त्याग और भोग के दो पंखों में संतुलन ही संन्यास है।

Photo of a famous Daruma doll of Japan.
संन्यास का मतलब समझाते हुए ओशो कहते हैं कि अब इसकी परिभाषा बदलने का समय आ गया है कि। बोधिधर्मा की डॉल हमारी टेबल पर नहीं हो, बल्कि ख़ुद बोधिधर्मा ही कुर्सी सँभालेगा तभी विश्व का सही मायने में विकास हो पाएगा।

“संन्यास व्यक्तिगत क्रांति है।

भक्ति मार्ग का संन्यासी भोग से विमुख नहीं होता, परमात्मा का ही भोग शुरू करता है।

जिन मित्र ने पूछा है, उन्हें हिंदू, शंकराचार्य, जैन, महावीर, गौतम सिद्धार्थ, बुद्ध–इनकी परंपरा के संन्यासियों का बोध है। और ऐसा हुआ है कि इनकी परंपरा इतनी प्रभावी हो गयी कि धीरे-धीरे ऐसा लगने लगा कि दूसरी कोई परंपरा नहीं है।

रामानुज का भी संन्यासी है।

निम्बार्क का भी संन्यासी है।

चैतन्य महाप्रभु का भी संन्यासी है।

मगर वे ओझल हो गये। बुद्ध, महावीर, और शंकराचार्य इतने प्रभावी हो गये–और प्रभावी हो जाने का कारण है, क्योंकि तुम सब भोगी हो।

इसे तुम्हें जरा अड़चन होगी समझने में। चूंकि तुम सब भोगी हो, त्यागी की भाषा तुम्हें समझ में आती है। क्योंकि त्यागी की भाषा तुमसे विपरीत है। जो तुम्हारे पास नहीं है, उसमें आकर्षण पैदा होता है।

गरीब अमीर होना चाहता है। तुम भोगी हो, तुम त्यागी होना चाहते हो। तुम कहते हो, भोग में तो दुख ही दुख पाया; इसलिए महावीर, शंकर और बुद्ध ठीक ही कहते होंगे कि त्याग में सुख है, क्योंकि एक तो हमें अनुभव हो गया कि भोग में दुख है।

रामानुज, निम्बार्क, वल्लभ, चैतन्य–इनकी भाषा तुमने नहीं समझी; क्योंकि वे कहते हैं कि तुम्हारे भोग में दुख नहीं है, तुम्हारा भोग गलत चीजों का हो रहा है, इसलिए दुख है।

भोग भगवान का करो! तुमने अभी स्त्री को भोगा है; लेकिन कभी स्त्री में भगवान को देखकर भोगो, फिर दुख समाप्त हुआ!

तुमने अभी भोजन को भोगा है, दुख है; लेकिन भोजन में भगवान को देखकर भोगो, दुख समाप्त हुआ।

उनकी बात में भी सार है।

अब इधर मैं हूं। मैं कहता हूं कि दोनों का संगीत पैदा हो जाये तो संन्यास है।

मैं कहता हूं, तुम्हारा त्याग ऐसा हो कि भोगी के भोग से ज्यादा गहरा और तुम्हारा भोग ऐसा हो कि त्यागी के त्याग से ज्यादा गहरा।

तो मैं तुमसे यह कह रहा हूं कि एक परम समन्वय हो। तुम भोगो–त्यागते हुए, तुम त्यागो–भोगते हुए।

उपनिषद कहते हैं, तेन त्यक्तेन भुंजीथाः। उन्होंने ही भोगा, जिन्होंने त्यागा। या उसका ऐसा भी अर्थ कर सकते हैं कि उन्होंने ही त्यागा जिन्होंने भोगा।

वह वचन बड़ा अपूर्व है।

ऐसा भोगो, ऐसा गहरा भोगो कि भोग में ही त्याग घटित हो जाये।

अब इसे थोड़ा समझो। जब तुम अधूरा-अधूरा भोगते हो तो भोग सरकता है। जो भी जीवन में अधूरा अनुभव है, वह पीछा करता है। जब भी अनुभव पूरा हो जाता है, छुटकारा हो जाता है।

