
बड़े कोष्ठक में ओशो एक कहानी के संदर्भ में जो कह रहे हैं वह है और छोटे कोष्ठक में मेरे अनुभव से ओशो के प्रवचन पर प्रकाश डाला गया है ताकि आपको बात गहरे बैठ जायँ और आप आज ही से जीवन में कुछ बदलाव लाकर उसका प्रभाव देख सकें । यह ज़रूरी नहीं कि यह सुझाव आपके कोई काम आएगा लेकिन इसी तरह प्रयोग करते रहे तो एक दिन आप उस विधि को जान ही लेंगे जो एकदम प्रभावकारी सिद्ध होगी, फिर उसे ही प्रयोग में लेते रहें, मंज़िल ज़रूर मिलेगी। अंत में भी मैंने कुछ सुझाव दिए हैं।
1965 में बॉम्बे में एक प्रवचन देते हुए ओशो कहते हैं:-
नानक ने कहाः जिस चीज को मरने के पीछे न ले जा सको, उसे जिंदगी में इकट्ठा करने की भूल में मत पड़ना।
और जिसे जिंदगी में लौटाने का खयाल आता है क्योंकि मृत्यु के बाद नहीं लौटा सकेंगे, उस सबको लौटा दो जिंदगी को, वापस उसे इकट्ठा मत करो। [सुई ही मुझे मत लौटाओ] सब लौटा दो जो-जो इकट्ठा हो जो कि मृत्यु के पार न जा सके।
असल में हम समृद्धि के थोथे, झूठे रूप में अपने भीतर की दरिद्रता छिपा लेते हैं।
जितना गरीब आदमी होगा, उतनी संपत्ति की उसे आकांक्षा होती है और जितना नीचा आदमी होगा, उतने बड़े पद पर होने की उसकी मंशा होती है।
जो बहुत बड़े पद पर होते हैं, वे बहुत हीन लोग होते हैं। अपनी हीनता भुलाने को बड़े पदों को खोजते हैं।
और जो बहुत संपत्ति को खोज लेते हैं, वे बहुत दरिद्र लोग होते हैं। अपनी दरिद्रता छिपाने को संपत्ति का आवरण इकट्ठा कर लेते हैं। इसलिए दुनिया में जो दरिद्र है वह संपत्तिशाली दिखाई पड़ता है और जो बहुत दीन-हीन है वह बड़े पदों पर अनुभव होता है।
क्राइस्ट ने कहा हैः धन्य हैं वे लोग जो अंतिम हो सकते हैं।
क्राइस्ट ने कहा हैः धन्य हैं वे लोग जो अंतिम हो सकते हैं; क्योंकि जरूर उनमें प्रथम होने की क्षमता है।
धन्य हैं वे लोग जो दरिद्र हो सकते हैं; क्योंकि निश्चित ही है यह बात की उनकी दरिद्रता सूचना है कि वे दरिद्र नहीं हैं, इसलिए उन्हें कोई संपत्ति से अपनी दरिद्रता छिपाने का कोई कारण नहीं है।
धन्य हैं वे लोग जो निम्न हो सकते हैं; क्योंकि उन्हें ऊंचे उठने का कोई खयाल पैदा नहीं होता, क्योंकि उनके भीतर कोई नीचा है ही नहीं, जिससे ऊपर उठने का खयाल पैदा होता हो।
इसलिए इस दुनिया में समृद्ध दरिद्र देखे जाते हैं और दरिद्र समृद्ध देखे जाते हैं। और भिखारी हुए हैं जो सम्राट थे और सम्राट हुए हैं जो कि भिखारी थे।
(नानक ने उस सुबह उससे कहा, कि फिर सोचो, तुम्हारे पास क्या है?) नानक ने उससे कहा, मैं उस चीज को विपत्ति कहता हूं जो मृत्यु के पार न जा सके, उसे संपत्ति कहता हूं जो मृत्यु के पार चली जाए।
मैं भी आपसे यह कहूं, वही संपत्ति है जो मृत्यु के पार चली जाए। और ऐसी संपत्ति केवल सत्य की है और कोई संपत्ति नहीं है। और कोई संपत्ति नहीं है जिसे मृत्यु की लपटें नष्ट न कर देंगी।
एक ही संपत्ति है, सत्य की, और वह आपकी उधार है, वह आपकी दूसरों से ली हुई है। वह आपकी महावीर, कृष्ण और क्राइस्ट से मिली हुई है। वह आपने गीता, कुरान और बाइबिल से ली हुई है।
वह संपत्ति आपकी नहीं है (उधार की है) जो कि संपत्ति है।
और जिसे आप संपत्ति समझ रहे हैं, वह बिलकुल आपकी न है और न हो सकती है। उसे आपको छोड़ ही देना होगा। जिसे छोड़ देना होगा उसे इकट्ठा कर रहे हैं और जो साथ हो सकती है उसे अपने से दूर रख रहे हैं और बड़े-बड़े नामों का सहारा ले रहे हैं।
स्मरण रखें, सत्य आपका हो तो ही आपका हो सकता है। इसलिए समाज और परंपरा और शिक्षा आपको जो देती है उसे सत्य मत मान लेना।
मैं एक गांव में गया। वहां एक अनाथालय में मुझे दिखाने ले गए। वहां उन्होंने कहा कि हम छोटे-छोटे बच्चों को धर्म की शिक्षा देते हैं। मैं हैरान हुआ। क्योंकि मेरी बुद्धि कुछ गड़बड़ है और मुझे ऐसा लगता है कि धर्म की कोई शिक्षा हो नहीं सकती। और जब भी कोई शिक्षा होगी तो धर्म के नाम पर किसी न किसी गलत चीज की होगी। असल में धर्म की साधना होती है, शिक्षा होती ही नहीं है।
मैंने कहा कि मैं हैरान हूं, धर्म की शिक्षा कैसे होगी? फिर मैं देखूं क्या शिक्षा देते हैं?
