संसार में निरोध स्वरुपा है भक्ति – नारद

संसार और वैराग्य का मतलब तभी स्पष्ट होगा जब तुम संसार से नहीं लड़ोगे बल्कि उसको नज़रअंदाज़ करोगे। सतही नज़र से संसार को देख सको तो वैराग्य अपनेआप फला।
संसार से लड़ना

संसार को ओशो नारद के भक्ति सूत्र पर प्रवचन देते हुए तीसरे प्रवचन में कुछ इस तरह समझाते हैं जैसा नीचे बताया गया है। लेकिन मेरा मानना यह भी है कि वैराग्य तब फलित हुआ जब संसार से मुक्त  हुए। और संसार से तब मुक्त हुए जब शरीर भी संसार का ही एक हिस्सा नज़र आने लगे, संसार  की तरह ही व्यर्थ भी नज़र आने लगे। इसलिए वैराग्य को समझना है तो संसार को समझना ज़रूरी है।

और अगर वैज्ञानिक भी इसी निष्कर्ष पर पहुँचे है तो यह जानना और ज़रूरी हो जाता है। 

अभी हाल हो में वैज्ञानिकों ने भी घोषणा करी है कि संसार के वैज्ञानिक परीक्षण से भी साबित होता है कि संसार असल नहीं है बल्कि हमारी आँखों का भ्रम है। यदि हम इसे नहीं देखें तो यह exist ही नहीं करता है। इसका मतलब यह है कि जब हमारी दौड़ से हम थक जाते हैं और उसकी व्यर्थता हमको स्पष्ट दिखाई देने लगती है तो संसार हमारे लिए exit होना भी बंद हो जाता है, और तब हम consciousness या चेतना या हमारी चेतनता को देखने में सक्षम हो जाते हैं। इस वीडियो में इस वैज्ञानिक ने यह भी आशंका जताई है, जो सारे संत बताते आये हैं।

हमारे बाहर की आँख से देखने पर ही संसार नज़र आता है।

(नीचे दिये फोटो से वैज्ञानिकों ने भी इसे सत्य पाया कि अणु भी हमारे देखने की प्रक्रिया को समझते हैं, उनमें consciousness सोई हुई है और जब हम उनको नहीं देखते तो वह अदृश्य तरंग के रूप में हमारे आसपास विद्यमान रहते हैं। यानी संसार हमारे होने के कारण हैं और जैसे हम हैं वैसा ही संसार नज़र आने लगता है)

क्वांटम मैकेनिक्स में किसी एटम को देखने से उसकी स्थिति और ऊर्जा में परिवर्तन आ जाता है।
मनुष्य भी यदि ख़ुद को देखे तो उसकी स्थिति और ऊर्जा में परिवर्तन हो जाता है।

और जब तक बाहर आँख देख रहीं हैं, तब तक भीतर की आँख यानी द्रष्टा का प्रयोग जीवन में नहीं किया जा सकता। और भीतर की आँख से भीतर का संसार यानी चेतना या चेतनता का अनुभव होता है। असली मनुष्य जीवन की शुरुआत ही तब होती हैं जब हम चेतानमय होकर जीवन जीते हैं, तब यह संसार नाटक और हम इसके एक पात्र होते हैं। और पात्र या कलाकार की मृत्यु नहीं होती। रोल ख़त्म होने पर वह बस नाटक के परिदृश्य से या मंच से बाहर हो जाता है।

नारद के भक्ति सूत्र पर चर्चा करते हुए ओशो कहते हैं:- 

“संसार का ठीक अर्थ समझ लो, क्योंकि तुम्हें संसार का भी अर्थ गलत ही बताया गया है। 

कोई घर को छोड़ कर भाग जाता है तो वह कहता है, संसार छोड़ दिया। कोई पत्नी को छोड़ कर भाग जाता है तो वह कहता है, संसार छोड़ दिया। 

काश, संसार इतना स्थूल होता! काश, तुम्हारी पत्नी के छोड़ जाने से संसार छूट जाता! काश, बात इतनी सस्ती होती! तो संन्यास इतना बहुमूल्य नहीं होता। 

संसार न तो पत्नी में है, न घर में है, न धन में है, न बाजार में है, न दुकान में है–संसार तुम्हारी कामना में है। 

जब तक तुम मांगते हो कि मुझे कुछ चाहिए, जब तक तुम सोचते हो कि मेरा संतोष, मेरा सुख, मुझे कुछ मिल जाए, उसमें है, तब तक तुम संसार में हो। 

जब तक मांग है, तब तक संसार है। संसार का अर्थ है: तुम्हारा हृदय एक भिक्षापात्र है, जिसको लिए तुम मांगते फिरते हो–कभी इस द्वार, कभी उस द्वार। 

कितने ठुकराए जाते हो! लेकिन फिर-फिर सम्हल कर मांगने लगते हो। क्योंकि एक ही तुम्हारे मन में धारणा है कि और ज्यादा, औरज्यादा, और ज्यादा मिल जाए, तो शायद सुख हो! 

