“हम बड़े बेईमान हैं। हम हजार बहाने करते हैं।
हमारी बेईमानी यह है कि हम यह भी नहीं मान सकते कि हम संन्यास नहीं लेना चाहते, कि वैराग्य नहीं चाहते। हम यह भी दिखावा करना चाहते हैं कि चाहते हैं, लेकिन क्या करें! किंतु-परंतु बहुत हैं। ‘
(ब्रैकेट में मेरे अपने आध्यात्मिक यात्रा के अनुभव के आधार पर स्थिति को अधिक स्पष्ट करने का प्रयास किया है)
‘पापकर्म के प्रवर्तक राग और द्वेष ये दो भाव हैं। जो भिक्षु इनका निषेध करता है, वह मंडल संसार में नहीं रुकता, मुक्त हो जाता है।’-जिन सूत्र
रागे दोसे य दो पावे, पावकम्म पवत्तणे। जे भिक्खू रूंभई निच्चं, से न अच्छइ मंडले।।-जिन सूत्र
बस दो बातें हैं–राग और द्वेष, या कहें राग-द्वेष इन दो के सहारे चक्र चलता है।
राग, कि कुछ मेरा है। राग, कि कोई अपना है। राग, कि किसी से सुख मिलता है। इसे सम्हालूं, बचाऊं, सुरक्षा करूं।
द्वेष, कि कोई पराया है। द्वेष, कि कोई शत्रु है। द्वेष, कि किसी के कारण दुख मिलता है। द्वेष, कि इसे नष्ट करूं, मिटाऊं, समाप्त करूं।
बाहर देखनेवाली नजर हर चीज को राग और द्वेष में बदलती है।
(बाहर देखने के लिए दो आँखों की ज़रूरत होती है, उनका स्वभाव ही दो में बाँटना है क्योंकि वो मस्तिष्कका सहारे ही काम कर पातीं हैं। इसलिए वह राग-द्वेष में बाँट देती है। हमारा तीसरा नेत्र या तीसरी आँख हमारी भीतर देखने वाली आँख है और वह देखने के लिये हृदय का इस्तेमाल करती है। बचपन में पहली बार हम उसी से देखते हैं, फिर जीवनयापन के लिए दी गई शिक्षा दीक्षा हमको बाहर की आँखों से देखना और मस्तिष्क का उपयोग करना, रोबोट की तरह काम करना सिखाती है। और उसमें हम हमारी मौलिक आँख खो देते हैं। ध्यानपूर्वक जीवन जीने से हम वह मौलिक आँख वापस ला सकते हैं।)
तुमने कभी खयाल किया। राह से तुम गुजरते हो, किसी की तरफ राग से देखते हो, किसी कि तरफ द्वेष से देखते हो। कोई लगता है अपना है, प्यारा है; कोई लगता है पराया है, दुश्मन है। कोई लगता है आज अपना नहीं, तो कल अपना हो जाए, ऐसी आकांक्षा जगती है। कोई दूर है तो आकांक्षा होती है, पास आ जाए, गले लग जाए। और कोई पास भी खड़ा हो तो होता है, दूर हटे, विकर्षण पैदा होता है।
तुम सारे संसार को राग-द्वेष में बांटते चलते हो। जाने-अनजाने। इसे जरा होश से देखना, तो तुम पाओगे प्रतिपल: अजनबी आदमी रास्ते पर आता है, तत्क्षण तुम निर्णय कर लेते हो भीतर, राग या द्वेष का; मित्र कि शत्रु; चाहत के योग्य कि नहीं; प्यारा लगता है कि दुश्मन; भला लगता है, पास आने योग्य कि दूर जाने योग्य।
झलक भी मिली आदमी की राह पर और चाहे तुम्हें पता भी न चलता हो, तुमने भीतर निर्णय कर लिया–बड़ा सूक्ष्म राग का या द्वेष का। यह निर्णय ही तुम्हें संसार से बांधे रखता है।
एक कार गुजरी, गुजरते से ही एक झलक आंख पर पड़ी, तुमने तय कर लिया: ऐसी कार खरीदनी है कि नहीं खरीदनी है। लुभा गई मन को कि नहीं लुभा गई।
कोई स्त्री पास से गुजरी। कोई बड़ा मकान दिखाई पड़ा। सुंदर वस्त्र टंगे दिखाई पड़े, वस्त्र के भंडार में। राग-द्वेष पूरे वक्त, तुम निर्णय करते चलते हो। यह राग-द्वेष की सतत चलती प्रक्रिया ही तुम्हारे चाक को चलाए रखती है। तुम मंडल में फंसे रहते हो।
फिर क्या उपाय है?