उन्होंने कहाः आप इन बच्चों से कुछ भी पूछें, इनको सब उत्तर मालूम हैं।
मैंने कहाः आप ही पूछें तो मैं सुनूं, क्योंकि मुझे यह भी ठीक पता नहीं कि कौन सा प्रश्न है जो धार्मिक है?
क्योंकि जितने प्रश्न धर्म की किताबों में लिखा दिखाई पड़ते हैं, वे सब मुझे थोथे मालूम होते हैं, वे कोई भी प्रश्न मुझे धार्मिक नहीं मालूम होते हैं। और उनके उत्तर तो उनसे भी ज्यादा थोथे होते हैं। मैंने कहाः आप ही पूछें। तो उन्होंने पूछा लड़कों से, आत्मा कहां हैं? उन सारे लड़कों ने छाती पर हाथ रखे, उन्होंने कहा–यहां।
मैंने एक लड़के से पूछाः यहां तुम कह रहे हो, क्या मतलब है तुम्हारा?
उसने कहाः हमें बताया गया है कि आत्मा हृदय में है।
और मैंने कहाः हृदय कहां है?
वह लड़का बोलाः यह हमें बताया नहीं गया।
मैंने उनको कहा कि इन बच्चों के साथ दुव्र्यवहार कर रहे हैं, अन्याय कर रहे हैं। इन्हें एक बात सीखा रहे हैं कि आत्मा यहां है, ये सीख लेंगे और जब भी जीवन में इनके सामने प्रश्न खड़ा होगा, आत्मा कहां है? यह हाथ यांत्रिक रूप से छाती पर चला जाएगा और कहेगा, यहां। यह उत्तर बिलकुल झूठा होगा, यह दूसरों ने सिखाया है।
इस उत्तर के कारण इनका प्रश्न दब जाएगा और इनके भीतर जिज्ञासा पैदा नहीं हो सकेगी जो कि आत्मा की खोज में ले जाती है।
इनके लिए उत्तर दे दिया रेडीमेड, बना-बनाया। ये उसे स्वीकार कर लिए–बालपन में, अबोध चित्त की अवस्था में। जब कुछ सोच-समझ और विवेक जाग्रत नहीं है तभी दुनिया के सारे धार्मिक लोग उन निरीह निर्दोष बच्चों के मन में अपनी शिक्षा को डाल देना चाहते हैं। इससे बड़ा और कोई अनाचार और कोई बड़ा पाप नहीं है, न हो सकता है। क्योंकि उनके दिमाग में जो बातें आपने भर दी हैं, वे जीवन भर उन्हीं को प्रतिध्वनित करते रहेंगे और इस भ्रम में रहेंगे कि उन्हें ज्ञान उपलब्ध हो गया है। जब कि ज्ञान उन्हें उपलब्ध नहीं हुआ। उन्होंने कुछ बातें और कुछ शब्द सीख लिए हैं।
आप भी शब्द सीखे हुए होंगे। खयाल करके देखना कि किसी के सिखाए हुए शब्द हैं या यह अपनी अनुभूति है?
और अगर ऐसा मालूम पड़े कि दूसरों के सिखाए हुए शब्द हैं, तो कृपा करना उन्हें छोड़ देना और भूल जाना।
इसके पहले कि कोई सत्य को उपलब्ध हो सके, सत्य के संबंध में जो भी सीखा है उसे भूल जाना अत्यंत अपरिहार्य और अनिवार्य है।
सत्य के संबंध में जो भी जानते हैं, उसे भूल जाना जरूरी है, अगर सत्य को जानना है।
अगर परमात्मा को जानना है, तो परमात्मा के संबंध में जो भी जानते हैं, कृपा करें उसे छोड़ दें।
वह कचरे से ज्यादा नहीं है जो आपके मन को घेरे हुए है।
और मन अगर सारे कचरे से मुक्त हो जाए जो हमें सिखाया गया है, तो उसका जन्म होगा जो ज्ञान है।
ज्ञान सिखाया नहीं जाता, वह हमारा स्वरूप है।
जो सिखाया जाता है वह कभी ज्ञान नहीं हो सकता।
जो बाहर से भीतर डाला जाता है वह कभी ज्ञान नहीं होता।
जो भीतर से बाहर आता है वह ज्ञान होता है।
अगर ज्ञान हमारा स्वरूप है, अगर वह हमारी अंतर्निहित क्षमता है, तो वह बाहर से नहीं डाली जाएगी, वह भीतर से आएगी। और भीतर से आने में वह सब जो बाहर से डाला गया है बाधा हो जाता है।
एक तो हौज में पानी भर देते हैं ऊपर से, वह भी पानी है। पंडित के मस्तिष्क में जो ज्ञान भरा होता है, वह हौज के पानी की तरह है।
और एक कुएं में भी पानी के जलस्रोत निकलते हैं, वह भी पानी है। लेकिन ज्ञानी का जो ज्ञान होता है, वह कुएं की भांति होता है। उसमें पानी ऊपर से नहीं डाला जाता, मिट्टी, कंकड़, पत्थर बाहर निकाले जाते हैं (और जो भी कुआँ खोदने का प्रयत्न करता है वह खोदते चले जाय तो पानी ज़रूर प्राप्त होता है) और पानी नीचे पाया जाता है।