यह ‘और’ की दौड़ संसार है। 

तो तुम मंदिर में भी बैठ जाओ और वहां भी अगर तुम मांग रहे हो तो तुम संसार में ही हो। तुम हिमालय पर चले जाओ, वहां भी आंख बंद करके अगर तुम मांग ही रहे हो, परमात्मा से कह रहे हो, ‘और दे, स्वर्ग दे, मोक्ष दे,’ इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम क्या मांगते हो। 

संसार का कोई संबंध इससे नहीं है कि तुम क्या मांगते हो; संसार का संबंध बस इससे है कि तुम मांगते हो। (तुमको जीवन में कुछ कमी अभी भी नज़र आती है)

इस बात को ठीक से समझ लेना, अन्यथा संसार छोड़ने का ढोंग भी हो जाता है और संसार छूटता भी नहीं। 

संसार तुम्हारे भीतर है, बाहर नहीं। संसार तुम्हारी इस मांग में है कि मैं जैसा हूं वैसा काफी नहीं हूं, कुछ चाहिए जो मुझे पूरा करे; मैं अधूरा हूँ, अतृप्त हूं, असंतुष्ट हूं, कुछ मिल जाए जो मुझे पूरा करे, तृप्त करे, संतुष्ट करे! 

स्वयं को अधूरा मानने में और आशा रखने में कि कुछ मिलेगा जो पूरा कर देगा, बस वहां संसार है। 

मांग छूटी: संसार छूटा! तब कोई घर छोड़ने की जरूरत नहीं है, न पत्नी को छोड़ने की जरूरत, न पति को, न बच्चों को–उनका कोई कसूर ही नहीं है! 

घर में रहते तुम संसार से मुक्त हो जाते हो। पत्नी के पास बैठे तुम संसार से मुक्त हो जाते हो। बच्चों को साजते-सम्हालते तुम संसार से मुक्त हो जाते हो। 

क्योंकि संसार से मुक्त होने को केवल इतना ही अर्थ है कि अब तुम तृप्त हो, जैसे हो, जो हो; तुम्हारे होने में अब कोई मांग नहीं है; तुम्हारे होने में अब कोई आकांक्षा नहीं है; तुम्हारा होना कामनातुर नहीं है; तुम अब कामनाओं का फैलाव नहीं हो, विस्तार नहीं हो–तुम बस हो: तृप्त, यही क्षण, और जैसे तुम हो, पर्याप्त है, पर्याप्त से भी ज्यादा है। (अस्तित्व जब जन्म लेता है मनुष्य के रूप में तो उसकी अथाह देने की क्षमता का पूरा उपयोग करता है इसलिए हमको ज़रूरत से ज़्यादा मिला हुआ है, लेकिन हमारी निगाह दूसरों पर से हटे तब पता चले)

तब तुम्हारी प्रार्थना धन्यवाद बन जाती है, मांग नहीं। 

तब तुम मंदिर कुछ मांगने नहीं जाते; तुम उसे धन्यवाद देने जाते हो कि तूने इतना दिया, अपेक्षा से ज्यादा दिया, जो कभी मांगा नहीं था वह दिया। 

तेरे देने का कोई अंत नहीं! हमारा पात्र ही छोटा पड़ता जाता है और तू भरे जा रहा है! … तब भी तुम रोते हो जाकर मंदिर में, लेकिन तब तुम्हारे आंसुओं का सौंदर्य और! 