एक तीसरा सूत्र है।
बुद्ध ने उसे उपेक्षा कहा है। वह बिलकुल ठीक शब्द है।
महावीर इसको विवेक कहते हैं, बिलकुल ठीक शब्द है।
वे कहते हैं, न राग न द्वेष, कोई राग-द्वेष नहीं बस उपेक्षा का भाव। न कोई मेरा है, न कोई पराया है। न कोई अपना है, न कोई दूसरा है। न कोई सुख देता है, न कोई दुख देता है।
(यह संसार है, और यह ऐसा ही है कि इसको उपेक्षा से देखो तो ही इसको सही देखते हो)
चौबीस घंटे भी एक दफा तुम उपेक्षा का प्रयोग करके देखो, चौबीस घंटे में कुछ हर्जा न हो जाएगा। चौबीस घंटे एक धारा भीतर बनाकर देखो कि कुछ भी सामने आएगा, तुम उपेक्षा का भाव रखोगे, न इस तरफ न उस तरफ, न पक्ष न विपक्ष, न शत्रु न मित्र–तुम बांटोगे न, देखते रहोगे खाली नजरों से।
(मैंने ओशो के सुझाये क़रीब क़रीब सारे प्रयोग करके देखे, और कुछ ही में सफल हो पाया। लेकिन जिसने तुरंत फ़ायदा किया उसको फिर करता ही रहा।)
चौबीस घंटे में ही तुम पाओगे: एक अपूर्व शांति! क्योंकि वह जो सतत क्रिया चाक को चला रही थी, वह चौबीस घंटे के लिए भी रुक गई तो चाक ठहर जाता है।
ऐसा ही समझो कि तुम साइकल चलाते हो, तो पैडल मारते ही रहते हो। दोनों तरफ पैडल लगे हैं। दोनों पैडल एक-दूसरे के विपरीत लगते हैं, मगर एक-दूसरे के विपरीत नहीं हैं; दोनों एक-दूसरे के सहयोगी हैं। एक पैडल ऊपर होता है तो दूसरा नीचे होता है। एक बाएं तरफ है तो दूसरा दाएं तरफ है। दोनों दुश्मन मालूम पड़ते हैं, लेकिन दोनों गहरे संयोग में हैं, और दोनों के कारण ही चाक चल रहा है, गाड़ी चल रही है, साइकिल चल रही हैं।
तुम पैडल रोक दो, तो हो सकता है, थोड़ी-बहुत दो-चार-दस कदम पुरानी गति के कारण साइकिल चल जाए, लेकिन सदा न चल पाएगी। पैडल रोकते ही गति क्षीण होने लगेगी, साइकिल लड़खड़ाने लगेगी। दो-चार-दस कदम के बाद तुम्हें साइकिल से नीचे उतरना पड़ेगा, नहीं तो साइकल तुम्हें नीचे उतार देगी।
राग-द्वेष पैडल की भांति हैं। विपरीत दिखाई पड़ते हैं, लेकिन उन दोनों के ही पैडल मारकर तुम जीवन के चके को सम्हाले हुए हो।
उपेक्षा को साधो! उपेक्षा का अर्थ है: पैडल मत मारो, बैठे रहो साइकिल पर, कोई हर्जा नहीं। कितनी देर बैठोगे? इसलिए तो मैं कहता हूं अपने संन्यासियों को, भागने की कोई जरूरत नहीं, बैठे रहो जहां हो।
साइकिल पर ही बैठना है, बैठे रहो। घर में रहना है, घर में रहो। दुकान पर रहना है, दुकान पर रहो। थोड़ा ध्यान सधने दो, साइकिल खुद ही गिराएगी तुम्हें, तुम्हें थोड़े ही छोड़ना पड़ेगा।
साइकल खुद ही छोड़ देगी। साइकिल कहेगी, अब बहुत हो गया, उतरो! जरा उपेक्षा सधे, जरा विवेक सधे, जरा ध्यान सधे, जरा अमूर्च्छा थोड़ी उठे, कि जीवन में अपने आप क्रांति घटित होनी शुरू हो जाती है।
