भक्ति साकार से शुरू होकर निराकार तक पहुँचे तभी पूर्णता को प्राप्त होती है।

भक्ति को जवानी में साधना कठिन है लेकिन छोटी सी शुरुआत करना अच्छा होता है, लोग बुढ़ापे में इसे साधते हैं।
भक्ति को साधने का सही समय
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ब्रैकेट में मेरे आध्यात्मिक यात्रा के अनुभव से ओशो वार्ता के इस भाग से संदेश को स्पष्ट करने का प्रयास किया है। मेरी भाषा पर पकड़ उतनी अच्छी नहीं है, लेकिन मेरा संदेश लोगों तक पहुँचाने के लिए यह तरीक़ा ईजाद किया है।

पूछा है: ‘भक्ति साकार ही होनी चाहिए।

ओशो :- सभी आकार उसी के हैं। भगवान का अपना कोई आकार नहीं है। तुम भगवान का आकार खोज रहे हो, इसलिए सवाल उठता है कि भगवान साकार क्यों नहीं है। 

वृक्ष में भगवान वृक्ष है, पक्षी में पक्षी है, झरने में झरना है, आदमी में आदमी है, पत्थर में पत्थर है, फूल में फूल है। तुम भगवान का आकार खोज रहे हो, तो चूकते चले जाओगे। 

सभी आकार जिसके हैं, उसका अपना कोई आकार नहीं हो सकता। अब यह बड़े मजे की बात है। इसका अर्थ हुआ, सभी आकार जिसके हैं, वह स्वयं निराकार ही हो सकता है। यह जरा उलटी लगती है बात, सभी आकार जिसके हैं वह निराकार! 

सभी नाम जिसके हैं उसका अपना नाम कैसे होगा? जिसका अपना नाम है उसके सभी नाम नहीं हो सकते। 

सभी रूपों से जो झलका है उसका अपना रूप नहीं हो सकता। 

जो सब जगह है उसे तुम एक जगह खोजने की कोशिश करोगे तो चूक जाओगे। सब जगह होने का एक ही ढंग है कि वह कहीं भी न हो।अगर कहीं होगा तो सब जगह न हो सकेगा। कहीं होने का अर्थ है: सीमा होगी। सब जगह होने का अर्थ है: कोई सीमा न होगी। 

तो परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है। परमात्मा सभी के भीतर बहती जीवन की धार है। वृक्ष में हरे रंग की धार है जीवन की! वृक्ष आकाश की तरफ उठ रहा है–वह उठान परमात्मा है। वृक्ष छिपे हुए बीज से प्रकट हो रहा है–वह प्रकट होना परमात्मा है। परमात्मा अस्तित्व का नाम है। 

परमात्मा ऐसा नहीं है जैसे पत्थर है। परमात्मा ऐसे नहीं है जैसे तुम हो। परमात्मा ऐसा नहीं जैसे कि चांद-तारे हैं। परमात्मा किसी जैसा नहीं, क्योंकि फिर सीमा हो जाएगी। 

अगर परमात्मा तुम जैसा हो, पुरुष जैसा हो, तो फिर स्त्री में कौन होगा? स्त्री जैसा हो तो पुरुष वंचित हो जाएगा। 

मनुष्य जैसा हो तो पशुओं में कौन होगा? और पशुओं जैसा हो तो पौधों में कौन होगा? 

इसे समझने की कोशिश करो। परमात्मा जीवन का विशाल सागर है। हम सब उसके रूप हैं, तरगें हैं। हमारे हजार ढंग हैं। हमारे हजारों ढंगों में वह मौजूद है। और ध्यान रहे कि हमारे ढंग पर ही वह समाप्त नहीं है; वह और भी ढंग ले सकता है। वह कभी भी ढंगों पर समाप्त नहीं होगा। उसकी संभावना अनंत है। तुम ऐसी कोई स्थिति की कल्पना नहीं कर सकते, जहां परमात्मा पूरा-पूरा प्रकट हो गया हो।कितना ही प्रकट होता चला जाए, अनंत रूप से प्रकट होने को शेष है। इसलिए तो उपनिषद कहते हैं, उस पूर्ण से हम पूर्ण को भी निकाललें तो भी पीछे पूर्ण ही शेष रह जाता है।