जब तुम मांग से रोते हो, तब तुम्हारे आंसू गंदे हैं, दीन हैं, दरिद्र हैं। 

जब तुम अहोभाव से रोते हो, तुम्हारे आंसुओं का मूल्य कोई मोती नहीं चुका सकते। तब तुम्हारा एक-एक आंसू बहुमूल्य है, हीरा है।आंसू वही है, लेकिन अहोभाव से भरे हुए हृदय से जब आता है, तो रूपांतरित हो जाता है।” 

नारद कहते हैं :- 

‘वह भक्ति कामनायुक्त नहीं है, क्योंकि वह निरोधस्वरूपा है।’ 

‘निरोधस्वरूपा!’ साधारणतः भक्ति-सूत्र पर व्याख्या करने वालों ने निरोधस्वरूपा का अर्थ किया है कि जिन्होंने सब त्याग दिया, छोड़ दिया। 

नहीं, मेरा वैसा अर्थ नहीं है। 

जरा सा फर्क करता हूं, लेकिन फर्क बहुत बड़ा है। समझोगे तो उससे बड़ा फर्क नहीं हो सकता। 

निरोधस्वरूपा का अर्थ यह नहीं है कि जिन्होंने छोड़ दिया, निरोधस्वरूपा का अर्थ है कि जिनसे छूट गया। (जैसे कोई बच्चा रंगीन पत्थर इकट्ठे करके मुट्ठी में बांधकर रखता है क्योंकि उनको वह बहुमूल्य समझता है, उनको ही वह हीरा समझता है और जब उसको कोई असली हीरा दिखाता है कि इसको हीरा कहते हैं तब उसके हाथ से पत्थर छूट ही जाते हैं। उनको छोड़ने का प्रयत्न भी नहीं करना पड़ता।उसको तो पता ही नहीं चलता कब छूट गये! तब हुआ निरोध )

निरोध और त्याग का वही फर्क है। 

त्याग का अर्थ होता है: छोड़ा। निरोध का अर्थ होता है: छूटा, व्यर्थ हुआ। 

जो चीज व्यर्थ हो जाती है उसे छोड़ना थोड़े ही पड़ता है, छूट जाती है। सुबह तुम रोज घर का कूड़ा-करकट इकट्ठा करके बाहर फेंक आतेहो तो तुम कोई जाकर अखबारों के दफ्तर में खबर नहीं देते कि आज फिर त्याग कर दिया कूड़े-करकट का, ढेर का ढेर त्याग कर दिया! 

तुम जाओगे (अख़बार के दफ़्तर विज्ञापन देने) तो लोग तुम्हें पागल समझेंगे। 

अगर कूड़ा-करकट है तो फिर छोड़ा, इसकी बात ही क्यों उठाते हो? 

तो जो आदमी कहता है, ‘मैंने त्याग किया’, वह आदमी अभी भी निरोध को उपलब्ध नहीं हुआ। 

क्योंकि त्याग करने का अर्थ ही यह होता है कि अभी भी सार्थकता शेष थी। 

अगर कोई कहता है कि मैंने बड़ा स्वर्ण छोड़ा, बड़े महल छोड़े; गौर से देखना: स्वर्ण अभी भी स्वर्ण था, महल अभी भी महल थे। ‘छोड़ा!’ छोड़ना बड़ी चेष्टा से हुआ। चेष्टा का अर्थ ही यह होता है कि रस अभी कायम था; फल पका न था, कच्चा था, तोड़ना पड़ा। 

(पीला भी नहीं बल्कि) पका फल गिरता है; कच्चा फल तोड़ना पड़ता है। (कच्चे फल में अभी रस बह रहा था पेड़ से फल की तरफ़ और फल भी और की माँग कर रहा था। जब फल को पेड़ जो देना था सब दे चुका अब कुछ शेष नहीं है, और फल की भी कोई माँग नहीं तो वह अपनी डाल से उसको रस भेजना बंद कर देता है जैसे की वह अब वहाँ है ही नहीं, तब फल कुछ ही समय में गिर जाता है और ना तो पेड़ को इसका पता चलता है कि वह गिर गया और ना फल को)

तो त्यागी तो सभी कच्चे हैं। 

निरोध को उपलब्ध व्यक्ति पका हुआ व्यक्ति है। 

त्याग और निरोध का यही फर्क है। नारद कह सकते थे, ‘त्यागस्वरूपा है’, पर उन्होंने नहीं कहा। 

‘निरोधस्वरूपा!’ व्यर्थ हो गई जो चीज, वह गिर जाती है, उसका निरोध हो जाता है। 

सुबह तुम जागते हो तो सपनों का त्याग थोड़े ही करते हो, कि जाग कर तुम कहते हो कि ‘बस, रात भर के सपने छोड़ता हूं।’ जागे कि निरोध हुआ। 

जागते ही तुमने पाया कि संसार में रहते सपने टूट गए; सपने व्यर्थ हो गए; सपने सिद्ध हो गए कि सपने थे, बात समाप्त हुई; अब उनकी चर्चा क्या करनी है।

जो त्याग का हिसाब रखते हैं, समझना, भोगी ही हैं–शीर्षासन करते हुए, उलटे खड़े हो गए हैं, भोगी ही हैं।

— भक्ति सूत्र – Bhakti Sutra by Osho .

