस्थापितों के लिए काम किया था जब मैं नौकरी करता था। एक नगर जो डूब में आने वाला था और जिसके सारे लोग विस्थापित होकर चले गए थे क्योंकि उसी साल बांध पूरा भराना था। तो उस विस्थापित हुए नगर मैं जाने का मौक़ा मिला।

बिलकुल उजाड़ और सुनसान नगर पहली बार देखा तो लगा जैसे मरघट में आ गया हूँ। सच में एक एक व्यक्ति मिलकर ही नगर बनता है। एक एक व्यक्ति मिलकर ही संसार भी बनता है। एक एक व्यक्ति महत्वपूर्ण है। )

राजनीति सदा दूसरे से शुरू होती है, धर्म सदा अपने से।

—-ओशो, सूफ़ी संत फ़रीद के संदेशों पर ओशो के प्रवचन,

     ओशो की किताब ‘अकथ कहानी प्रेम की’, प्रवचन सातवाँ।

मेरे अनुभव जो शायद आपके काम आ सकें:

यह मेरा भी अनुभव है कि धार्मिक होने का मतलब ही अपने को बदलने और बदलते रहने की निरंतर यात्रा पर होना है। फिर चाहे आप तीर्थों की यात्रा पर ना भी जायें क्योंकि आपके भीतर तीर्थों का निर्माण हो रहा है। और यही सबसे बड़ी सम्पत्ति है जो आपके साथ जाएगी।

होंश के छोटे से प्रयोग से आप भी इस अवस्था को समय के साथ अपने भीतर मौजूद पाएँगे। मेरे एक पोस्ट में इसके बारे में विस्तार से बताया है। लिंक पर क्लिक करके उसे भी पढ़ सकते हैं। 

इसके साथ ‘सहज जीवन के सूत्र’ पोस्ट में मैंने जीवन को कैसे जिया जाए की होंश के प्रयोग का प्रभाव देखने में आ सके, उसे भी पढ़ेंगे तो और भी बेहतर होगी आपकी आंतरिक यात्रा। अनंत शुभकामनाओं के साथ।

मेरे जीवन के अनुभव से मैं कहता हूँ कि दैनिक जीवन में होंश के प्रयोग के साथ साथ पाखंड रहित जीवन भी यदि जिया जाए तो साधना की सरलता से सफलता भी बढ़ जाती है। ये दोनों एक दूसरे को मज़बूत करते जाते हैं।

Spotify पर हिन्दी में कुछ पॉडकास्ट दर्शन (Philosia) नाम के चैनल पर किए हैं।

द्रष्टा (यानी भीतर की आँख से) होने का चमत्कार यह है कि जब तुम (आँख बंद करके अपने ) शरीर को देखते हो, तो तुम्हारा द्रष्टा अधिक मजबूत होता है। जब तुम अपने विचारों को देखते हो, तो तुम्हारा द्रष्टा और भी मजबूत होता है। और जब अनुभूतियों को देखते हो, तो तुम्हारा द्रष्टा फिर और मजबूत होता है। जब तुमअपनी भाव-दशाओं को देखते हो, तो द्रष्टा इतना मजबूत हो जाता है कि स्वयं बना रह सकता है — स्वयं को देखता हुआ, जैसे किअंधेरी रात में जलता हुआ एक दीया न केवल अपने आस-पास प्रकाश करता है, बल्कि स्वयं को भी प्रकाशित करता है!

लेकिन लोग बस दूसरों को देख रहे हैं, वे कभी स्वयं को देखने की चिंता नहीं लेते। हर कोई देख रहा है — यह सबसे उथले तल परदेखना है — कि दूसरा व्यक्ति क्या कर रहा है, दूसरा व्यक्ति क्या पहन रहा है, वह कैसा लगता है इत्यादि।

(इसलिए जब भी कोई व्यक्ति ऊँचे पद पर पहुँचता है तो वह सारे गाँव, ज़िला, देश या सारी दुनिया को बदलने की बात करने लगता है क्योंकि अपने पर तो कभी ध्यान गया ही नहीं! )

हर व्यक्ति देख रहा है — देखने की प्रक्रिया कोई ऐसी नई बात नहीं है, जिसे तुम्हारे जीवन में प्रवेश देना है। उसे बस गहराना है — दूसरों से हटाकर स्वयं की आंतरिकअनुभूतियों, विचारों और भाव-दशाओं की ओर करना है — और अंततः स्वयं द्रष्टा की ओर ही इंगित कर देना है।

लोगों की हास्यास्पद बातों पर तुम आसानी से हंस सकते हो, लेकिन कभी तुम स्वयं पर भी हंसे हो? 