अगर तुमने स्त्री को ठीक से न भोगा, तो तुम्हारे मन में स्त्री की कामना छाया डालती रहेगी। अगर तुमने ठीक से भोग लिया, एक स्त्री को भी एक संभोग में भी ठीक से अनुभव कर लिया और जान लिया, क्या है, तुम मुक्त हो गये! उसी क्षण तुम भोग के बाहर हो गये।

गहरा भोग त्याग ले आता है।

और गहरे त्यागी के भोग की चर्चा करनी मुश्किल है, क्योंकि वही भोगना जानता है।

तुम जरा सोचो! जब कृष्ण भोजन करते होंगे या महावीर भी जब भोजन करते होंगे, तो तुमने ऐसा भोजन कभी भी नहीं किया जैसा महावीर करते होंगे।

चाहे उन्हें रूखी-सूखी रोटी ही मिली हो, उस रूखी-सूखी में से भी ब्रह्म को निचोड़ लेते होंगे।

उस रूखी-सूखी रोटी में से सिर्फ खून और मांस-मज्जा ही नहीं आती थी उनको, ब्रह्म भी आता था।

इसलिए तो उपनिषद कहते हैं: अन्नं ब्रह्म! अन्न ब्रह्म है।

जिन्होंने लिखा है, उन्होंने खूब भोगकर लिखा होगा, खूब अन्न को परखकर लिखा होगा।

एक संन्यासी बीमार था। थोड़ा-थोड़ा भोजन लेता था। चिकित्सकों ने उससे कहा कि इतने थोड़े भोजन से काम न चलेगा, थोड़ा और भोजन लो।

तो उस संन्यासी ने कहा, इतना काफी है, क्योंकि इसमें से मैं वही नहीं ले रहा हूं जो दिखाई पड़ता है, वह भी ले रहा हूं जो दिखाई नहीं पड़ता।

और जब मैं श्वास लेता हूं, तब भी मैं भोजन कर रहा हूं–क्योंकि प्राण.।

और जब मैं आकाश को देखता हूं, तब भी भोजन कर रहा हूं–क्योंकि आकाश.।

जब सूरज की किरणें मुझ पर पड़ती हैं, तब भी भोजन कर रहा हूं–क्योंकि किरणें प्रवेश करती हैं।

भोजन तो चौबीस घंटे चल रहा है। ब्रह्म चौबीस घंटे हजार-हजार मार्गों से तुम में उतर रहा है और नाच रहा है। जिसने ठीक से भोगा, वह हर भोग में ब्रह्म को खोज लेगा।

और जिसने ठीक से त्यागा, उसकी आंख इतनी शुद्ध और निर्मल हो जाती है कि उसे सिवाय ब्रह्म के फिर कुछ दिखाई पड़ता नहीं।

अब तक ब्राह्मण और श्रमण संस्कृतियां विपरीत खड़ी रही हैं।

श्रमण-संस्कृति त्याग की संस्कृति है।

ब्राह्मण-संस्कृति भोग की संस्कृति है। ब्राह्मण-संस्कृति परमात्मा के ऐश्वर्य की संस्कृति है, परमात्मा के विस्तार की। श्रमण-संस्कृति त्याग की संस्कृति है, वीतराग की, परमात्मा के संकोच की, वापसी यात्रा है।

इसीलिए रामानुज, वल्लभ और निम्बार्क; शंकर को हिंदू नहीं मानते। वे कहते हैं, प्रच्छन्न बौद्ध, छिपा हुआ बौद्ध है यह आदमी।

निम्बार्क, शंकर के बीच; वल्लभ, शंकर के बीच; रामानुज, शंकर के बीच बड़ा विवाद है।

और मैं भी मानता हूं, शंकर हिंदू नहीं हैं–हो नहीं सकते।

शंकर ने बड़े छिपे रास्ते से श्रमण-संस्कृति को ब्राह्मण-संस्कृति की छाती पर हावी कर दिया। इसलिए शंकर के संन्यासी को तुम जानते हो, वही संन्यासी हो गया खास। वह संन्यासी बिलकुल हिंदू है ही नहीं।