 

ओशो कहते हैं ख़ुद से बहस करोगे तो सारे सवालों के जवाब मिल जाएँगे और दूसरों से करोगे तो नये सवाल खड़े हो जाएँगे।
ख़ुद को देखना सीखे तो ख़ुद से बहस भी करने लगोगे

ओशो कहते हैं :-

“ कुशल अभिनेता बनो। भागो मत। जान कर अभिनय करो, बेहोशी में मत करो, होशपूर्वक करो।

होश सधना चाहिए। हजार काम करने पड़ेंगे। और शायद उनका करना जरूरी भी है। पर होशपूर्वक करना जरूरी है।

धीरे-धीरे तुम पाओगे कि यह जीवन जीवन न रहा, बिलकुल नाटक हो गया, तुम अभिनेता हो गए।

अभिनेता होने का अर्थ है कि तुम जो कर रहे हो, उससे तुम्हारी एक बड़ी दूरी हो गई।

जैसे कि कोई राम का अभिनय करता है रामलीला में, तो अभिनय तो पूरा करता है, राम से बेहतर करता है; क्योंकि राम को कोई रिहर्सल का मौका न मिला होगा। पहली दफा करना पड़ा था, उसके पहले कोई किया न था कभी। तो जो कई दफे कर चुका है, और बहुत बार तैयारी कर चुका है, वह राम से बेहतर करेगा। रोएगा जब सीता चोरी जाएगी। वृक्षों से पूछेगा, मेरी सीता कहां है? आंख से आंसुओं की धारें बहेंगी।

और फिर भी भीतर पार रहेगा। भीतर जानता है कि कुछ लेना-देना नहीं है। मंच के पीछे उतर गए, खत्म हो गई बात।

मंच के पीछे राम और रावण साथ बैठ कर चाय पीते हैं, मंच के बाहर धनुषबाण लेकर खड़े हो जाते हैं। मंच पर दुश्मनी है; मंच के पार कैसी दुश्मनी!

मैं तुमसे कहता हूं कि असली राम की भी यही अवस्था थी।

इसलिए तो हम उनके जीवन को रामलीला कहते हैं–लीला! वह नाटक ही था। कृष्णलीला! वह नाटक ही था।

असली राम के लिए भी नाटक ही था। नाटक का अर्थ होता है: जो तुम कर रहे हो, उसके साथ तादात्म्य नहीं है; उसके साथ एक नहीं हो गए हो; दूर खड़े हो; हजारों मील का फासला है तुम्हारे कृत्य में और तुम में।

तुम कर्ता नहीं हो, साक्षी हो। नाटक का इतना ही अर्थ है: तुम देखने वाले हो। वे जो मंच के सामने बैठे हुए दर्शक हैं, उनमें कहीं तुम भी छिपे बैठे हो; मंच पर काम भी कर रहे हो और दर्शकों में छिपे भी बैठे हो, वहां से देख भी रहे हो।

भीतर बैठ कर तुम देख रहे हो जो हो रहा है, खो नहीं गए हो, भूल नहीं गए हो। यह भ्रांति तुम्हें नहीं हो गई है कि मैं कर्ता हूं।

तुम जानते हो: एक नाटक है, उसे तुम पूरा कर रहे हो।

तो मैं तुमसे न कहूंगा कि भागो। भाग कर कहां जाओगे? मैं तुमसे यह कहूंगा कि भागना भी नाटक है। जहां तुम जाओगे, वहां भी नाटक है।

तुम संन्यासी भी हो जाओ, तो भी मैं तुमसे कहूंगा: संन्यास भी नाटक है, अभिनय है। वस्त्र ऊपर ही ओढ़ना–आत्मा पर न पड़ जाएं। यह रंग ऊपर ही ऊपर रहे, भीतर ना हो जाए। भीतर तो तुम पार ही रहना। सफेद कपड़े पहनो कि गेरुआ पहनो कि काले पहनो, वस्त्र बाहर ही रहें, भीतर ना आ जाएं।