और पंडित का जो ज्ञान होता है, उसमें ऊपर से पानी डाला जाता है, निकाला कुछ भी नहीं जाता। तो जो-जो ज्ञान आपके ऊपर से डाला जाता है, (मतलब सभी डिग्रीयाँ, और उनके कारण ज्ञानी होने की धारणा को यहाँ पंडित कहकर बताया गया है, इसका किसी जाति से सम्बंध नहीं है) वह हौज की तरह आपके भीतर भर जाएगा, वह कोई वास्तविक बात नहीं है। आपके जलस्रोत नहीं उससे खुलते हैं और भरा हुआ पानी जल्दी ही गंदा हो जाता है। इसलिए पंडित के मस्तिष्क से ज्यादा गंदा मस्तिष्क जमीन पर दूसरा नहीं होता। इसलिए पंडित सारी दुनिया में उपद्रव की जड़, झगड़ों-फसादों की बुनियाद है। दुनिया में पंडितों ने जितना उपद्रव करवाया है उतना बुरे लोगों ने बिलकुल नहीं करवाया।
लेकिन भले लोग अपराधियों की तरह बंद हैं और पंडित पूजे जा रहे हैं।
दुनिया में जितनी खून-खराबी हुई है, मनुष्य के साथ जितने अत्याचार हुए हैं, मनुष्य और मनुष्य के बीच जितनी दीवालें खड़ी की हैं, वह पंडित ने खड़ी की हैं, इसलिए वे अपराधी हैं, लेकिन वे सम्मानित हो रहे हैं।
जरा मनुष्य के इतिहास को उठा कर देखें, उसमें जितने खून के धब्बे हैं, उसमें निन्यानबे पंडित के पास पड़ेंगे, एक प्रतिशत अपराधियों के पास जाएगा।
दुनिया में मनुष्य और मनुष्य के बीच जितनी भी खाइयां और लड़ाइयां और उपद्रव खड़े किए गए हैं, वे पंडित ने खड़े किए हैं।
और मैं मानता हूं इसके पीछे कारण हैं, जो भी पानी ऊपर से भर दिया जाता है वह गंदा हो जाता है, उसमें कोई जीवित स्रोत नहीं होते हैं। तो पंडित चाहे वह किसी धर्म का हो, उसके भीतर बाहर से भरा हुआ ज्ञान धीरे-धीरे गंदगी और सड़न पैदा कर देता है और वह सड़न फिर नये-नये रूपों में निकलनी शुरू हो जाती है। घृणा और विद्वेष फैलाने का कारण हो जाती है। मनुष्य को मनुष्य से तोड़ने का कारण हो जाती है।
ज्ञान तो वास्तविक भीतर से आता है, बाहर से नहीं आता। और वह तभी आएगा जब बाहर के ज्ञान को हम अलग कर दें, क्योंकि वह कंकड़-पत्थर की तरह भीतर के ज्ञान को दबा लेता है। जो भी हमने बाहर से सीख लिया है, वह हमारे आत्म के जागरण में बाधा है। अगर हम बाहर से सीखे हुए को बाहर वापस लौटा दें, तो वह जाग जाएगा जो हमारे भीतर है और निरंतर मौजूद है। उसकी स्फुरणा हो जाएगी।
सत्य को खोजने कहीं जाना नहीं है, जो-जो असत्य हमने सीख लिया है उसे अलग कर देना है और सत्य हमारे भीतर होगा।
परमात्मा को खोजने कहीं जाना नहीं है, जो-जो हमने अपने ऊपर आवरण डाल लिए हैं वे अलग कर देने हैं और परमात्मा उपलब्ध हो जाएगा।
एक रात, एक बहुत सर्द रात को एक पहाड़ के पास एक छोटे से मंदिर में एक आदमी ने जाकर दस्तक दी। आधी रात होने को थी और बहुत ठंडी रात थी, अंदर से पूछा गया, कौन है इतनी रात को? सुबह आओ। उस आदमी ने कहाः मैं बहुत पापी हूं, मैं बहुत बुरा आदमी हूं। मैंने बहुत बार सोचा कि दिन में आपके पास आऊं, लेकिन वहां और बहुत से लोग होते हैं, इसलिए मैं रात को आया हूं। वह मंदिर एक साधु का था। दरवाजा खोला गया। वह साधु अंतिम सोने की तैयारी कर रहा था। उसकी सिगड़ी की आग भी बुझ गई थी और राख ही राख थी। उसने उससे पूछा कि तुमने यह कैसे कहा कि तुम पापी हो? जरूर किसी पंडित ने तुम्हें समझाया होगा कि तुम पापी हो। क्योंकि पंडित का एक ही काम है कि वह दुनिया में लोगों को समझाए की वे पापी हैं। और मेरी दृष्टि में किसी को यह समझा देना कि तुम पापी हो, इससे बड़ा कोई पाप नहीं हो सकता है, क्योंकि उसके पापी होने की बुनियाद रख दी गई है।
ज्ञानी समझाता है, तुम परमात्मा हो।
पंडित समझाता है, तुम पापी हो।
ज्ञानी कहता है, तुम्हारे भीतर परमात्मा छिपा है और पंडित कहता है, तुम्हारे भीतर पाप ही पाप है।