चौबीस घंटे शायद तुम्हें लगे, बहुत मुश्किल है, शायद डर भी लगे कि कहीं ऐसा न हो कि साइकिल से गिर ही जाएं, हाथ-पैर न टूट जाएं; कहीं ऐसा न हो जाए कि फिर साइकिल पर दुबारा चढ़ ही न सकें–तो ऐसा करो कि दिन में एक घंटा ही उपेक्षा साधो।
लेकिन फिर एक घंटा परिपूर्ण उपेक्षा साधो। वह एक घंटा भी तुम्हें जीवन का दर्शन करा जाएगा।
(मैंने तो सिर्फ़ दो मिनट साधना शुरू किया, रोज़ सुबह दांतों की ब्रश करते समय। इसलिए मैं कहता हूँ कि दो मिनट ही साधो। और यदि ब्रश करते समय भूल जाओ तो सोशल मीडिया पर कीबोर्ड पर टाइप करते समय, स्क्रॉल करते समय ही साधो।)
क्षण भर को भी अगर राग-द्वेष की बदलियां आंखों में न घिरी हों, तो जीवन का सत्य दिखाई पड़ना शुरू हो जाता है। ( और फिर आप एक नये उत्साह के साथ भर जाते हैं कि इस जन्म में यह आपके लिये संभव हो सकता है कि संसार सागर के पार लग जायें)
तब न कोई मित्र है, न कोई शत्रु है।
तब तुम्हीं अपने मित्र हो, तुम्हीं अपने शत्रु हो।
सत्प्रवृत्ति में मित्र हो, दुष्प्रवृत्ति में शत्रु।
खुदी क्या है राजे-दुरूने-हयात, समंदर है एक बूंद पानी में बंद।- सूफ़ी ग़ज़ल
तुम्हारे भीतर समंदर बंद है। समंदर है एक बूंद पानी में बंद! लेकिन भीतर नजर ही नहीं जाती तो समंदर का दर्शन नहीं होता। तुम नाहक छोटे बने हो। तुम व्यर्थ ही अपने को क्षुद्र समझे हो। तुम अकारण ही हीन माने बैठे हो। और हीन मान लिया, इसलिए श्रेष्ठ बनने की कोशिश में लगे हो।
थोड़ी आंख भीतर आए, थोड़ी उपेक्षा में दृष्टि सम्हले, थोड़ी तुम्हारी ज्योति यहां-वहां न कंपे, राग-द्वेष के झोंके न आएं, तो तुम अचानक पाओगे:
समंदर है एक बूंद पानी में बंद।
तब तुम विराट हो जाओगे, विशाल हो जाओगे। यही तुम्हारा परमात्म-भाव है।
किरण चांद में है शरर संग में , वह बेरंग है डूब कर रंग में।
खुद ही का नशेमन तिरे दिल में है , फलक जिस तरह आंख के तिल में है।।-सूफ़ी ग़ज़ल
जैसे आंख के छोटे-से तिल में सारा आकाश समाया हुआ है.आंख खोलते हो आकाश को देखते हो, कितना विराट आकाश आंख के छोटे से तिल में समाया हुआ है।
खुदी का नशेमन तेरे दिल में है फलक जिस तरह आंख के तिल में है।
वह परमात्मा का घर भीतर है। वह तुम छोटे मालूम पड़ते हो.आंख का तिल कितना छोटा है, सारे आकाश को समा लेता है! तुम छोटे मालूम पड़ते हो, हो नहीं।
जिस दिन तुम्हारा भीतर का विस्फोट होगा, उस दिन तुम जानोगे कि तुम सदा-सदा से अनंत को, निराकार को, निर्गुण को अपने भीतर लिये चलते थे।
समंदर है एक बूंद पानी में बंद!