तुम्हारी आत्मा निर्वस्त्र रहे, नग्न रहे। तुम्हारे चैतन्य पर कोई आवरण न हो। वहां तो तुम मुक्त ही रहो–सब वस्त्रों से, सब आकारों से। तुम्हारा कोई नाम-धाम है, उसे तुम छोड़ कर भाग आओगे–मैं तुम्हें एक नया नाम दे दूंगा, उस नाम से भी दूरी रहे, उस नाम से भी तादात्म्य मत कर लेना। पुराना नाम भी तुम्हारा नहीं था, यह भी तुम्हारा नहीं है–तुम अनाम हो। पुराने से छुड़ाया, क्योंकि उससे तुम्हारे एक होने की आदत बन गई थी; नया दिया, इसलिए नहीं कि अब इसे तुम आदत बना लो, अन्यथा यह भी व्यर्थ हो जाएगा।

अपने को दूर रखने की कला संन्यास है, वैराग्य है। अभिनेता होने की कला संन्यास है, वैराग्य है। जहां तुम कर्ता हुए, वहीं गृहस्थ हो गए। जहां तुम द्रष्टा रहे, वहीं संन्यस्त हो गए।”

कहीं जाना नहीं है। जहां हो वहीं जागना है।

आता है जज्बे दिल को वह अन्दाजे मैकशी
रिंदों में रिंद भी रहें, दामन भी तर न हो।

पीने वालों में पीने वाले भी बन गए, और दामन भी तर न हो। पियक्कड़ों में पियक्कड़ जैसे हो गए, लेकिन बेहोशी न पकड़े, दाग न लगे, जागरण बना रहे। तो संसार में जो चल रहा है–घर है, गृहस्थी है, बच्चे हैं, पत्नी है, पति है–ठीक है।

संसार से भागने का एक ही रास्ता है, वह जागना है। तो जहां हो, वहीं जाग जाओ।

और इस तरह करने लगो जैसे यह सब नाटक है। अगर कोई व्यक्ति इतनी ही याद रख सके कि सब नाटक है, तो और कुछ करने को नहीं बचता। इतना ही करने जैसा है–

आशियां में न कोई जहमत न कफस में तकलीफ
सब बराबर है तबीयत अगर आजाद रहे।

फिर कोई फर्क नहीं पड़ता, घर में कि बाहर, घर में कि कैद में। तबीयत अगर आजाद रहे। और तबीयत की आजादी क्या है? साक्षीभाव तबीयत की आजादी है।

साक्षी पर कोई बंधन नहीं है। साक्षी ही एकमात्र मुक्ति है। जहां तुम कर्ता बने कि तुमने जंजीरें ढालीं। जहां तुमने कहा: मैं कर्ता हूं, बस वहीं तुम कैद में पड़े।

अगर तुम देखते ही रहे, अगर तुमने देखने का सातत्य रखा, अविच्छिन्न धारा रही द्रष्टा की, फिर कोई तुम पर बंधन नहीं है। चैतन्य को न कोई बांधने का उपाय है, न कोई जंजीरें हैं, न कोई दीवाल है।

सब बराबर है, तबीयत अगर आजाद रहे।

— भक्ति सूत्र – Bhakti Sutra by Osho .
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द्रष्टा (यानी भीतर की आँख से) होने का चमत्कार यह है कि जब तुम (आँख बंद करके अपने ) शरीर को देखते हो, तो तुम्हारा द्रष्टा अधिक मजबूत होता है। 

जब तुम अपने विचारों को देखते हो , तो तुम्हारा द्रष्टा और भी मजबूत होता है। 

और जब अनुभूतियों को देखते हो, तो तुम्हारा द्रष्टा फिर और मजबूत होता है। जब तुमअपनी भाव-दशाओं को देखते हो, तो द्रष्टा इतना मजबूत हो जाता है कि स्वयं बना रह सकता है — स्वयं को देखता हुआ, जैसे किअंधेरी रात में जलता हुआ एक दीया न केवल अपने आस-पास प्रकाश करता है, बल्कि स्वयं को भी प्रकाशित करता है!