उस साधु ने कहा कि जरूर किसी पंडित से तुम्हारा मिलना हो गया है, किसने तुम्हें कहा कि तुम पापी हो? मैं तो देखता हूं तुम परमात्मा हो। उस आदमी की आंखें नीचे झुकी थीं, उसने ऊपर उठाईं, यह पहली दफा कोई आदमी मिला था जिसने कहा कि तुम परमात्मा हो। उसने कहाः लेकिन मैं चोरी करता हूं। लेकिन मैं दूसरों की संपत्ति पर बुरी नजर डालता हूं। लेकिन मेरे मन में क्रोध आता है और मैं लोगों की हत्या तक के विचार कर लेता हूं।…जलाने से कैसे दूर होगा, जैसा वह पागल है वैसे ही तुम पागल हो कि पाप-पाप की बातें कर रहे हो और परमात्मा की तरफ नहीं देख रहे। देखो और पाप विलीन हो जाएगा। पाप इसलिए है कि परमात्मा की तरफ दृष्टि नहीं है। पाप नहीं होगा, परमात्मा की तरफ दृष्टि भर होने की बात है। उस पापी से कहाः बैठो। तो वह जो आदमी कह रहा था कि मैं पापी हूं, उससे कहाः बैठो। वह आदमी बोलाः लेकिन मुझे तो कोई परमात्मा दिखाई नहीं पड़ता, मेरे भीतर सब पाप ही पाप दिखाई पड़ता है।
सिगड़ी रखी थी, आग बुझने के करीब थी, सर्द रात थी। उस साधु ने कहाः देखो, रात बहुत ठंडी है, शायद सिगड़ी में एकाध अंगारा हो, जरा उसे कुरेदो। उस आदमी ने देखा, उसने कहाः सब राख ही राख है।
वह साधु हंसने लगा, उसने कहाः देखो, तुम्हारे देखने में ही गलती है। उसने फिर राख को कुरेदा, एक छोटे से अंगारे को निकाला, फूंका और जलाया और उसने कहाः देखो, यह अंगारा है और यह उतनी ही आग है जितना सूरज में आग है।
यह उतनी ही आग है क्योंकि एक बूंद में पूरा सागर है और अग्नि की एक चिनगारी में सारा सूरज है।
ऐसी भूल जैसी तुमने सिगड़ी को खोजने में की, अपने बाबत भी कर रहे हो, राख ही राख अपने को समझ रहे हो, पाप ही पाप अपने को समझ रहे हो।
थोड़ा और ठीक से खोजो तो चिनगारी मिल जाएगी जो कि सूरज की है।
और इस सिगड़ी की आग तो बुझ भी सकती है, लेकिन मनुष्य के भीतर एक ऐसी आग जल रही है जिसका बुझना असंभव है।
कितने ही पाप उसे नहीं बुझा सकते हैं और कितना ही अज्ञान उसे नहीं बुझा सकता।
कोई भी रास्ता उसे बुझाने का नहीं है, क्योंकि वह मनुष्य की अंतःसत्ता है, और उसे मिटाने का कोई उपाय नहीं है।
तो मैं आपको कहूं, हरेक के भीतर वह सत्य की अग्नि और वह परमात्मा मौजूद है।
उसे अगर जानना है तो जो बाहर से हमने सीख लिया है उस राख को झड़ा देना होगा, तो अंगारा उपलब्ध हो जाएगा।
और जब भीतर का अंगारा उपलब्ध होता है तो जीवन एक ज्योति बन जाता है। और जब भीतर की अग्नि उपलब्ध होती है तो जीवन एक प्रेम बन जाता है। और जब भीतर की अग्नि उपलब्ध होती है तो जीवन बिलकुल ही दूसरा जीवन हो जाता है।
हम उसी दुनिया में होते हैं लेकिन दूसरे आदमी हो जाते हैं।
उन्हीं लोगों के बीच होते हैं लेकिन दूसरे व्यक्ति हो जाते हैं।
सारा रुख, सारी पहुंच, सारी समझ, सारी दृष्टि परिवर्तित हो जाती है।
और उस नये मनुष्य का जन्म जब तक भीतर न हो जाए तब तक न हमें जीवन का पता होता है, न हमें आनंद का, न सौंदर्य का, न संगीत का। तब तक हम भटकते हैं, जीते नहीं हैं। तब तक हम मूच्र्छित, अर्धनिद्रा में चलते हैं, होश में नहीं होते हैं। तब तक हमारा जीवन एक दुखस्वप्न है, एक नाइटमेयर है, उससे ज्यादा नहीं है। उसके बाद ही हमें पता चलता है कि क्या है जीवन? क्या है धन्यता? क्या है कृतार्थता? और तब जो ग्रेटिट्यूड, तब जो कृतज्ञता का बोध पैदा होता है वह धार्मिक मनुष्य का लक्षण है।
कैसे जो हमारे ऊपर बाहर से इकट्ठा हो गया हम उसे अलग कर दें?
कौन सा रास्ता है कि जो हमें सिखाया गया है उसे हम भूल जाएं?
कौन सा रास्ता है कि हमारे चित्त पर जो-जो धूल इकट्ठी हो गई हम उसे झाड़ दें और चित्त के दर्पण को स्वच्छ कर लें। रास्ता है।
अगर धूल के इकट्ठे होने का रास्ता है तो धूल के अलग होने का रास्ता भी होगा।
जिस भांति धूल इकट्ठी होती है अगर हम उसके कारण को समझ लें तो उस कारण पर ही चोट करने से धूल अलग होनी भी शुरू हो जाएगी।
धूल कैसे इकट्ठी होती है?