तुमने उपनिषद के ऋषि-मुनियों को देखा है, सुनी है उनकी बात, उनकी खबर, उनकी कहानी सुनी? उपनिषद के ऋषि-मुनि गृहस्थ थे। पत्नी थी उनकी, बच्चे थे उनके, घर-द्वार था उनका, बाग-उपवन थे उनके, गऊएं थीं उनकी, धन-धान्य था; त्यागी नहीं थे। बुद्ध और जैन अर्थों में त्यागी नहीं थे। भोगकर ही भगवान को उन्होंने जाना था।

शंकर ने श्रमण-संस्कृति की बात का प्रभाव देखकर.क्योंकि जब श्रमण साधु खड़े हुए तो स्वभावतः हिंदू ब्राह्मण, ऋषि-मुनि फीके पड़ने लगे। क्योंकि ये तेजस्वी मालूम पड़े। सब छोड़ दिया! ये चमत्कारी मालूम पड़े, क्योंकि बड़े उलटे मालूम पड़े।

स्वभावतः रास्ते पर सब लोग चलते हैं, कोई जरा शीर्षासन लगाकर खड़ा हो जाये, तो भीड़ इकट्ठी हो जायेगी। वही आदमी पैर के बल खड़ा रहे, कोई न आयेगा; सिर के बल खड़ा हो जाये, सब आ जायेंगे। वे कहेंगे, क्या मामला हो गया! कोई फूल चढ़ाने लगेगा, कोई हाथ जोड़ने लगेगा कि कोई चमत्कार कर रहा है, यह आदमी बड़ा त्यागी है! उलटा आकर्षित करता है।

तो जैन और बौद्ध संन्यासियों ने बड़ा आकर्षण पैदा किया। शंकर ने बड़े छिपे द्वार से उनकी ही बात को हिंदू-छाती पर सवार करवा दिया। अगर कोई गौर से देखे तो हिंदू संस्कृति को बचाने वाले शंकर नहीं हैं, नष्ट करने वाले हैं। हालांकि लोग सोचते हैं, शंकर ने बचा लिया–बचाया नहीं! यह बचाना क्या बचाना हुआ? यह तो नाम का ही फर्क हुआ।

हिंदू संस्कृति भोग का परम स्वीकार है। और भोग में ही परमात्मा का आविष्कार है।

श्रमण-संस्कृति त्याग का, संन्यास का, छोड़ने का, विरक्ति का, वैराग्य का मार्ग है। और उसी से परमात्मा को पाना है।

मेरे देखे, त्याग और भोग दो पंखों की तरह हैं। श्रमण-संस्कृति भी अधूरी है, ब्राह्मण-संस्कृति भी अधूरी है।

मैं उसी आदमी को पूरा कहता हूं, उसी को मैं परमहंस कहता हूं, जिसके दोनों पंख सुदृढ़ हैं; जो न भोग की तरफ झुका है न त्याग की तरफ झुका है; जिसका कोई चुनाव ही नहीं है; जो सहज शांत जो भी घट रहा है, उसे स्वीकार किया है;

घर में है तो घर में स्वीकार है, मंदिर में है तो मंदिर में; पत्नी है तो ठीक, पत्नी मर गई तो ठीक;

पत्नी होनी ही चाहिए, ऐसा भी नहीं है; पत्नी नहीं ही होनी चाहिए, ऐसा भी नहीं है–जिसका कोई आग्रह नहीं है, निराग्रही!

संन्यास का मैं अर्थ करता हूं: सम्यक न्यास। जिसने अपने जीवन को संतुलित कर लिया है; जिसने अपने जीवन को ऐसी बुनियाद दी है जो अपंग नहीं है, जो अधूरी नहीं है, जो परिपूर्ण है। भोग और त्याग दोनों जिसमें समाविष्ट हैं, वही मेरे लिए संन्यासी है।

और मजा ही क्या, छोड़कर भाग गये तब छूटा तो मजा क्या!

यहां रहे और छोड़ा, बाजार में खड़े रहे और भीतर हिमालय प्रकट हुआ.!

यह हमीं हैं कि तेरा दर्द छुपाकर दिल में

काम दुनिया के बदस्तूर किए जाते हैं।

छोड़ देना आसान है, पकड़ रखना भी आसान है; पकड़े हुए छोड़ देना अति कठिन है। बड़ी कुशलता चाहिए।

कृष्ण ने जिसको कहा है: योगः कर्मसु कौशलम्‌। बड़ी कुशलता चाहिए! योग की कुशलता चाहिए!