लेकिन इसकी खोज नियम, मर्यादा, अनुशासन, नीति, सदाचार, इतने से ही न होगी। इतने से तुम अच्छे आदमी बन जाओगे–सभ्य।
सभ्य शब्द बड़ा अच्छा है। इसका मतलब: सभा में बैठने योग्य। और कुछ खास मतलब नहीं है। जहां चार जन बैठे हों, वहां तुम बैठने योग्य हो जाओगे, सभ्य हो जाओगे। कोई तुम्हें दुतकारेगा नहीं कि हटो यहां से! नीति-नियम सीख जाओगे, शिष्टाचार। लेकिन उस परमात्मा के जगत में इतने से काफी नहीं है।
सभा में बैठने योग्य हो जाने से, तुम अपने में बैठने योग्य न बनोगे। जो तुम्हें सभा में बैठने योग्य बना दे, वह सभ्यता। जो तुम्हें अपने में बैठने योग्य बना दे, वही संस्कृति।
शेख! मकतब के तरीकों से कुशादे-दिल कहां।
किस तरह किबरीज़ से रोशन हो बिजली का चिराग।l
शेख! मकतब के तरीकों से कुशादे-दिल कहां–यह उठने-बैठने के निमय और व्यवस्थाएं और आचरण की पद्धतियां, मकतब के तरीके, इनसे दिल का विकास नहीं होता, इनसे आत्मा नहीं बढ़ती, इनसे आत्मा नहीं फलती-फूलती।
किस तरह किबरीज़ से रोशन हो बिजली का चिराग!
यह तो ऐसे ही है, जैसे कोई तेल से या गंधक से बिजली के बल्ब को जलाने की कोशिश करे। कोई संबंध नहीं है।
तेल भरना पड़ता है दीये में। गंधक के भी दीये बन सकते हैं। लेकिन बिजली की रोशनी को गंधक और तेल की कोई भी जरूरत नहीं है।
किस तरह किबरीज़ से रोशन हो बिजली का चिराग!
मकतब के तरीकों से, जीवन के साधारण शिष्टाचार के नियमों को जिसने धर्म समझ लिया, वह ऐसे ही है जैसे एक बिजली के बल्ब को तेल भरकर जलाने की कोशिश कर रहा हो। वह व्यर्थ है।(हमारे शरीर में जिस बिजली को हमारा दिल बनाता है जिससे दिल की धड़कन चलती रहती है विकिपीडिया पर विस्तार से जानें या YouTube पर जानें वही बिजली किसी क्षण में हमारी अंतरात्मा को भी रोशन कर जाती है किसी बिजली के खटके को दबाने से बल्ब जलने लगे उस तरह से -लेकिन वह किसी विशेष परिस्थिति में ही होता है। और हम सिर्फ़ उन परिस्थितियों को निर्मित कर सकते है। जितनी ज़्यादा तीव्रता से हम उसे पाने की इच्छा रखते है उतनी ज़्यादा बार उतने ज़्यादा समय हर दिन हम वे परिस्थितियाँ निर्मित करेंगे यही तपस्या है। लेकिन उस स्विच को हम दबा नहीं सकते लेकिन जब वह अपने से दबेगा और रोशन होगा बिजली का चिराग़ तब लगेगा यह तो जानी पहचानी रोशनी है )
जैसे ही थोड़ी-सी समझ को तुम उकसाओगे, वैसे ही तुम पाओगे: तुम्हारे भीतर की रोशनी न तो तेल चाहती है न गंधक; (न राग की ज़रूरत है, ना द्वेष की। वहाँ दूसरा कोई है ही नहीं सब तुम्हारा ही विस्तार है, तुम्हारे मन का projection है जो राग-द्वेष के कारण संसार निर्मित कर रहा है । मेरा post ‘you are like fibre optic cable )
तुम्हारे भीतर की रोशनी ईंधन पर निर्भर नहीं है। तुम्हारे भीतर की रोशनी तुम्हारा स्वभाव है।”
— जिन-सूत्र, भाग: एक – Jin Sutra, Vol. 1 by Osho .