जीवन में धूल इकट्ठे होने के दो कारण हैं।
एक तो कारण है, हम होश में नहीं होते हैं।
जो भी आता है आ जाने देते हैं। जैसे कोई धर्मशाला हो। आवारा धर्मशाला हो, जिसमें कोई पहरेदार नहीं है।
कोई भी आए और ठहरे और कोई भी जाए, कोई रोकने वाला नहीं है, कोई बताने वाला नहीं है, कोई ठहराने वाला नहीं है।
हमारे चित्त को हम करीब-करीब ऐसी धर्मशाला, ऐसी सराय बनाए हुए हैं, कोई भी आए और ठहर जाए हमें कोई मतलब नहीं है।
कोई कचरा डाल दे हमारे घर में, तो हम नाराज हो जाते हैं और हमारे दिमाग में डाल दे, तो हम धन्यवाद देते हैं कि बहुत अच्छी बातें बताईं।
घर में कचरे फेंकने वाले पर हम गुस्सा करते हैं और मस्तिष्क में जो लोग कचरा डालते रहते हैं उन पर हम बिलकुल गुस्सा नहीं करते हैं।
चौबीस घंटे हमारे मस्तिष्क खुले हुए हैं और व्यर्थ के इस कचरे को भीतर ले जा रहे हैं।
हम भोजन में तो खयाल रखते हैं कि अशुद्ध भीतर न चला जाए, लेकिन मन के भोजन में बिलकुल खयाल नहीं रखते और कुछ भी भीतर चला जा रहा है।
सुबह से उठ कर अखबार पढ़ रहे हैं, व्यर्थ की किताबें पढ़ रहे हैं, व्यर्थ की बातें कर रहे हैं, व्यर्थ की बातें सुन रहे हैं।
जो कचरा दूसरे हमारे दिमाग में डाल रहे हैं उसका कुछ न कुछ बांट और दान हम दूसरों को भी कर रहे हैं। और सारी दुनिया के मस्तिष्क एक अजीब पागलपन और अजीब कचरे से भर गए हैं और हर आदमी दूसरे के दिमाग में डालता चला जा रहा है।
इसके प्रति थोड़ी सजगता की जरूरत है, थोड़े होश की जरूरत है।
यह जानने की जरूरत है कि मेरे मस्तिष्क के भीतर व्यर्थ कुछ भी न डाला जाए।
अगर इसका होश हो
मैं अभी यात्रा में था। मेरे साथ एक सज्जन थे, उन्होंने बहुत चाहा कि मुझसे बातचीत करें। लेकिन मुझे बिलकुल चुप देख कर उन्होंने कई उपाय भी किए। मैं हां-हूं करके चुप हो गया। तो वे फिर थोड़ी देर चुप रहे, फिर उपाय किए। उन्हें बहुत बेचैनी थी, उन्हें बहुत परेशानी थी। वे कुछ बोलना चाहते थे। मुझसे उन्हें कोई मतलब न था। उन्हें कुछ निकालना था। जब उनकी बेचैनी बढ़ गई तो मैंने उनसे कहाः अब आप जो कुछ कहना हो, शुरू कर दें। वे थोड़े हैरान हुए क्योंकि कोई बातचीत का सिलसिला नहीं था। मैंने कहाः अब जो भी आपको कुछ कहना हो, शुरू कर दें। वे बहुत हैरान हुए। उन्होंने कहाः क्या मतलब आपका? मैंने कहाः आप देखें, छिपाएं न। आपके भीतर कोई चीज उबल रही है और आप मेरे ऊपर फेंकना ही चाहते हैं, फेंकें। आपको बिना उसे फेंके राहत नहीं मिलेगी। मैं सुनूंगा, मजबूरी है आपके साथ हूं। वे कुछ हैरान हुए और मुझसे बोले, आपका मतलब क्या है?
मैंने कहाःचैबीस घंटे हम फेंक रहे हैं एक-दूसरे पर। न तो फेंकने वाले को होश है कि फेंक रहा है, न लेने वाले को होश है कि वह ले रहा है।
इसलिए मस्तिष्क धीरे-धीरे क्षुद्र से क्षुद्र बातों से भरता चला जाता है।
उसमें विराट के जन्म की संभावना क्षीण हो जाती है।
मन जितना खाली और शांत और शून्य होगा उतना ही विराट के अवतरण की संभावना पैदा होती है। नहीं तो विराट अवतरित नहीं होता और न विराट का भीतर से आविर्भाव होता है।
देखें, यह दुनिया जो है, यह हमारी दुनिया जो है, यह जो बीसवीं सदी जो है, अगर कोई चीज इस सदी के ऊपर लादी जा सकती है तो यह व्यर्थ विचारों की सदी है। इतने व्यर्थ विचार दुनिया में कभी नहीं थे।
एक जमाना था, अजीब लोग थे
मैंने सुना है कि लाओत्सु चीन में एक बहुत बड़ा अदभुत, अदभुत विचारक और अदभुत द्रष्टा हुआ है।
वह रोज सुबह अपने एक मित्र के साथ घूमने जाता था। यह वर्षों क्रम चला। कहा जाता है कि जब रास्ते में वे दोनों जाते तो इतनी सी उनकी बातचीत होती थी, उसका मित्र आता और कहता, नमस्कार। कोई आधा घंटे बाद लाओत्सु कहता, नमस्कार। दोनों जब घूमने जाते तो उसका मित्र कहता, नमस्कार।
उसके कोई आधा घंटे बाद लाओत्सु कहता, नमस्कार। यह कुल बातचीत थी।
एक दिन एक मेहमान उसके मित्र के घर आया, वह उसको भी घुमाने ले आया। घूमने के बाद सांझ को जब मित्र मिला, लाओत्सु ने कहाः देखो, उस आदमी को वापस कल मत ले आना, बहुत बातचीत करने वाला मालूम होता है।
उस आदमी ने क्या बातचीत की थी? उसने घंटे, डेढ़ घंटे के घूमने में यह कहा था, आज की सुबह बहुत सुंदर है।
लाओत्सु ने कहाः उस आदमी को साथ मत ले आना। बहुत बकवासी मालूम होता है। और उसने बात इतनी की थी डेढ़, दो घंटे के घूमने में कि आज की सुबह बड़ी सुंदर मालूम होती है। ऐसे लोग थे।
ऐसे लोगों को अगर सत्य का अनुभव हुआ हो तो आश्चर्य नहीं है।
और हम जैसे लोग हैं अगर हमें सत्य का अनुभव न होता हो तो भी कोई आश्चर्य नहीं है।
महावीर बारह वर्षों तक मौन थे। क्राइस्ट बहुत दिनों तक मौन थे। मोहम्मद पहाड़ पर जाकर बहुत दिनों तक चुप थे।
दुनिया से मौन खत्म हो गया है। हम चुप रहना भूल गए हैं।
और जो मनुष्य चुप रहना और मौन रहना भूल जाएगा, उसके जीवन में जो भी श्रेष्ठ है वह नष्ट हो जाएगा। क्योंकि श्रेष्ठ का जन्म ही मौन में होता है।