जैसे कि कोई नट सधी हुई रस्सी पर चलता है, दो खाइयों के बीच खिंची हुई रस्सी पर चलता है। तो देखा, कैसा सम्हालता है, संतुलित करता है; कभी बायें झुकता कभी दायें झुकता; जब दिखता है, बायें झुकना ज्यादा हो गया, अब गिरूंगा, तो दायें झुकता है, ताकि बायें की तरफ जो असंतुलन हो गया था, वह संतुलित हो जाये। फिर देखता है, अब दायें तरफ ज्यादा झुकने लगा, तो बायें तरफ झुकता है। बायें को दायें से सम्हालता है, दायें को बायें से सम्हालता है। ऐसे बीच में तनी रस्सी पर चलता है।

और धमर्र् तो खड्‌ग की धार है। वह तो बड़ा बारीक रास्ता है, संकीर्ण रास्ता है–ठीक खिंची हुई रस्सी की तरह दो खाइयों के बीच में। इधर संसार है, उधर परमात्मा है, बीच में खिंची हुई रस्सी है–उस पर चलने वाले को बड़ा कुशल होना चाहिए।

तो अगर तुम्हारे जीवन में प्रेम बुझ जाये और फिर वैराग्य हो, तो कुछ खास न हुआ।

प्रेम जलता रहे और वैराग्य हो तो कुछ हुआ।

बुझी इश्क की राख अंधेर है

मुसलमां नहीं राख का ढेर है

शराबे-कुहन फिर पिला साकिया

वही जाम गर्दिश में ला साकिया

मुझे इश्क के पर लगा कर उड़ा

मेरी खाक जुगनू बना कर उड़ा

जिगर में वही तीर फिर पार कर

तमन्ना को सीने में बेदार कर।

बुझी इश्क की राख अंधेर है। –प्रेम का अंगारा बुझ जाये तो फिर जिसे तुम वैराग्य कहते हो, वह राख ही राख है। प्रेम का अंगारा भी जलता रहे और जलाये न, तो कुछ कुशलता हुई, तो कुछ तुमने साधा, तो तुमने कुछ पाया।

बुझी इश्क की राख अंधेर है मुसलमां नहीं राख का ढेर है।–फिर वह आदमी धार्मिक नहीं, मुसलमां नहीं–राख का ढेर है।

तो एक तरफ जलते हुए, उभरते हुए अंगारे ज्वालामुखी हैं, और एक तरफ राख के ढेर हैं–बुझ गये, ठंडे पड़ गये, प्राण ही खो गये, निष्प्राण हो गये।

तो एक तरफ पागल लोग हैं, और एक तरफ मरे हुए लोग हैं।

कहीं बीच में.! पागलपन इतना न मिट जाये कि मौत हो जाये, और पागलपन इतना भी न हो कि होश खो जाये। पागलपन जिंदा रहे और फिर भी मौत घट जाये।

अहंकार मरे, तुम न मरो। संसार का भोग मरे, परमात्मा का भोग न मरे। त्याग हो, लेकिन जीवंत हो, रसधार न सूख जाये।

शराबे-कुहन फिर पिला साकिया!–बड़ी प्यारी पंक्तियां हैं। पंक्तियां यह कह रही हैं, अगर राख का ढेर हो गये हम, तो क्या सार! हे परमात्मा, फिर थोड़ी शराब बरसा!

शराबे-कुहन फिर पिला साकिया

वही जाम गर्दिश में ला साकिया–फिर वही जाम गर्दिश में ला।

अभी संसार को प्रेम किया था, अब तुझे प्रेम करेंगे; लेकिन फिर वही जाम दोहरा। प्रेम तो बचे; जो व्यर्थ के लिए था वह सार्थक के लिये हो जाये।

दौड़ तो बचे; अभी वस्तुओं के लिए दौड़े थे, अब परमात्मा के लिये दौड़ हो जाये।

शराबे-कुहन फिर पिला साकिया

वही जाम गर्दिश में ला साकिया

मुझे इश्क के पर लगा कर उड़ा!–अभी इश्क के पर तो थे, लेकिन खिसकते रहे जमीन पर, रगड़ते रहे नाक जमीन पर। मुझे इश्क के पर लगाकर उड़ा! उड़ें परमात्मा की तरफ, लेकिन पर तो इश्क के हों, प्रेम के हों।

मेरी खाक जुगनू बना कर उड़ा

जिगर से वही तीर फिर पार कर।–वह जो संसार में घटा था, वह जो किसी युवती के लिए घटा था, किसी युवक के लिए घटा था, वह जो धन के लिए घटा था, पद के लिए घटा था–वही तीर!