पूछा है: ‘भक्ति साकार ही होनी चाहिए।’ 

Youth life should be dedicated in search of the truth.
The quote in Osho’s own handwriting

भक्ति तो साकार होगी; भगवान साकार नहीं है। थोड़ी कठिनाई होगी तुम्हें समझने में। क्योंकि शास्त्रों से बंधी हुई बुद्धि को अड़चने हैं।भक्ति तो साकार है; लेकिन भगवान साकार नहीं है। क्योंकि भक्ति का संबंध भक्त से है, भगवान से नहीं है। भक्त साकार है, तो भक्ति साकार है। 

लेकिन भक्ति का अंतिम परिणाम भगवान है। प्रथम तो यात्रा शुरू होती है भक्त से, अंतिम उपलब्धि होती है भगवान पर। शुरू तो भक्त करता है, पूर्णता भगवान करता है। प्रयत्न तो भक्त करता है, प्रसाद भगवान देता है। तुम शुरू करने वाले हो, पूरे करने वाले तुम नहीं हो–पूरा परमात्मा करेगा। 

तो, भक्ति के दो अर्थ हो जाएंगे: जब भक्त शुरू करता है तो वह साकार होती है; फिर जैसे-जैसे भगवान भक्त में उतरने लगता है, निराकार होने लगती है। जब भक्त पूरा मिट जाता है, भक्ति शून्य हो जाती है, निराकार हो जाती है। 

फिर तुम भक्त को बैठ कर मंदिर में घंटी बजाते न देखोगे। फिर अहर्निश उसके प्राणों की धक-धक ही उसकी घंटी है।

भक्त ने शुरू की थी यात्रा, भगवान ने पूरी की। तुम एक हाथ बढ़ाओ, दूसरा हाथ उस तरफ से आता है। इस तरफ का हाथ साकार है, उस तरफ का हाथ निराकार है। 

इसलिए तुम जिद मत करना कि उस तरफ का हाथ भी साकार हो, अन्यथा झूठा हाथ तुम्हारे हाथ में पड़ जाएगा। 

( मीरा के साथ यही हुआ। मीरा को जब ससुराल, यानी चित्तौड़ के क़िले, से बाहर निकाल दिया गया तो स्वाभाविक ही वह मायके चलीगई। लेकिन उस समय मायके में स्त्री का रहना किसी कलंक से भी ज़्यादा बात थी 

तो समाज और पास पड़ोस के लोगों ने उसके पिता को शिकायत करी, कि इस प्रकार तो सभी की लड़कियाँ मायके आने लग जायेंगी और समाज की व्यवस्था ही नष्ट हो जाएगी। मीरा केमाता पिता को दिल पर पत्थर रखकर उसको घर से जाने का बोलना पड़ा। तो मीरा गाँव गाँव भटकते भटकते किसी के कहने पर नाथद्वारा  पहुँची। और तब वहाँ रैदास का आश्रम हुआ करता था। और 90 शिष्य उसके साथ आत्मज्ञान या सत्य को जानने की राह पर थे। 

मीरा ने जब रैदास से उसको अपना शिष्य के रूप में स्वीकार करने का निवेदन किया। और उस समय महिलाओं को संन्यास की दीक्षादेने का भी चलन नहीं था तो सारे 90 शिष्यों ने मिलकर रैदास को कहा कि यदि मीरा को शिष्य के रूप में स्वीकार किया तो आप गुरुकहलाने के लायक़ ही नहीं रह जाओगे और हमको आपके आश्रम को छोड़ना पड़ेगा। 

इस पर रैदास ने उनको कहा कि मुझे मीरा की आँखों में ईश्वर भक्ति की जो चमक दिखाई देती है उसका तुममें अभाव है।और उसको शिष्य के रूप में स्वीकार करने के लिए यदि मुझे तुमको त्यागना भी हो तो मैं सिर्फ़ एक मीरा जैसे शिष्य को रखना पसंद करूँगा। 

मीरा को रैदास ने जो गुरु मंत्र दिया वह था ‘पायो जी मैंने राम रतन धन पायो’। और मीरा धक से खड़ी रह गई, उसने गुरु से निवेदनकिया कि सबको छोड़ कर मुझे स्वीकारते हो और मंत्र ऐसा देते हो कि मैं उसको साधना तो ठीक एक बार उसको मन में दोहरा भी नहींसकती। कृष्ण के सिवा मैं और कोई को नहीं याद कर सकती और गुरु मंत्र का तो लगातार सुमिरन करना होता है। यह असंभव होगा मेरे लिए। 