ध्यान का प्रयोग करने के पहले यह पता होना ज़रूरी हैं कि होंश ना हो तो ज़िंदगी यूँ ही चूक जाती है। फिर होंश को कैसे सम्भालें यह पता होना चाहिए, बाक़ी इसका प्रयोग करते रहो तो अपनेआप सब घटित होता है, सत्य का उदघाटन भी होता है।
मेरे अनुभव :-
समय के साथ, 20 वर्षों के भीतर, मैं अन्य कृत्यों के दौरान होंश या जागरूकता को लागू करने में सक्षम हो गया, जबकि मुझे बाद में एहसास हुआ कि कई कृत्यों में यह पहले ही स्वतः होने लगा था।
संपूर्णता के साथ जीना, जीवन को एक प्रामाणिक रूप में जीना यानी भीतर बाहर एक और ईमानदारी से जीना, लोगोंकी बिना राग-द्वेष और भेदभाव के निःस्वार्थ भाव से सेवा करना और सभी बंधनों (धार्मिक, शैक्षिक, जाति, रंग आदि) से मुक्त होनातीन महत्वपूर्ण उत्प्रेरक हैं जो किसी को गहराई तक गोता लगाने में मदद करते हैं।
होंश का प्रयोग मेरे लिए काम करने का तरीका है, हो सकता है कि आपको भी यह उपयुक्तलगे अन्यथा अधिकांश लोगों के लिए गतिशील ध्यान है। लगभग 500 साल पहले भारतीय रहस्यवादी गोरखनाथद्वारा खोजी गई और ओशो द्वारा आगे संशोधित की गई 110 अन्य ध्यान तकनीकें हैं जिनका प्रयोग किया जा सकताहै और नियमित जीवन में उपयुक्त अभ्यास किया जा सकता है।
नमस्कार ….. मैं अपनी आंतरिक यात्रा के व्यक्तिगत अनुभवों से अपनी टिप्पणियाँ लिखता हूँ। इस पोस्ट में दुनिया भरके रहस्यवादियों की शिक्षाएँ शामिल हो सकती हैं जिन्हें मैं आज भी मानने लायक समझता हूँ। मेरे बारे में अधिकजानकारी के लिए और मेरे साथ सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर जुड़ने के लिए, मेरे सोशल मीडिया लिंक से जुड़ने केलिए वेबसाइट https://linktr.ee/Joshuto पर एक नज़र डालें, या मेरे यूट्यूब चैनल की सदस्यता लें और/यापॉडकास्ट आदि सुनें।
कॉपीराइट © ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन, अधिकतर प्रवचन की एक एमपी 3 ऑडियो फ़ाइल को osho डॉट कॉम से डाउनलोड किया जा सकता है या आप उपलब्ध पुस्तक को OSHO लाइब्रेरी में ऑनलाइन पढ़ सकते हैं।यू ट्यूब चैनल ‘ओशो इंटरनेशनल’ पर ऑडियो और वीडियो सभी भाषाओं में उपलब्ध है। OSHO की कई पुस्तकें Amazon पर भी उपलब्ध हैं।
मेरे सुझाव:-
ओशो के डायनामिक मेडिटेशन को ओशो इंटरनेशनल ऑनलाइन (ओआईओ) ऑनलाइन आपके घर से ओशो ने नई जनरेशन के लिए जो डायनामिक मेडिटेशन दिये हैं उन्हें सीखने की सुविधा प्रदान करता है। ओशो ध्यान दिवस अंग्रेज़ी में @यूरो 20.00 प्रति व्यक्ति के हिसाब से। OIO तीन टाइमज़ोन NY, बर्लिन औरमुंबई के माध्यम से घूमता है। आप अपने लिए सुविधाजनक समय के अनुसार प्रीबुक कर सकते हैं।