कभी तुमने स्वयं को कुछ हास्यास्पदकरते हुए पकड़ा है? 

नहीं, स्वयं को तुम बिलकुल अनदेखा रखते हो — तुम्हारा सारा देखना दूसरों के विषय में ही है, और उसका कोईलाभ नहीं है।

अवलोकन की, अवेयरनेस की इस ऊर्जा का उपयोग अपने अंतस के रूपांतरण के लिए कर लो। यह इतना आनंद दे सकती है, इतने आशीष बरसा सकती है कि तुम स्वप्न में भी नहीं सोच सकते। सरल सी प्रक्रिया है, लेकिन एक बार तुम इसका उपयोग स्वयं पर करने लगो, तो यह एक ध्यान बन जाता है।

किसी भी चीज को ध्यान बनाया जा सकता है!

अवलोकन तो तुम सभी जानते हो, इसलिए उसे सीखने का कोई प्रश्न नहीं है, केवल देखने के विषय को बदलने का प्रश्न है। उसे करीबपर ले आओ। अपने शरीर को देखो, और तुम चकित होओगे।

अपना हाथ मैं बिना द्रष्टा हुए भी हिला सकता हूं, और द्रष्टा होकर भी हिला सकता हूं। तुम्हें भेद नहीं दिखाई पड़ेगा, लेकिन मैं भेद कोदेख सकता हूं। जब मैं हाथ को द्रष्टा-भाव के साथ हिलाता हूं, तो उसमें एक प्रसाद और सौंदर्य होता है, एक शांति और एक मौन होताहै।

तुम हर कदम को देखते हुए चल सकते हो, उसमें तुम्हें वे सब लाभ तो मिलेंगे ही जो चलना तुम्हें एक व्यायाम के रूप में दे सकता है, साथही इससे तुम्हें एक बड़े सरल ध्यान का लाभ भी मिलेगा।

–ओशो , ध्यानयोग: प्रथम और अंतिम मुक्ति

मेरे अनुभव जो शायद आपके कुछ काम आ सकें:- 

समय के साथ, 20 वर्षों के भीतर, मैं अन्य कृत्यों के दौरान होंश या जागरूकता को लागू करने में सक्षम हो गया, जबकि मुझे बाद में एहसास हुआ कि कई कृत्यों में यह पहले ही स्वतः होने लगा था।

संपूर्णता के साथ जीना, जीवन को एक प्रामाणिक रूप में जीना यानी भीतर बाहर एक और ईमानदारी से जीना, लोगोंकी बिना भेदभाव के निःस्वार्थ भाव से सेवा करना और सभी बंधनों (धार्मिक, शैक्षिक, जाति, रंग आदि) से मुक्त होनातीन महत्वपूर्ण उत्प्रेरक हैं जो किसी को गहराई तक गोता लगाने में मदद करते हैं।

होंश का प्रयोग मेरे लिए काम करने का तरीका है, (instagram पर होंश) हो सकता है कि आपको भी यह उपयुक्तलगे अन्यथा अधिकांश लोगों के लिए गतिशील ध्यान है। लगभग 500 साल पहले भारतीय रहस्यवादी गोरखनाथद्वारा खोजी गई और ओशो द्वारा आगे संशोधित की गई 110 अन्य ध्यान तकनीकें हैं जिनका प्रयोग किया जा सकताहै और नियमित जीवन में उपयुक्त अभ्यास किया जा सकता है।

Copyright © OSHO International Foundation, An MP3 audio file of this discourse can be downloaded from Osho.com or you can read the entire book online at the Osho Library.

Many of Osho’s books are available in the U.S. online from Amazon.com and Viha Osho Book Distributors. In India they are available from Amazon.in also.

 

If you need further clarification on this post or if you wish to share your experience in this regard that may prove beneficial to visitors, please comment.