लेकिन रैदास ने कहा मंत्र तो यही निकला है तुमको देखकर अब इसको बदला नहीं जा सकता। निराश मीरा ने जैसे तैसे भारी मन सेबिना राम नाम लिए मंत्र को साधना शुरू किया। और एक दिन रोते रोते  भागती हुई आयी और रैदास के चरणों में गिर पड़ी। और कहाभारी भूल हुई जो आपको ग़लत समझा। 

अरे जब सब जगह कृष्ण हैं तो राम भी कृष्ण का एक रूप ही तो होंगे! मेरे कृष्ण का असली रूप तो निराकार है और जब वह दिखा तभीसमझ सकी। राम को नकारते नकारते भी राम को ही रटा और तब भी मैं कृष्ण को ही रट रही थी, नहीं तो दिखते कैसे निराकार में भी?

किसी भी रूप में विष्णु को या शिव को मानने वाले, वल्लभ हो या राधास्वामी हो, राधा को मानने वाले भक्ति करें तो ध्यान रहे कि कट्टरता से दूर रहें और भक्ति में आगे जाने के लिए मूर्त का त्याग करने की हिम्मत दिखाएं। क्योंकि कब संगठित धर्म आपके स्वधर्म के राह में सहयोगी है और कब वही बाधा बन जाता है इसको समझने के लिए ऊँचे दर्जे की बुद्धिमानी चाहिये। और हिम्मत चाहिए उसको समझने के बाद स्वधर्म के लिए सबका त्याग करके अकेले आगे बढ़ने के लिए। सत्य की राह में कोई अकेला कभी नहीं होता। जो सत्य की, स्वधर्म की राह पर अकेले चलने की हिम्मत करते हैं उनकी ईश्वर सदा रक्षा करता है।

मेरी आत्मज्ञान की यात्रा में मीरा का बड़ा योगदान रहा। मेवाड़ में मीरा के मंदिर से यात्रा शुरू हुई, नाथद्वारा में मीरा के मंदिर पर विश्राम लिया और चित्तौड़गढ़ पर मीरा समान महिला के साथ दर्शन के बाद ही संपन्न हुई।) 

ओशो:- इसलिए भक्ति में तुम जिद मत करना कि उस तरफ का हाथ भी साकार हो, अन्यथा झूठा हाथ तुम्हारे हाथ में पड़ जाएगा। 

फिर तुम्हारे ही दोनों हाथ होंगे। इधर से भी तुम्हारा, उधर से भी तुम्हारा। 

उधर से आने वाला हाथ तो निराकार है, निर्गुण है। निर्गुण का यह मतलब नहीं है कि परमात्मा में कोई गुण नहीं है। निर्गुण का इतना ही मतलब है कि सभी गुण उसके हैं। इसलिए कोई विशेष गुण उसका नहीं हो सकता। 

निराकार का यह अर्थ नहीं कि उसका कोई आकार नहीं है; सभी आकार जो कभी हुए, जो हैं, और जो कभी होंगे, उसी के हैं। तरल हैं! सभी आकारों में ढल जाता है। किसी आकार में कोई अड़चन नहीं पाता। भक्त की तरफ से तो भक्ति साकार होगी, लेकिन जैसे-जैसे भक्त परमात्मा के करीब पहुंचेगा वैसे-वैसे निराकार होने लगेगी। और एक पड़ाव ऐसा आता है, जहां भक्त की तरफ से सब प्रयास समाप्त हो जाते हैं। 

क्योंकि प्रयास भी अहंकार है। मैं कुछ करूंगा तो परमात्मा मिलेगा, इसका तो अर्थ हुआ कि मेरे करने पर उसका मिलना निर्भर है। इसका तो यह अर्थ हुआ कि यह भी एक तरह की कमाई है। इसका तो यह अर्थ हुआ कि अगर मैंने सिक्के मौजूद कर दिए तो मैं उसको वैसे ही ख़रीद कर ले आऊंगा जैसे बाजार से किसी और सामान को खरीद कर ले आता हूं–पुण्य के सिक्के सही, भक्ति-भाव के सिक्के सही।नहीं, ऐसा नहीं है। मैं सब भी पूरा कर दूं तो भी उसके होने की कोई अनिवार्यता नहीं है। मेरे सब करने पर भी वह नहीं मिलेगा, जब तक कि मेरा ‘करने वाला’ मौजूद है। 

With acceptance of the faults the person becomes ready to learn from the mistake. Then he has not committed any fault.
Only those will transcend this world who have courage to accept their faults.

