ब्रेकेट में मैंने अपने अनुभव के आधार पर उस हिस्से पर और प्रकाश डालने का प्रयत्न किया है ताकि आप ओशो के उँगली के इशारे की तरफ़ नज़र डालें ना कि उँगली की पूजा करने लगें।
“लोग बहाने खोजते हैं–न मालूम कितने-कितने!
पति कहता है कि पत्नी रोकती है। कौन किसको रोक सका है: कौन किसको रोक सका है, कब रोक सका है! मौत जब आएगी तो पत्नी रोकेगी? और किसी चीज में पत्नी नहीं रोक पाती।
पत्नी जिंदगीभर से रोक रही है कि दूसरी औरतों को मत देखो, नहीं रोक पायी।
तुम कहते हो, क्या करें, मजबूरी है!
मगर जब कहती है, ध्यान मत करो–तत्क्षण राजी हो जाते हो, बिलकुल ठीक है। पत्नी रोकती है, क्या करें!
तुम जिसमें रुकना चाहते हो, किसी का भी बहाना खोज लेते हो। जिसमें तुम रुकना नहीं चाहते, तुम कोई बहाना मानने को राजी नहीं होते। तुम कहते हो, विवशता है। वासना पकड़ लेती है, क्या करें?
चिकित्सक रोक रहा है कि ज्यादा खाना मत खाओ। पत्नी रोक रही है, बच्चे समझा रहे हैं, पड़ोसी मित्र समझाते हैं। एक मेरे मित्र हैं, खाए चले जाते हैं। बहुत भारी हो गई देह, सम्हाले नहीं सम्हलती।
चिकित्सक समझा-समझा कर परेशान हो गया है। अभी आखिरी बार चिकित्सक के पास गए थे तो कहने लगे कि बड़ी अजीब-सी बात है! रात सोता हूं तो आंख खुली की खुली रह जाती है। चिकित्सक ने कहा कि रहेगी, चमड़ी इतनी तन गई है कि जब मुंह बंद करते हो तो आंख खुल जाती है; जब मुंह खोले रहते हो तो थोड़ी चमड़ी शिथिल रहती है, तो आंख बंद रहती है। होगा! सारी दुनिया रोक रही है। खुद भी कहते हैं, रोकना चाहते हैं, मगर क्या करें, विवशता है!
ऐसी विवशता कभी ध्यान के लिए पकड़ती है?
ऐसी विवशता कभी संन्यास के लिए पकड़ती है?
ऐसी विवशता कभी आत्मखोज के लिए पकड़ती है?
नहीं, तब तुम बहाने खोज लेते हो। तुम कोई न कोई रास्ता खोज लेते हो–बच्चे छोटे हैं, विवाह करना है; जैसे कि बच्चे तुम्हें उठा-उठा कर बड़े करने हैं।
वे अपने से बड़े हो जाएंगे। तुम न भी हुए तो भी बड़े हो जाएंगे। तुम न भी हुए तो भी विवाह कर लेंगे। तुम जरा उनको विवाह से रोककर तो देखना! तब तुम्हें पता चल जाएगा कि तुम्हारे रोके नहीं रुकते, करने का तो सवाल ही दूर है। तुम्हें कौन रोक सका? तुम बच्चों को कैसे रोक सकोगे?
कोई किसी को रोकता नहीं, लेकिन आदमी बेईमान है। आदमी रास्ते खोज लेता है।
जो तुम नहीं करना चाहते उसके लिए तुम दूसरों पर बहाना डाल देते हो। जो तुम करना चाहते हो, तुम करते ही हो। इसे ईमानदारी से समझना उचित है।
लोग ध्यान की बात करते हैं।
लोग आत्मा की बात करते हैं, परमात्मा की बात करते हैं।
वे कहते हैं, किसी दिन यात्रा करनी है, तैयारी कर लें! यात्रा कभी होती दिखाई नहीं पड़ती।
वे टाइम-टेबल ही पढ़ते रहते हैं। कुछ लोग हैं जो टाइम-टेबल पढ़ते हैं।
(देखते रहते हैं कि राम अयोध्या में जन्में और लंका गए, कृष्ण वृंदावन से द्वारका गए, ओशो टीमरनी, गाड़रवारा, और जबलपुर से पूना गए,जीसस , बुद्ध, कबीर, नानक यह सब आध्यात्मिक यात्राओं की ट्रेनें हैं। और लोग इनकी यात्राओं को ही पढ़ते रहते हैं कभी खुद यात्रा पर नहीं निकलते। जीवित गुरु तुम्हारे एंजिन को स्टार्ट कर सकता है,एक स्टार्टर से ज़्यादा उसका काम नहीं है। यात्रा पर तो आपको ही निकलना होगा)
जाओ भी! कभी यात्रा पर भी निकलो! डर स्वाभाविक है। डर के रहते भी जाना होगा। डर के रहते ही जाना होगा। अगर तुमने सोचा कि जब डर मिट जाएगा तब जाएंगे, तो तुम कभी जाओगे न।
कुछ न देखा फिर वजुज एक शोला-ए-पुर पेचोताब
शमा तक तो हमने भी देखा कि परवाना गया
बस परवाना शमा तक जाता हुआ दिखाई पड़ता है, फिर थोड़े ही दिखाई पड़ता है।फिर तो एक झपट और एक लपट–और गया!