जिगर से वही तीर फिर पार कर तमन्ना को सीने में बेदार कर!–वह जो वासना थी, आकांक्षा थी, अभीप्सा थी, वस्तुओं के लिए, संसार के लिए–उसे फिर जगा, लेकिन अब तेरे लिए!

बहुत लोग हैं, अधिक लोग ऐसे ही हैं–जीते हैं, भोगते हैं, लेकिन भोग करना उन्हें आया नहीं। वासना की है, चाहत में अपने को डुबाया, लेकिन चाहत की कला न आयी।

न आया हमें इश्क करना न आया

मरे उम्र भर और मरना न आया।

जीवन एक कला है और धर्म सबसे बड़ी कीमिया है।

इसलिए मेरे लिए संन्यासी का जो अर्थ है, वह है: संतुलन, सम्यक संतुलन, सम्यक न्यास; कुछ छोड़ना नहीं और सब छूट जाये;

कहीं भागना नहीं और सबसे मुक्ति हो जाये;

पैर पड़ते रहें जलधारों पर लेकिन गीले न हों;

आग से गुजरना हो जाये, लेकिन कोई घाव न पड़े।

और ऐसा संभव है। और ऐसा जिस दिन बहुत बड़ी मात्रा में संभव होगा, उस दिन जीवन की दो धाराएं, श्रमण और ब्राह्मण, मिलेंगी; भक्त और ज्ञानी आलिंगन करेगा।

और उस दिन जगत में पहली दफा धर्म की परिपूर्णता प्रकट होगी। अभी तक धर्म अधूरा-अधूरा प्रकट हुआ है, खंड-खंड में प्रकट हुआ है।”

— जिन-सूत्र, भाग: एक – Jin Sutra, Vol. 1 by Osho .

Spotify पर हिन्दी में कुछ पॉडकास्ट दर्शन (Philosia) नाम के चैनल पर किए हैं। नीले अक्षरों से लिखे “दर्शन (Philosia)” पर क्लिक करके उसकी लिंक पर जाकर उनको सुन सकते हैं।

द्रष्टा (यानी भीतर की आँख से) होने का चमत्कार यह है कि जब तुम (आँख बंद करके अपने ) शरीर को देखते होतो तुम्हारा द्रष्टा अधिक मजबूत होता है। जब तुम अपने विचारों को देखते होतो तुम्हारा द्रष्टा और भी मजबूत होता है। और जब अनुभूतियों को देखते होतो तुम्हारा द्रष्टा फिर और मजबूत होता है। जब तुमअपनी भावदशाओं को देखते होतो द्रष्टा इतना मजबूत हो जाता है कि स्वयं बना रह सकता है — स्वयं को देखता हुआजैसे किअंधेरी रात में जलता हुआ एक दीया  केवल अपने आसपास प्रकाश करता हैबल्कि स्वयं को भी प्रकाशित करता है!

लेकिन लोग बस दूसरों को देख रहे हैंवे कभी स्वयं को देखने की चिंता नहीं लेते। हर कोई देख रहा है — यह सबसे उथले तल परदेखना है — कि दूसरा व्यक्ति क्या कर रहा हैदूसरा व्यक्ति क्या पहन रहा हैवह कैसा लगता है। हर व्यक्ति देख रहा है — देखने की प्रक्रिया कोई ऐसी नई बात नहीं हैजिसे तुम्हारे जीवन में प्रवेश देना है। उसे बस गहराना है — दूसरों से हटाकर स्वयं की आंतरिकअनुभूतियोंविचारों और भावदशाओं की ओर करना है — और अंततः स्वयं द्रष्टा की ओर ही इंगित कर देना है।