तो भक्त पहले करने से शुरू करता है। बहुत करता है, बहुत रोता है, बहुत नाचता है, बहुत याद करता है, बहुत तड़फता है; फिर धीरे-धीरेउसे समझ में आता है कि मेरी तड़फन में भी मेरी अस्मिता छिपी है; मेरी पुकार में भी मेरा अहंकार है; मेरे भजन में भी मैं हूं; मेरे कीर्तन में भीमेरी छाप है; कर्तृत्व मौजूद है! 

जिस दिन यह समझ आती है, उस दिन भक्त मिट जाता है; उस दिन जैसे किसी ने दर्पण गिरा दिया और कांच के टुकड़े-टुकड़े हो गए; उस दिन भक्त नहीं रह जाता। जिस दिन भक्त नहीं रह जाता, भक्ति कौन करे! कौन मंदिर जाए! कौन मंत्रोच्चार करे! कौन विधि-विधानपूरा करे! एक गहन सन्नाटा घेर लेता है! 

उसी सन्नाटे में दूसरा हाथ उतरता है। तुम मिटे नहीं कि परमात्मा आया नहीं! तुमने सिंहासन खाली किया कि वह उतरा! तुम्हारी शून्यता मेंही उसके आगमन की संभावना है।

भक्त अपने को भक्त समझता है, यह भी उसकी भ्रांति है; जिस दिन जानेगा उस दिन अपने को भगवान पाएगा। सब आकार स्वप्नवत हैं।निराकार सत्य है; आकार स्वप्न है। लेकिन हम जहां खड़े हैं, वहां आकारों का जगत है। हम अभी स्वप्न में ही पड़े हैं। 

हमें तो जागना भी होगा तो स्वप्न में ही थोड़ी यात्रा करनी पड़ेगी। (कमरे से बाहर जाने के लिए भी थोड़ी यात्रा तो कमरे में ही करनी होतीहै बस उतनी यात्रा तो साकार में ही करनी होती है) इसलिए भक्ति साकार ही होनी चाहिए–होती ही है। 

निराकार भक्ति हो नहीं सकती, क्योंकि निराकार में करने को क्या रह जाता है, करने वाला नहीं रह जाता! भक्ति तो साकार ही होगी, लेकिन भगवान निराकार है। इसलिए एक न एक दिन भक्ति भी जानी चाहिए। भक्ति की पूर्णता पर भक्ति भी चली जाती है। 

प्रार्थना जब पूर्ण होती है तो प्रार्थना भी चली जाती है। 

ध्यान जब पूर्ण होता है तो ध्यान भी व्यर्थ हो जाता है–हो ही जाना चाहिए। 

जो चीज भी पूर्ण हो जाती है वह व्यर्थ हो जाती है। जब तक अधूरी है तब तक ठीक है–मंदिर जाना होगा, पूजा करनी होगी। करना, लेकिन याद रखना, कहीं यह न भूल जाए कि यह सिर्फ शुरुआत है। यह जीवन की पाठशाला की शुरुआत है, अंत नहीं है। यहबारहखड़ी है, क ख ग है। 

छोटे बच्चों की किताबें देखी हैं। कुछ भी समझाना हो तो चित्र बनाने पड़ते हैं, क्योंकि छोटा बच्चा चित्र ही समझ सकता है। आम तो छोटेमें लिखो, आम का बड़ा चित्र बनाओ। पूरा पन्ना आम के चित्र से भरो, कोने में आम लिखो। क्योंकि पहले वह चित्र देखेगा, तब वह शब्दको समझेगा। 

ऐसा ही भक्त है। भगवान! ‘भगवान’ तो कोने में रखो, बड़ी मूर्ति बनाओ, खूब सजाओ। अभी भक्त बच्चा है। अभी उस खाली कोने में जोभगवान है वह उसे दिखाई न पड़ेगा। 

तुमने कभी गौर किया? मंदिर गए हो? जहां मूर्ति है वहां तो भगवान हैं; लेकिन खाली जगह जो मूर्ति को घेरे हुए है, वहां भगवान दिखाईपड़ा? वहां भी भगवान है; तुम्हें नहीं दिखाई पड़ा, क्योंकि तुम्हें मूर्ति चाहिए। बचपना है अभी! 