सौंदर्य का और सत्य का अवतरण मौन में होता है।
इसलिए स्मरण रखें कि व्यर्थ के विचारों के प्रति सचेत हों, न तो दूसरों से लें और कृपा करें, न दूसरों को दें।
सचेत जितने आप होंगे उतने ही क्रमशः आपको बोध होने लगेगा, ये व्यर्थ के विचार आ रहे हैं, इन्हें नमस्कार कर लें।
इन्हें भीतर ले जाने की कोई भी जरूरत नहीं है।
इनसे कहें कि कृपा करें और बाहर ठहरें।
अगर परिपूर्ण होश और बोध हो और चैबीस घंटे यह बोध बना रहे तो आप थोड़े ही दिनों में व्यर्थ विचार के आगमन से मुक्त हो जाएंगे।
और जब व्यर्थ विचार का आश्रव या आगमन बंद हो जाए तो भीतर बड़ी घनीभूत शांति उत्पन्न होगी।
लेकिन कुछ विचार आपने पिछले जीवन में, और-और पिछले जन्मों में इकट्ठे कर लिए हैं, वे इससे बंद नहीं होंगे, वे तो भीतर घूमते ही रहेंगे।
उनके लिए कुछ और करना होगा।
बाहर से नये विचारों का आगमन, व्यर्थ के विचारों का भीतर संग्रह न हो, इसके लिए सचेत होना पड़ेगा।
होश रखना पड़ेगा, सजग होना होगा, पहरेदार बनना होगा और भीतर जो विचार इकट्ठे हो गए हैं उनसे तादात्म्य तोड़ना होगा अपना।
हमारे भीतर जो भी विचार चलते हैं हम उनके साथ एक तरह की आइडेंटिटी, एक तरह का तादात्म्य कर लेते हैं।
अगर भीतर आपके क्रोध आए तो आप कहते हैं मुझे क्रोध आ गया। यह तो भूल की बात है, यह तो झूठी बात है।
आपको कहना चाहिए मुझ पर क्रोध आ गया।
भीतर आपके कोई विचार आएं तो आपको यह नहीं कहना चाहिए कि मैं ऐसा विचार कर रहा हूं, आपको कहना चाहिए, मेरे सामने इस तरह के विचार घूम रहे हैं।
वह मैं को जरा अलग करिए।
वह जो भीतर विचारों की और भावनाओं की दौड़ है उससे अपने मैं को अलग करिए।
वह अलग है।
वह सदा द्रष्टा मात्र है।
भीतर जो विचारों का प्रवाह घनीभूत है, इकट्ठे हैं, वे आपके पूरे अचेतन में भरे हैं, आपका पूरा अनकांशस उनसे भरा हुआ है।
उनके प्रति सचेत हो जाइए और उनके साथ अपनी आइडेंटिटी, अपना संबंध तोड़ लीजिए और समझिए कि आप अलग हैं और वे अलग हैं।
और उनको देखिए, उनके द्रष्टा और साक्षी बनिए।
जब वे आएं तो चुपचाप अलग खड़े हो जाइए और देखिए।
जैसे कोई रास्ते पर जाती हुई भीड़ को देखता हो, या कोई आकाश में उड़ते हुए पक्षियों को देखता हो, या कोई रात में उग गए तारों को देखता हो, या जैसे कोई फिल्म के पर्दे पर चलती हुई तस्वीरों को देखता हो, ऐसा उनको देखिए और अपने को दूर कर लीजिए।
आप केवल देखने वाले रह जाएं और आपके सारे विचार अलग हो जाएं, तो आप हैरान होंगे, जैसे-जैसे विचारों के साथ संबंध क्षीण होगा, जैसे-जैसे विचारों की पृथकता स्पष्ट होगी, वैसे-वैसे विचार भीतर भी मरने शुरू हो जाते हैं।
बाहर के विचारों का आगमन बंद हो; भीतर के विचार क्रमशः मृत हो जाएं, एक घड़ी, एक बिंदु पर आप पाएंगे कि आप परिपूर्ण शून्य में खड़े हैं और जिस क्षण आपको शून्य उपलब्ध होगा उसी क्षण आप पूर्ण को अनुभव कर लेंगे।
उसी क्षण सत्य का आविर्भाव हो जाएगा।
उसी क्षण आप जानेंगे, परमात्मा क्या है?
फिर शास्त्रों की जरूरत न होगी। शास्त्रों में जो लिखा है वह सामने आ जाएगा; शास्त्रों में जो कहा है वह प्रत्यक्ष हो जाएगा।
महावीर और बुद्ध को जो अनुभव हुआ होगा, वह आपको अनुभव हो जाएगा।
प्रत्येक आदमी हक रखता है। प्रत्येक का अधिकार है उसे अनुभव कर ले।
हम अपने हाथ से खोए हुए हैं।
अगर हम थोड़े सजग हों, थोड़े जागरूक हों, थोड़े प्रयत्नशील हों, थोड़ी साधना में लगें तो निश्चित ही हम भी उन्हीं सत्यों को, उन्हीं अनुभूतियों को पा सकते हैं जो किसी भी मनुष्य ने कभी भी पाई हों।
जो एक बीज हो सकता है वह हरेक बीज हो सकता है और जो एक मनुष्य में संभव हुआ वह हर मनुष्य में संभव हो सकता है।
लेकिन विचार बाधा है।
व्यर्थ विचारणा बाधा है।
सीखी हुई शिक्षा और संस्कार बाधा हैं।
उन्हें अलग कर देना होगा और निर्दोष होना होगा और शांत और शून्य और मौन होना होगा।
अगर यह हो सके तो आपके भीतर एक अभिनव सौंदर्य का जन्म होगा। एक अभिनव सत्य का संचरण होगा। कोई आपके भीतर एक नई शक्ति और एक नई ऊर्जा अनुभव में आएगी और वह आपका जीवन बन जाएगी।
वह आपका सब कुछ बन जाएगी।
वह संपत्ति होगी जो मृत्यु के पार जाती है और जिसे कोई भी नहीं मिटा पाता।
और स्मरण रखें, जो मृत्यु के पार जाती है वही जीवन है क्योंकि जीवन अकेला है जिसकी मृत्यु नहीं हो सकती।
आपके पास अभी जीवन नहीं है क्योंकि सत्य नहीं है; आपके पास सत्य नहीं है क्योंकि आप शांत और शून्य नहीं हैं।
आप शांत और शून्य नहीं हैं क्योंकि आप अपने मन को न तो बाहर से रोक रख रहे हैं कि उसमें कुछ भी भर जाए और न भीतर चलते हुए विचारों से अपने तादात्म्य को तोड़ रहे हैं।
अगर ठीक से कोई कारण को समझे; अगर ठीक से पूरे cause and effect चेन को समझे कि क्या है जो हमारे मस्तिष्क को बांधता और ग्रसित करता और जमीन पर रखता है और उठने नहीं देता?