लोगों की हास्यास्पद बातों पर तुम आसानी से हंस सकते होलेकिन कभी तुम स्वयं पर भी हंसे होकभी तुमने स्वयं को कुछ हास्यास्पदकरते हुए पकड़ा हैनहींस्वयं को तुम बिलकुल अनदेखा रखते हो — तुम्हारा सारा देखना दूसरों के विषय में ही हैऔर उसका कोईलाभ नहीं है।

अवलोकन कीअवेयरनेस की इस ऊर्जा का उपयोग अपने अंतस के रूपांतरण के लिए कर लो। यह इतना आनंद दे सकती हैइतने आशीष बरसा सकती है कि तुम स्वप्न में भी नहीं सोच सकते। सरल सी प्रक्रिया हैलेकिन एक बार तुम इसका उपयोग स्वयं पर करने लगोतो यह एक ध्यान बन जाता है।

किसी भी चीज को ध्यान बनाया जा सकता है!

अवलोकन तो तुम सभी जानते होइसलिए उसे सीखने का कोई प्रश्न नहीं हैकेवल देखने के विषय को बदलने का प्रश्न है। उसे करीबपर ले आओ। अपने शरीर को देखो, और तुम चकित होओगे।

अपना हाथ मैं बिना द्रष्टा हुए भी हिला सकता हूंऔर द्रष्टा होकर भी हिला सकता हूं। तुम्हें भेद नहीं दिखाई पड़ेगालेकिन मैं भेद कोदेख सकता हूं। जब मैं हाथ को द्रष्टाभाव के साथ हिलाता हूंतो उसमें एक प्रसाद और सौंदर्य होता हैएक शांति और एक मौन होताहै।

तुम हर कदम को देखते हुए चल सकते होउसमें तुम्हें वे सब लाभ तो मिलेंगे ही जो चलना तुम्हें एक व्यायाम के रूप में दे सकता हैसाथही इससे तुम्हें एक बड़े सरल ध्यान का लाभ भी मिलेगा।

ओशो 

ध्यानयोगप्रथम और अंतिम मुक्ति

मेरा अनुभव जो आपके काम आ सकता है:-

समय के साथ, 20 वर्षों के भीतरमैं अन्य कृत्यों के दौरान होंश या जागरूकता को लागू करने में सक्षम हो गयाजबकि मुझे बाद में एहसास हुआ कि कई कृत्यों में यह पहले ही स्वतः होने लगा था।

संपूर्णता के साथ जीनाजीवन को एक प्रामाणिक रूप में जीना यानी भीतर बाहर एक और ईमानदारी से जीनालोगोंकी बिना भेदभाव के निःस्वार्थ भाव से सेवा करना और सभी बंधनों (धार्मिकशैक्षिकजातिरंग आदिसे मुक्त होनातीन महत्वपूर्ण उत्प्रेरक हैं जो किसी को गहराई तक गोता लगाने में मदद करते हैं।

होंश का प्रयोग मेरे लिए काम करने का तरीका है, (instagram पर होंशहो सकता है कि आपको भी यह उपयुक्तलगे अन्यथा अधिकांश लोगों के लिए गतिशील ध्यान है। लगभग 500 साल पहले भारतीय रहस्यवादी गोरखनाथद्वारा खोजी गई और ओशो द्वारा आगे संशोधित की गई 110 अन्य ध्यान तकनीकें हैं जिनका प्रयोग किया जा सकताहै और नियमित जीवन में उपयुक्त अभ्यास किया जा सकता है।

नमस्कार ….. मैं अपनी आंतरिक यात्रा के व्यक्तिगत अनुभवों से अपनी टिप्पणियाँ लिखता हूँ। इस पोस्ट में दुनिया भरके रहस्यवादियों की शिक्षाएँ शामिल हो सकती हैं जिन्हें मैं आज भी मानने लायक समझता हूँ। मेरे बारे में अधिकजानकारी के लिए और मेरे साथ सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर जुड़ने के लिए, मेरे सोशल मीडिया लिंक से जुड़ने केलिए वेबसाइट https://linktr.ee/Joshuto पर एक नज़र डालें, या मेरे यूट्यूब चैनल की सदस्यता लें और/यापॉडकास्ट आदि सुनें।

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