मंदिर में भगवान दिखाई पड़ा; मंदिर के बाहर कौन है? मंदिर की दीवालों को कौन छू रहा है? सूरज की किरणों में किसने मंदिर कीदीवालों पर थाप दी है? हवाओं में कौन मंदिर के आस-पास लहरें ले रहा है? मंदिर की सीढ़ियों पर चढ़ते हुए भक्तों के भीतर कौनसीढ़ियां चढ़ रहा है? वहां तुम्हें अभी नहीं दिखाई पड़ा। अभी बचकाना है मन। अभी चित्र चाहिए, मूर्ति चाहिए। 

साकार से शुरुआत करनी होती है, लेकिन साकार पर रुक मत जाना। मैं यह नहीं कहता हूं कि साकार की शुरुआत ही मत करना। नहींतो बच्चा भाषा कभी सीखेगा ही नहीं। वह सीखने का ढंग है, बिलकुल जरूरी है। अड़चन वहां शुरू होती है जहां तुम पहले पाठ को हीअंतिम पाठ समझ कर बैठ जाते हो। 

सीख लेना और मुक्त हो जाना! जो भी सीख लो, उससे मुक्ति हो जाती है। आगे चलो! मूर्ति में देख लिया–अब अमूर्त में देखो! आकार मेंदेख लिया–अब निराकार में देखो! शब्द में सुन लिया–अब निःशब्द में सुनो! शास्त्र में पहचान लिया–अब मौन में, शून्य में चलो! परजल्दी भी मत करना। 

अगर मंदिर में ही न दिखा हो तो मंदिर के बाहर तो दिख ही न सकेगा। जल्दी भी मत करना। आदमी का मन अति पर बड़ी आसानी सेचला जाता है।

तो इस देश में तो बड़ी अतियां हुईं। इसमें एक तरफ ( मुसलमान) लोग हैं जो कहते हैं, परमात्मा निराकार है। वे किसी तरह की मूर्ति कोबरदाश्त न करेंगे, किसी तरह की पूजा को बरदाश्त न करेंगे। मुसलमानों ने यही रुख पकड़ लिया, तो मूर्तियों को तोड़ने पर उतारू होगए। अब थोड़ा सोचो! पूजा के योग्य तो मूर्ति नहीं है, लेकिन तोड़ने के योग्य है! इतने में तो पूजा ही हो जाती। 

जब परमात्मा की कोई मूर्ति ही नहीं है तो तोड़ने का भी क्या प्रयोजन? तोड़ने में भी क्यों श्रम लगाते हो? 

अति होती है: या तो पूजा करेंगे, या तोड़ेंगे। समझ नहीं है अति के पास कोई। 

तो एक तरफ हैं जो जिद किए जाते हैं कि परमात्मा निराकार है। ठीक कहते हैं, बिलकुल ठीक ही कहते हैं, परमात्मा निराकार है। लेकिनआदमी उस जगह नहीं है अभी, जहां से निराकार से संबंध जुड़ सके। आदमी अभी निराकार के योग्य नहीं है। 

होगा बुद्ध के लिए, पर आदमी बुद्ध कहां? होगा महावीर के लिए, लेकिन किससे बातें कर रहे हो? 