कौन सी जंजीरें हैं जो हमें बांध लेती हैं संसार के तट पर और सत्य तक नहीं जाने देतीं?
तो निश्चित ही उसे कारण दिखाई पड़ जाएंगे।
और जिसे कारण दिखाई पड़ जाएं, अगर वह संकल्प करे, उन कारणों के विरोध में चले, तो निश्चित ही वहां पहुंच सकता है जहां पहुंचना जीवन का लक्ष्य है।
शास्त्र जहां नहीं ले जा सकेंगे वहां स्वयं का सत्य ले जाएगा और जब स्वयं का सत्य उपलब्ध होगा तो सब शास्त्र सत्य हो जाएंगे।
और जब स्वयं के भीतर अनुभूति जगेगी तो सारे तीर्थंकर और सारे पैगंबर और सारे अवतार और सारे ईश्वर-पुत्र उस अनुभूति में प्रामाणिक हो जाएंगे और तब दिखाई पड़ेगा जो उन्होंने कहा है वह सत्य है।
और तब यह नहीं दिखाई पड़ेगा कि क्राइस्ट ने जो कहा है वह सत्य है और महावीर ने जो कहा है वह गलत है।
तब यह नहीं दिखाई पड़ेगा कि मोहम्मद ने जो कहा है वह सत्य है और राम ने जो कहा है वह गलत है।
जब तक ऐसा दिखाई पड़े तब तक समझना कि शास्त्र बोल रहे हैं, सत्य नहीं बोल रहा है।
तब दिखाई पड़ेगा कि महावीर ने जो कहा है, मोहम्मद ने जो कहा है, बुद्ध ने जो कहा है, क्राइस्ट ने, कनफ्यूशियस ने जो कहा है, रामकृष्ण ने जो कहा है, वह सब सत्य है और वह सत्य एक ही है।
जब सत्य उपलब्ध होगा तो सब शास्त्र सत्य हो जाएंगे और जब तक सत्य उपलब्ध नहीं तब तक एक शास्त्र सत्य होगा और शेष शास्त्र असत्य होंगे।
और जब तक आपको ऐसा दिखता रहे कि मैं हिंदू हूं तब तक जानना अभी आप धार्मिक नहीं हुए।
और जब तक आपको लगता रहे कि मैं जैन हूं तब तक समझना अभी धार्मिक नहीं हुए।
क्योंकि धर्म तो एक है।
जब सत्य उपलब्ध होगा तो आप सिर्फ धार्मिक होंगे।
उस पर कोई विशेषण, कोई शास्त्रीय विशेषण नहीं रह जाता है।
ईश्वर करे, ऐसे सत्य में आपको जगाए जो सबका है। ऐसे सत्य में आपको जगाए जो आपके भीतर मौजूद है लेकिन आप उसकी तरफ आंख फेरे हुए हैं। ईश्वर ऐसी प्यास दे, ऐसा असंतोष दे, यह कामना करता हूँ।
आठ पहर यूँ झूमते-ओशो
प्रवचन पाँचवाँ, बूँद में सागर, 15 नवम्बर 1965, बॉम्बे
मेरे जीवन के अनुभव :-
मैं कहता हूँ कि दैनिक जीवन में होंश के प्रयोग के साथ साथ सहज जीवन भी यदि जिया जाए तो साधना की सरलता से सफलता भी बढ़ जाती है।
Spotify पर हिन्दी में कुछ पॉडकास्ट दर्शन (Philosia) नाम के चैनल पर किए हैं।
द्रष्टा (यानी भीतर की आँख से) होने का चमत्कार यह है कि जब तुम (आँख बंद करके अपने ) शरीर को देखते हो, तो तुम्हारा द्रष्टा अधिक मजबूत होता है। जब तुम अपने विचारों को देखते हो, तो तुम्हारा द्रष्टा और भी मजबूत होता है। और जब अनुभूतियों को देखते हो, तो तुम्हारा द्रष्टा फिर और मजबूत होता है। जब तुमअपनी भाव-दशाओं को देखते हो, तो द्रष्टा इतना मजबूत हो जाता है कि स्वयं बना रह सकता है — स्वयं को देखता हुआ, जैसे किअंधेरी रात में जलता हुआ एक दीया न केवल अपने आस-पास प्रकाश करता है, बल्कि स्वयं को भी प्रकाशित करता है!