कुछ न देखा फिर वजुज एक शोला-ए-पुर पेचोताब
शमा तक तो हमने भी देखा कि परवाना गया।
बस परवाने को लोग शमा तक ही देख पाते हैं। जब शमा छू गई, एक लपट–और समाप्त! लोगों ने ध्यान के पास जाते लोगों को देखा है। बस, फिर खो जाते देखा है। इसलिए घबड़ाहट है।
लोगों ने देखा वर्द्धमान को जाते हुए ध्यान की तरफ; फिर एक लपट–वर्द्धमान खो गया! जो आदमी लौटा, वह कोई और ही था। महावीर कुछ और ही हैं, वर्द्धमान से क्या लेना-देना! वर्द्धमान तो राख हो गया, जल गया ध्यान में!
सिद्धार्थ को जाते देखा; जो लौटा—बुद्ध। वह कोई और ही। इसलिए घबड़ाहट होती है कि तुम कहीं मिट गए! मिटोगे निश्चित! लेकिन यह भी तो देखो कि मिटकर जो लौटता है, वह कैसा शुभ है, कैसा सुंदर है! परवाने को जाते देखा है तुमने, लपट के सौंदर्य को भी तो देखो! परवाना, जब खो जाता है प्रकाश में, उस प्रकाश को भी तो देखो! तो घबड़ाहट कम होगी।
इसलिए सदगुरु का अर्थ है: किसी ऐसे व्यक्ति के पास होना, जो खो गया; ताकि तुम्हें भी थोड़ी हिम्मत बढ़े, खो जाने में थोड़ा रस आए। तुम कहो कि चलो, देखें, चलो एक कदम हम भी उठाएं।
मिटना तो होता है, लेकिन मिटने के पार कोई जागरण भी है। सूली तो लगती है, लेकिन सूली के पीछे कोई पुनरुज्जीवन भी है।
शास्त्र ही पढ़ोगे तो अड़चन होगी। शास्त्र में कहानी ही वहां तक है, जहां तक परवाना शमा तक जाता है।उसके आगे की कहानी शास्त्र में हो नहीं सकती।(क्योंकि परवाने में भी शमा की एक बूँद, एक किरण मौजूद है जिसे शमा में रहकर ही जिया जा सकता है और तभी जाना भी सकता है शमा को। और उसको जान लेना, आत्मा को जीकर जान लेना ही आत्मज्ञान होना है, आत्माराम बन जाना है। पंडित बाहर ही रह जाता है शमा के, इसलिए वह महावीर, बुद्ध और ओशो पर भी वही शास्त्र बनाएगा जो उसकी बुद्धि से निकलेगा, अनुभव तो है नहीं शमा में जीते जी मिटकर भी जो जीवन है उसे जीने क।और पंडित जानता है कि अधिकतर लोग कायर हैं उनको भी शमा होकर जीने के अद्भुत अनुभव से संसार के क्षुद्र अनुभव ज़्यादा पसंद है तो शास्त्र बनाता ही इस प्रकार है कि बस ओशो का नाम रटे, ओशो के गीत गाए, ओशो की पूजा करे, ओशो का गुणगान करे और कभी ध्यान भी करे तो बाहर बाहर ही रहे भीतर जब हम ही नहीं जा पाए हैं तो तुम कैसे जा सकते हो? और फिर पहले हमारा नम्बर आएगा क्योंकि हम उनके साथ रहे हैं, तुम्हारा नम्बर काफ़ी पीछे लगेगा।)
कोई महावीर खोजो!