जिससे बातें कर रहे हो, उसकी भी तो सोचो। दया करो इस पर। तुम परम स्वस्थ लोगों की बातें अस्पताल में पड़े बिमारों से कर रहे हो! बुद्ध को जरूरत नहीं है, लेकिन जिसको तुम समझा रहे हो, उसको? उस पर ध्यान करो, करुणा करो थोड़ी।

भक्ति सूत्र – Bhakti Sutra by Osho . #10 परम मुक्ति है भक्ति
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“इल्म के जहल से बेहतर है कहीं जहल का इल्म 

मेरे दिल ने ये दिया दर्से-बसीरत मुझको। 

ज्ञान की मूढ़ता की बजाय, (अपनी) मूढ़ता का ज्ञान बेहतर है, यह परम ज्ञान मेरे दिलने मुझे दिया। 

इल्म के जहल से बेहतर है कहीं जहल का इल्म 

ज्ञान की मूढ़ता की बजाय, (अपनी) मूढ़ता का ज्ञान बेहतर है। 

मेरे दिल ने ये दिया दर्से-बसीरत मुझको। 

यह परम ज्ञान मैंने अपने ही भीतर पाया। वेद या कुरान या बाइबिल, कोई भी शास्त्र–वेद यानी सारे शास्त्र–शब्दजाल हैं। उनसे तृप्तमत हो जाना। उनसे जो तृप्त हुआ, वह मूढ़ है। 

वह कितना ही ज्ञानी हो जाए, उसकी मूढ़ता नहीं मिटती; उसकी मूढ़ता भीतर रहती है, पांडित्य का बाहर से आवरण हो जाता है। 

‘वेदों का जो भलीभांति त्याग कर देता है और जो अखंड असीम भगवदप्रेम प्राप्त कर लेता है।’ 

जोर है प्रेम पर, ज्ञान पर नहीं। 

जान कर क्या होगा? जानने में तो दूरी बनी रहती है। 

भक्त कहता है, भगवान को जानना नहीं है, भगवान होना है। जानने से क्या होगा? भगवान को पीना है। भगवान को उतारना है अपने में।भगवान में उतर जाना है। दूरी मिटानी है। 

शास्त्र तो बीच में दीवालें बन जाते हैं। जितना ज्यादा तुम जानने लगते हो उतना ही अहंकार प्रगाढ़ होता है। और अहंकार तो बाधा है प्रेममें; उसे तो छोड़ना होगा। धन का अहंकार ही नहीं, ज्ञान का अहंकार भी छोड़ना होगा। 

जानने वाले को मिटा ही देना है। 

कोई भीतर ‘मैं’ भाव ही न रह जाए। 

तुम एक (अहंकार से) शून्य हो जाओ। 

उसी शून्य में प्रेम के कमल खिलते हैं–शून्य की झील पर प्रेम के कमल! 

(संसार कीचड़ है और उसमें हर व्यक्ति उसके प्रेम की निशानी है और सारे कमल होने की बराबर पात्रता रखते हैं और ईश्वर के शून्य कीझील है, और अहंकार शून्य होकर हो झील के शून्य से मिलना हो सकता है और उसकी झील के पानी से ही प्रेमी की , भक्त की प्यासबुझ सकती है) 

और कोई झील नहीं है जहां प्रेम के कमल खिलते हों। 

तुम मिट जाओ कीचड़ में, तो ही कमल खिलते हैं। तुम्हारी कीचड़ (अहंकार) से ही कमल उठते हैं। 

‘जो वेदों को भलीभांति परित्याग कर देता है और जो अखंड असीम भगवदप्रेम को प्राप्त कर लेता है, वह तरता है। वह तरता है, यही नहीं, वह लोगों को भी तार लेता है।’ 

वह एक नाव बन जाता है। खुद तो तरता ही है, लेकिन इतना ही नहीं कि खुद तरता है, औरों को भी तार देता है, तारण तरण हो जाता है; तारता भी, तरता भी! उसके सहारे न मालूम कितने लोग तर जाते हैं। 

जिसके जीवन में प्रेम का फूल खिला, वह न मालूम कितने भौरों को आकर्षित कर लेता है। 

जिसके जीवन में प्रेम का गीत उठा, न मालूम कितने कंठों में गुनगुनाहट शुरू हो जाती है। 

घटे अगर तो बस एक मुश्ते-खाक है इन्सां 

बढ़े तो बुसअते कौनेन में समा न सके। 

घटे तो आदमी है क्या? एक मुट्ठी भर राख! 