लेकिन लोग बस दूसरों को देख रहे हैं, वे कभी स्वयं को देखने की चिंता नहीं लेते। हर कोई देख रहा है — यह सबसे उथले तल परदेखना है — कि दूसरा व्यक्ति क्या कर रहा है, दूसरा व्यक्ति क्या पहन रहा है, वह कैसा लगता है। हर व्यक्ति देख रहा है — देखने की प्रक्रिया कोई ऐसी नई बात नहीं है, जिसे तुम्हारे जीवन में प्रवेश देना है। उसे बस गहराना है — दूसरों से हटाकर स्वयं की आंतरिकअनुभूतियों, विचारों और भाव-दशाओं की ओर करना है — और अंततः स्वयं द्रष्टा की ओर ही इंगित कर देना है।
लोगों की हास्यास्पद बातों पर तुम आसानी से हंस सकते हो, लेकिन कभी तुम स्वयं पर भी हंसे हो? कभी तुमने स्वयं को कुछ हास्यास्पदकरते हुए पकड़ा है? नहीं, स्वयं को तुम बिलकुल अनदेखा रखते हो — तुम्हारा सारा देखना दूसरों के विषय में ही है, और उसका कोईलाभ नहीं है।
अवलोकन की, अवेयरनेस की इस ऊर्जा का उपयोग अपने अंतस के रूपांतरण के लिए कर लो। यह इतना आनंद दे सकती है, इतने आशीष बरसा सकती है कि तुम स्वप्न में भी नहीं सोच सकते। सरल सी प्रक्रिया है, लेकिन एक बार तुम इसका उपयोग स्वयं पर करने लगो, तो यह एक ध्यान बन जाता है।
किसी भी चीज को ध्यान बनाया जा सकता है!
अवलोकन तो तुम सभी जानते हो, इसलिए उसे सीखने का कोई प्रश्न नहीं है, केवल देखने के विषय को बदलने का प्रश्न है। उसे करीबपर ले आओ। अपने शरीर को देखो, और तुम चकित होओगे।
अपना हाथ मैं बिना द्रष्टा हुए भी हिला सकता हूं, और द्रष्टा होकर भी हिला सकता हूं। तुम्हें भेद नहीं दिखाई पड़ेगा, लेकिन मैं भेद कोदेख सकता हूं। जब मैं हाथ को द्रष्टा-भाव के साथ हिलाता हूं, तो उसमें एक प्रसाद और सौंदर्य होता है, एक शांति और एक मौन होताहै।
तुम हर कदम को देखते हुए चल सकते हो, उसमें तुम्हें वे सब लाभ तो मिलेंगे ही जो चलना तुम्हें एक व्यायाम के रूप में दे सकता है, साथही इससे तुम्हें एक बड़े सरल ध्यान का लाभ भी मिलेगा।
–ओशो
ध्यानयोग: प्रथम और अंतिम मुक्ति
मेरे अनुभव जो शायद आपके कुछ काम आ सकें:-
समय के साथ, 20 वर्षों के भीतर, मैं अन्य कृत्यों के दौरान होंश या जागरूकता को लागू करने में सक्षम हो गया, जबकि मुझे बाद में एहसास हुआ कि कई कृत्यों में यह पहले ही स्वतः होने लगा था।
संपूर्णता के साथ जीना, जीवन को एक प्रामाणिक रूप में जीना यानी भीतर बाहर एक और ईमानदारी से जीना, लोगोंकी बिना भेदभाव के निःस्वार्थ भाव से सेवा करना और सभी बंधनों (धार्मिक, शैक्षिक, जाति, रंग आदि) से मुक्त होनातीन महत्वपूर्ण उत्प्रेरक हैं जो किसी को गहराई तक गोता लगाने में मदद करते हैं।
होंश का प्रयोग मेरे लिए काम करने का तरीका है, (instagram पर होंश) हो सकता है कि आपको भी यह उपयुक्तलगे अन्यथा अधिकांश लोगों के लिए गतिशील ध्यान है। लगभग 500 साल पहले भारतीय रहस्यवादी गोरखनाथद्वारा खोजी गई और ओशो द्वारा आगे संशोधित की गई 110 अन्य ध्यान तकनीकें हैं जिनका प्रयोग किया जा सकताहै और नियमित जीवन में उपयुक्त अभ्यास किया जा सकता है।
नमस्कार ….. मैं अपनी आंतरिक यात्रा के व्यक्तिगत अनुभवों से अपनी टिप्पणियाँ लिखता हूँ। इस पोस्ट में दुनिया भरके रहस्यवादियों की शिक्षाएँ शामिल हो सकती हैं जिन्हें मैं आज भी मानने लायक समझता हूँ। मेरे बारे में अधिकजानकारी के लिए और मेरे साथ सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर जुड़ने के लिए, मेरे सोशल मीडिया लिंक से जुड़ने केलिए वेबसाइट https://linktr.ee/Joshuto पर एक नज़र डालें, या मेरे यूट्यूब चैनल की सदस्यता लें और/यापॉडकास्ट आदि सुनें।
कॉपीराइट © ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन, अधिकतर प्रवचन की एक एमपी 3 ऑडियो फ़ाइल को osho डॉट कॉम से डाउनलोड किया जा सकता है या आप उपलब्ध पुस्तक को OSHO लाइब्रेरी में ऑनलाइन पढ़ सकते हैं।यू ट्यूब चैनल ‘ओशो इंटरनेशनल’ पर ऑडियो और वीडियो सभी भाषाओं में उपलब्ध है। OSHO की कई पुस्तकें Amazon पर भी उपलब्ध हैं।
मेरे सुझाव:-
ओशो के डायनामिक मेडिटेशन को ओशो इंटरनेशनल ऑनलाइन (ओआईओ) ऑनलाइन आपके घर से ओशो ने नई जनरेशन के लिए जो डायनामिक मेडिटेशन दिये हैं उन्हें सीखने की सुविधा प्रदान करता है। ओशो ध्यान दिवस अंग्रेज़ी में @यूरो 20.00 प्रति व्यक्ति के हिसाब से। OIO तीन टाइमज़ोन NY, बर्लिन औरमुंबई के माध्यम से घूमता है। आप अपने लिए सुविधाजनक समय के अनुसार प्रीबुक कर सकते हैं।