कोई बुद्ध खोजो!
किसी ऐसे आदमी को खोजो, जो वहां तक गया हो; परवाना मिट भी गया हो और फिर भी उस मिटे से उठती हो धूप, उठती हो गंध, उठती हो सुवास; कोई जो ‘न’ हो गया हो और फिर भी जिसमें होने की परम वर्षा हो रही हो!
कोई ऐसा व्यक्ति खोजो! सदगुरु न मिले तो शास्त्र।
जब तक सदगुरु मिले, तब तक सदगुरु।
शास्त्र तो मजबूरी है। वह तो दुर्भाग्य है। वह तो अंधेरे में टटोलना है। शास्त्र पढ़–पढ़ कर घबड़ाहट होगी। और घबड़ाहट को आश्वासन शास्त्र से न मिलेगा; लाख शास्त्र कहे, मगर किताब का क्या भरोसा!
जीवंत कोई चाहिए! इसलिए जगत में जब भी धर्म की लपट आती है, वह किसी जीवंत व्यक्ति के कारण आती है। महावीर जब हुए, लाखों लोग संन्यस्त हुए! एक आग लग गई सारे जंगल में! वृक्ष-वृक्षों पर आग के फूल खिले! जिनने कभी सपने में भी न सोचा होगा, वे भी संन्यस्त हुए!
तुमने कभी जंगल देखा है, पलाश-वन देखा है? जब पलाश के फूल खिलते हैं तो पूरा जंगल गैरिक हो उठता है, लपटों से भर जाता है! ऐसा जब महावीर चले इस जमीन पर थोड़े दिन, वे दिन परम सौभाग्य के थे। वैसे चरण इस पृथ्वी पर बहुत कम पड़ते हैं। तो जिनको भी उनकी गंध लग गई, जिनको भी थोड़ी-सी उनकी हवा लग गई, उन्हीं को पर लग गए! वही परवाने हो गए! फिर उन्होंने फिक्र न की। इस आदमी को देखकर भरोसा आ गया। उन्होंने कहा कि ठीक है, तो हम भी छलांग लेते हैं! एक श्रद्धा जन्मी।
श्रद्धा शास्त्र से कभी पैदा नहीं होती; शास्त्र से ज्यादा से ज्यादा विश्वास पैदा होता है।
श्रद्धा के लिए कोई जीवंत चाहिए, कोई प्रमाण चाहिए, कोई प्रत्यक्ष चाहिए–जिसमें वेद खड़े हों! कोई शास्ता चाहिए, जिसमें शास्त्र जीवंत हों!
फिर जब महावीर खो जाते हैं तो लोग शास्त्रों में उनकी वाणी इकट्ठी कर लेते हैं, फिर पूजा चलती है, पाठ चलता है, पंडित इकट्ठे होते हैं, सब मुर्दा हो जाता है, फिर सब मरघट है।
महावीर जीवित थे तब जिन-धर्म जीवित था; फिर तो सब मरघट है।
और ध्यान रखना, हताश मत होना; ऐसा कभी भी नहीं होता कि पृथ्वी पर कोई चरण न हों जिनकी वजह से पृथ्वी धन्यभागी न हो। ऐसा कभी नहीं होता।
इसलिए यह मत सोचना कि क्या करें, अभागे हैं हम, महावीर के समय में न हुए! महावीर के समय में भी तुम्हारे जैसे बहुत अभागे थे, जो महावीर को न देख पाए। महावीर उनके गांव से गुजरे और उन्होंने न देखा। उन्होंने महावीर में कुछ और देखा।
किसी ने देखा: ‘यह आदमी नंगा खड़ा है, अनैतिक है। अश्लीलता है यह तो। परम साधु हो चुके हैं; मगर नग्न खड़ा होना, यह तो समाज के विपरीत व्यवहार है।’ खदेड़ा महावीर को गांव के बाहर, पत्थर मारे।
जिसके चरणों में मिट जाना था, उसका विरोध किया। और यह मत सोचना कि वे नासमझ लोग थे–वे तुम्हीं हो। वे तुम जैसे ही लोग थे। इसमें कुछ फिर फर्क नहीं है, जरा भी फर्क नहीं है। और जब उन्होंने ऐसे तर्क खोजे थे तो उनका भी कारण था, कि यह आदमी वेद–विरोधी है—और वेद तो परम ज्ञान है! (आज कोई एसा भारी समाज विरोध नज़र आता हो तो ज़रा गौर से देखना)
अब शास्ता सदा ही शास्त्र-विरोधी होगा। उसका कारण है, विरोधी होने का; क्योंकि जब जीवंत घटना घट रही हो धर्म की तो तुम बासी बातें मत उठाओ। बासी बातों से क्या लेना-देना?