घटे अगर तो बस एक मुश्ते-खाक है इन्सा 

बढ़े तो बुसअते कौनेन में समा न सके। 

और अगर बढ़े तो सारे लोग भी छोटे पड़ जाते हैं, समा न सके। दोनों लोक भी छोटे पड़ जाते हैं। आदमी छोटे से छोटा भी हो सकता है।मन उसे संकीर्ण से संकीर्ण कर देता है। 

आदमी विराट से विराट भी हो सकता है–मन की दीवाल भर टूट जाए, मन का कारागृह न हो। 

घटे अगर तो बस एक मुश्ते-खाक है इन्सां 

बढ़े तो बुसअते कौनेन में समा न सके। 

मन कारागृह है; ध्यान मुक्ति है। काम कारागृह है; प्रेम मुक्ति है। वेद, शास्त्र कारागृह हैं; भक्ति मुक्ति है।”

— भक्ति सूत्र, ओशो #११ शून्य की झील में प्रेम के कमल

जब हम होंश में नहीं होते तो हम स्मृतिभ्रंश की स्थिति में होते हैं। ओशो नारद के भक्ति सूत्र पर प्रवचन देते हुए इन दोनों को प्रयोग करके समझने को कहते हैं :-

‘स्मृतिभ्रंश’ बड़ा महत्वपूर्ण शब्द है।

बुद्ध ने जिसे सम्यक-स्मृति कहा है, यह उसकी विपरीत अवस्था है–स्मृतिभ्रंश।

जिसे कृष्णमूर्ति अवेयरनेस कहते हैं, होश कहते हैं–स्मृतिभ्रंश उसकी विपरीत अवस्था है।

जिसको गुरजिएफ ने सेल्फ-रिमेंबरिंग कहा है, आत्म-स्मरण–स्मृतिभ्रंश उसकी विपरीत अवस्था है।

जिसको नानक ने, कबीर ने सुरति कहा है–स्मृतिभ्रंश उसकी उलटी अवस्था है। सुरति स्मृति का ही रूप है।

सुरतियोग (awareness meditation) का अर्थ है: स्मृतियोग–ऐसे जीना कि होश रहे; प्रत्येक कृत्य होशपूर्ण हो; उठो तो जानते हुए; बैठो तो जानते हुए।

एक छोटा सा प्रयोग करो।

आज जब तुम्हें फुरसत मिले घंटे भर की, तो अपने कमरे में बैठ जाना द्वार बंद करके और एक क्षण को सारे शरीर को झकझोर कर होश को जगाने की कोशिश करना–बस एक क्षण को कि तुम बिलकुल परिपूर्ण होश से भरे हो। बैठे हो, आस-पास आवाज चल रही है, सड़क पर लोग चल रहे हैं, हृदय धड़क रहा है, श्वास ली जा रही है–तुम सिर्फ होश मात्र हो–एक क्षण के लिए।

सारी स्थिति के प्रति होश से भर जाना; फिर उसे भूल जाना; फिर अपने काम में लग जाना।

फिर घंटे भर बाद फिर दुबारा कमरे में जाकर, फिर द्वार बंद करके, फिर एक क्षण को अपने होश को जगाना–तब तुम्हें एक बात हैरान करेगी कि बीच का जो घंटा था, वह तुमने बेहोशी में बिताया; तब तुम्हें अपनी बेहोशी का पता चलेगा कि तुम कितने बेहोश हो।

पहले एक क्षण को होश को जगा कर देखना, झकझोर देना अपने को; जैसे तूफान आए और झाड़ झकझोर जाए, ऐसे अपने को झकझोर डालना, हिला डालना।

एक क्षण को अपनी सारी शक्ति को उठा कर देखना–क्या हूं, कौन हूं, कहां हूं! ज्यादा देर की बात नहीं कर रहा हूं, क्योंकि एक क्षण से ज्यादा तुम न कर पाओगे। इसलिए एक क्षण काफी होगा।

बस एक क्षण करके बाहर चले जाना, अपने काम में लग जाना–दुकान है, बाजार है, घर है–भूल जाना। जैसे तुम साधारण जीते हो, घंटे भर जी लेना। फिर घंटे भर बाद कमरे में जाकर फिर झकझोर कर अपने को देखना।

तब तुम्हें तुलनात्मक रूप से पता चलेगा कि ये दो क्षण अगर होश के थे, तो बीच का घंटा क्या था?