लेकिन लोग बस दूसरों को देख रहे हैं, वे कभी स्वयं को देखने की चिंता नहीं लेते। हर कोई देख रहा है — यह सबसे उथले तल पर देखना है — कि दूसरा व्यक्ति क्या कर रहा है, दूसरा व्यक्ति क्या पहन रहा है, वह कैसा लगता है। हर व्यक्ति देख रहा है — देखने की प्रक्रिया कोई ऐसी नई बात नहीं है, जिसे तुम्हारे जीवन में प्रवेश देना है। उसे बस गहराना है — दूसरों से हटाकर स्वयं की आंतरिक अनुभूतियों, विचारों और भाव-दशाओं की ओर करना है — और अंततः स्वयं द्रष्टा की ओर ही इंगित कर देना है।

लोगों की हास्यास्पद बातों पर तुम आसानी से हंस सकते हो, लेकिन कभी तुम स्वयं पर भी हंसे हो? कभी तुमने स्वयं को कुछ हास्यास्पद करते हुए पकड़ा है? नहीं, स्वयं को तुम बिलकुल अनदेखा रखते हो — तुम्हारा सारा देखना दूसरों के विषय में ही है, और उसका कोई लाभ नहीं है।

अवलोकन की, अवेयरनेस की इस ऊर्जा का उपयोग अपने अंतस के रूपांतरण के लिए कर लो। यह इतना आनंद दे सकती है, इतने आशीष बरसा सकती है कि तुम स्वप्न में भी नहीं सोच सकते। सरल सी प्रक्रिया है, लेकिन एक बार तुम इसका उपयोग स्वयं पर करने लगो, तो यह एक ध्यान बन जाता है।

किसी भी चीज को ध्यान बनाया जा सकता है!

अवलोकन तो तुम सभी जानते हो, इसलिए उसे सीखने का कोई प्रश्न नहीं है, केवल देखने के विषय को बदलने का प्रश्न है। उसे करीब पर ले आओ। अपने शरीर को देखो, और तुम चकित होओगे।

अपना हाथ मैं बिना द्रष्टा हुए भी हिला सकता हूं, और द्रष्टा होकर भी हिला सकता हूं। तुम्हें भेद नहीं दिखाई पड़ेगा, लेकिन मैं भेद को देख सकता हूं। जब मैं हाथ को द्रष्टा-भाव के साथ हिलाता हूं, तो उसमें एक प्रसाद और सौंदर्य होता है, एक शांति और एक मौन होता है।

तुम हर कदम को देखते हुए चल सकते हो, उसमें तुम्हें वे सब लाभ तो मिलेंगे ही जो चलना तुम्हें एक व्यायाम के रूप में दे सकता है, साथ ही इससे तुम्हें एक बड़े सरल ध्यान का लाभ भी मिलेगा।

ओशो 

ध्यानयोगप्रथम और अंतिम मुक्ति

गुलज़ार का कहना है कि किससे शिकवा करो सब अपनी जगह सही हैं।
गुलज़ार का एक quote

समय के साथ, 20 वर्षों के भीतर, मैं अन्य कृत्यों के दौरान होंश या जागरूकता को लागू करने में सक्षम हो गया, जबकि मुझे बाद में एहसास हुआ कि कई कृत्यों में यह पहले ही स्वतः होने लगा था।

संपूर्णता के साथ जीना, जीवन को एक प्रामाणिक रूप में जीना यानी भीतर बाहर एक और ईमानदारी से जीना, लोगों की बिना भेदभाव के निःस्वार्थ भाव से सेवा करना और सभी बंधनों (धार्मिक, शैक्षिक, जाति, रंग आदि) से मुक्त होना तीन महत्वपूर्ण उत्प्रेरक हैं जो किसी को गहराई तक गोता लगाने में मदद करते हैं।

होंश का प्रयोग मेरे लिए काम करने का तरीका है, (instagram पर होंश) हो सकता है कि आपको भी यह उपयुक्तलगे अन्यथा अधिकांश लोगों के लिए गतिशील ध्यान है। लगभग 500 साल पहले भारतीय रहस्यवादी गोरखनाथद्वारा खोजी गई और ओशो द्वारा आगे संशोधित की गई 110 अन्य ध्यान तकनीकें हैं जिनका प्रयोग किया जा सकताहै और नियमित जीवन में उपयुक्त अभ्यास किया जा सकता है।

नमस्कार ….. मैं अपनी आंतरिक यात्रा के व्यक्तिगत अनुभवों से अपनी टिप्पणियाँ लिखता हूँ। इस पोस्ट में दुनिया भरके रहस्यवादियों की शिक्षाएँ शामिल हो सकती हैं जिन्हें मैं आज भी मानने लायक समझता हूँ। मेरे बारे में अधिकजानकारी के लिए और मेरे साथ सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर जुड़ने के लिए, मेरे सोशल मीडिया लिंक से जुड़ने केलिए वेबसाइट https://linktr.ee/Joshuto पर एक नज़र डालें, या मेरे यूट्यूब चैनल की सदस्यता लें और/यापॉडकास्ट आदि सुनें।

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