जब ताजा भोजन तैयार हो तो ताजा भोजन बासी भोजन के विपरीत होगा ही, क्योंकि तुम बासे को फेंक दोगे। तुम कहोगे, जब ताजा मिल रहा है तो बासे को कौन खाए! बासे को तो तभी तक खाते हो जब ताजा नहीं मिलता; मजबूरी में खाते हो।
जब शास्ता पैदा होता है तो शास्त्रों को लोग हटा देते हैं। वे कहते हैं, ‘रखो भी, फिर पीछे देख लेंगे! यह घड़ी पता नहीं कब विदा हो जाए! अभी तो जो सामने मौजूद हुआ है, अभी तो जो प्रकट हुआ है, अवतरित हुआ है, अभी तो जो लपट जीवंत खड़ी है–इसके साथ थोड़ा रास रचा लें, थोड़ा खेल खेल लें; इसके साथ तो थोड़े पास हो लें। यह तो थोड़ा सत्संग का अवसर मिला है, शास्त्र तो फिर देख लेंगे। कोई जल्दी नहीं है, जन्म पड़े हैं, जीवन पड़े हैं।’
तो जब भी कोई शास्ता पैदा होता है, पुराने शास्त्रों को मानने वाले लोग उसके विपरीत हो जाते हैं, क्योंकि उस आदमी के कारण शास्त्रों को लोग हटाने लगते हैं।
शास्त्रों को हटाते हैं तो पंडितों को हटाते हैं, तो सारा व्यवसाय हटाते हैं। कठिन हो जाता है। पंडित दुश्मन हो जाते हैं।
फिर जब यह शास्ता मर जाता है, वही पंडित जो इसके दुश्मन थे, मरघट पर इकट्ठे हो जाते हैं—श्रद्धांजलि चढ़ाने को। फिर वे ही शास्त्र बना लेते हैं।
उनकी दुश्मनी जीवंत से थी, शास्त्र से थोड़े ही थी। फिर वे ही शास्त्र बना लेते हैं।
यह बड़े मजे की बात है। महावीर तो क्षत्रिय, लेकिन महावीर के जितने गणधर, सब ब्राह्मण! तो बड़ी हैरानी की बात है। क्या, मामला क्या है?
महावीर के मरते ही ब्राह्मण झपटे, उन्होंने कहा, यह तो अच्छा अवसर मिला, फिर शास्त्र बना लो। उन्होंने तत्क्षण शास्त्र खड़े कर दिए। जैन धर्म निर्मित हो गया।
अब अगर कोई पुनः जीवंत धर्म को लाए, तो फिर शास्त्री, पंडित, शास्त्र का पूजक, फिर कठिनाई में पड़ जाता है, फिर मुश्किल में पड़ जाता है। वह कहता है, यह फिर गड़बड़ हुई। फिर उसके व्यवसाय में व्याघात हुआ।
ध्यान रखना, भीतर अगर तुम जाना चाहते हो तो कोई न कोई द्वार कहीं न कहीं पृथ्वी पर सदा खुला है।
तुम जरा आंखें खुली रखना, शास्त्रों से भरी मत रखना;
तुम जरा मन ताजा रखना, शब्दों से बोझिल मत रखना;
सिद्धांतों से दबे मत रहना, जरा सिद्धांतों के पत्तों को हटाकर तुम जीवंत धारा को देखने की क्षमता बनाए रखना।
तो कहीं न कहीं तुम्हें कोई सदगुरु (कोई मित्र, कोई जान पहचान वाला ) मिल जाएगा। उसके पास ही तुम्हारा भय मिटेगा भीतर जाने का।
अभी तो तुम शास्त्र पढ़ते रहो, मंदिर में घंटियां बजाते रहो, पूजा करते रहो, अर्चना के थाल सजाते रहो–सब धोखा है।”
— जिन-सूत्र, भाग: एक – Jin Sutra, Vol. 1 by Osho .