तब तुम तुलना कर पाओगे। मेरे कहने से तुम न समझोगे; क्योंकि होश को मैं समझा सकता हूं शब्दों में, लेकिन होश तो एक स्वाद है।

मीठा, मीठा, मीठा कहने से कुछ न होगा। वह तो तुम्हें मिठाई का पता है, इसलिए मैं मीठा कहता हूं तो तुम्हें अर्थ पता हो गया।

मैं कहूं स्मृति, सुरति उससे कुछ न होगा; उसका तुम्हें पता ही नहीं है।

तो तुम यह भी न समझ सकोगे कि स्मृतिभ्रंश क्या है।

होश को जगाना क्षण भर को, फिर घंटे भर बेहोश; फिर क्षण भर को होश को जगा कर देखना–तुम्हारे सामने तुलना आ जाएगी; तुम खारे और मीठे को पहचान लोगे। वह जो घंटा बीच में बीता, स्मृतिभ्रंश है। वह तुमने बेहोशी में बिताया–जैसे तुम थे ही नहीं, जैसे तुम चले एक यंत्र की भांति; जैसे तुम नशे में थे–और तब तुम्हें अपनी पूरी जिंदगी बेहोश मालूम पड़ेगी।

मन बेहोशी है, स्मृतिभ्रंश है। -भक्ति सूत्र, #११ शून्य की झील में प्रेम का कमल है भक्ति, ओशो

मेरे अनुभव से कुछ सुझाव जो आपको मूर्त से अमूर्त की राह लेते समय हिम्मत से निर्णय लेने में मददगार साबित होंगे। क्योंकि ध्यान और भक्ति दोनों के पक्षी के पंखों समान उपयोग पर ही आजकल के सोशल मीडिया के युग मोक्ष संभव है। अन्यथा उलझाव के अनंत बहाने तो जैसे बिखरे पड़े हैं। पाप अनंत होते हैं, सत्य की राहें भी अनेक हैं लेकिन जीवन छोटा है इसलिये किसी के भी अनुभव के आधार पर प्रयोग करने में ही उस एकमात्र सत्य को जाना जा सकता है।

मैंने जो होंश का प्रयोग अपने जीवन में किया तो एक दिन एक क्षण को होंश सधा, उसके बाद समय के साथ, 20 वर्षों के भीतर, मैं अन्य कृत्यों के दौरान होंश या जागरूकता को लागू करने में सक्षम हो गया, जबकि मुझे बाद में एहसास हुआ कि कई कृत्यों में यह पहले ही स्वतः होने लगा था।

संपूर्णता के साथ जीना, जीवन को एक प्रामाणिक रूप में जीना यानी भीतर बाहर एक और ईमानदारी से जीना, लोगोंकी बिना भेदभाव के निःस्वार्थ भाव से सेवा करना और सभी बंधनों (धार्मिक, शैक्षिक, जाति, रंग आदि) से मुक्त होनातीन महत्वपूर्ण उत्प्रेरक हैं जो किसी को गहराई तक गोता लगाने में मदद करते हैं।

होंश का प्रयोग मेरे लिए काम करने का तरीका है, (instagram पर होंश) हो सकता है कि आपको भी यह उपयुक्त लगे  अन्यथा अधिकांश लोगों के लिए गतिशील ध्यान है। लगभग 500 साल पहले भारतीय रहस्यवादी गोरखनाथ द्वारा खोजी गई और ओशो द्वारा आगे संशोधित की गई 110 अन्य ध्यान तकनीकें हैं जिनका प्रयोग किया जा सकताहै और नियमित जीवन में उपयुक्त अभ्यास किया जा सकता है।

नमस्कार ….. मैं अपनी आंतरिक यात्रा के व्यक्तिगत अनुभवों से अपनी टिप्पणियाँ लिखता हूँ। इस पोस्ट में दुनिया भरके रहस्यवादियों की शिक्षाएँ शामिल हो सकती हैं जिन्हें मैं आज भी मानने लायक समझता हूँ। मेरे बारे में अधिकजानकारी के लिए और मेरे साथ सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर जुड़ने के लिए, मेरे सोशल मीडिया लिंक से जुड़ने केलिए वेबसाइट https://linktr.ee/Joshuto पर एक नज़र डालें, या मेरे यूट्यूब चैनल की सदस्यता लें और/यापॉडकास्ट आदि सुनें।

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मेरे सुझाव:- 

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