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बचपन में हम सभी छोटी छोटी बातों पर इतने आनंद क्यों होते थे? बचपन में हमको कोई भी काम करने में क्यों बहुत आनंद होता था? खेलने में हार और जीत क्यों महत्वपूर्ण नहीं थी? झगड़े के बाद फिर से गहरी दोस्ती क्यों हो जाती थी?
इन सब प्रश्नों का उत्तर एक ही है कि बचपन में हम कोई भी कार्य करते हों हमारा होंश ‘सतत्’ बना रहता था। इस किसी भी काम को होंश पूर्वक करने को ही महावीर ने ‘जागते रहो’ या सजग बने रहो या जाग्रत रहो कहा है। मैंने भी अपने कई पोस्ट में इस जगाने या होंश में रहने, ध्यानपूर्वक काम को करने का वर्णन किया है। क्योंकि मुझे इससे ही संसार में रहकर संसार से बाहर के अनुभव हुए।
जिन सूत्र पर अपने मुख से महावीर को बोलते ओशो ने अपने को बहुत ही धन्य महसूस किया होगा। उनके प्रवचनों में मुझे यह सबसे अधिक पसंद है क्योंकि महावीर के बाद 2500 वर्षों में आये क़रीब क़रीब सभी संतों ने इसका वर्णन अलग अलग शब्दों में किया है। जीसस ने इसे ‘beware’ यानी be-aware यानी होंश में रहो। बुद्ध ने इसे सम्मासती कहा। कबीर ने कहा “साधो सहज समाधि भली” इसमें जो सहज ही हमको करना आसान हो, उसी को महावीर जागते रहो कहते हैं। इसी को सहज योग कहा किसी ने, तो किसी ने सहज ध्यान कहा। अरब की द बुक ऑफ़ मिरदाद में एक पात्र जो सहजता से सभी की सेवा करता है, एक दिन सबका नेता हो जाता है। अष्टावक्र ने इसे अपने मन, शरीर का दृष्टा या साक्षी होना कहा। कृष्णमूर्ति ने इसे अवलोकन या observe yourself या observer कहा।
जिन सूत्र पर अपने मुख से महावीर को बोलते हुए ओशो कहते हैं :- “जो करना है जरूरी, वह करना। फिर साक्षी-भाव रखना। शरीर की जरूरत पूरी कर देनी है। जरूरत से ज्यादा की आकांक्षा नहीं करनी है। मूल जरूरत पर रुक जाना है। और जो भी हो रहा है, उसके प्रति साक्षी-भाव रखना है।
“धीर पुरुष अकर्म के द्वारा कर्म का क्षय करते हैं। मेधावी पुरुष लोभ और मद से अतीत तथा संतोषी होकर पाप नहीं करते।’-जिन सूत्र
मेधावी! महावीर उन्हीं को मेधावी कहते हैं, इंटेलीजेंट, जो साक्षी होने में समर्थ हैं। और मेधा मेधा नहीं।
जिसको तुम मेधावी कहते हो, वह तुम जैसा ही है–मूर्च्छित। हो सकता है, किसी दिशा में कुशल है। कोई तकनीक उसने सीख लिया है। तुम कहते हो, कोई चित्रकार है बड़ा मेधावी; क्योंकि तुम जैसा चित्र बनाते हो, उससे बहुत अच्छा चित्र बनाता है।
लेकिन जीवन का चित्र तो तुम जैसा बना रहे हो, वैसा ही वह भी बना रहा है।
तुम कहते हो, कोई कवि है, बड़ा मेधावी। क्योंकि जो तुम नहीं कह सकते, जो तुम नहीं गा सकते, वह गा देता है। ठीक है।
लेकिन जीवन का अंतिम चित्र तो तुम्हारे जैसा ही वह बना रहा है। उसमें कोई फर्क नहीं है। क्रोध तुम्हें है, उसे है। लोभ तुम्हें है, उसे है। मत्सर तुम्हें घेरता है, उसे घेरता है।
महावीर कहते हैं, जिसने जीवन के चित्र को और जीवन के गीत को सम्हाल लिया, जिसने वहां बुद्धिमत्ता का उपयोग कर लिया, वही मेधावी है; बाकी सब मेधा तो कहने की मेधा है।
लज्जते-दर्द के ऐवज, दौलते-दो जहां न लूं।
दिल का सकून और है, दौलते-दो जहां है और।।
सारे संसार की संपत्ति भी मिलती हो उस आदमी को जिसने थोड़े मन की शांति जानी, तो वह लेने को राजी न होगा। दो लोकों की भी संपत्ति मिलती हो..।
लज्जते-दर्द के ऐवज दौलते-दो जहां न लूं।
यह जो सत्य की खोज में पीड़ा उठानी पड़ती है, इस पीड़ा के बदले भी अगर दुनिया की सारी संपत्ति मिलती हो, दोनों दुनिया की मिलती हो, तो भी न लूं।
दिल का सकून और है, दौलते-दो जहां है और।।
वह दिल की शांति कुछ बात और है। वह कुछ संपदा और है। एक बार जिसके मन में उसकी भनक पड़ गई, फिर सब फीका हो जाता है।
मेधावी पुरुष लोभ के कारण धर्म नहीं करता। कोई स्वर्ग पाने के लिए धर्म नहीं करता, न भय के कारण, नर्क से बचने के लिए धर्म नहीं करता।
मेधावी पुरुष तो पाता है कि जितना-जितना जागरण आता है, उतना-उतना आनंद आता है। जागरण में ही छिपा है आनंद।
आनंद जागरण का फल नहीं है; आनंद जागरण का स्वभाव है। ऐसा नहीं है कि पहले जागरण मिलता है, फिर आनंद मिलता है–जागरण में ही मिल जाता है। इधर तुम जागते चले जाते हो, उधर आनंद की नई-नई पुलक, नई-नई किरण, नया-नया नृत्य भीतर होने लगता है।
इस अहद में कमयाबिए-इन्सां है कुछ ऐसी।
लाखों में बामुश्किल कोई इन्सां नज़र आया।।
लाखों लोग हैं, आदमी कहां! लाखों आदमियों में कभी एक-आध आदमी नजर आता है। क्योंकि आदमी का जो बुनियादी लक्षण है, जागरण, वह दिखाई नहीं पड़ता।
पशु हैं, उन्हें भी भूख लगती है तो खोजते हैं; कामवासना जगती है तो कामवासना की तृप्ति करते हैं।
पशुओं को भी लोभ दे दो तो राजी हो जाते हैं, भय दे दो तो राजी हो जाते हैं।
कुत्ते को मारो-पीटो तो जैसा करतब करना हो, कर देगा। लोभ दो, रोटी के टुकड़े डालो, तो तुम्हारे पीछे जी-हजूरी करता फिरेगा।
अगर मनुष्य भी ऐसे ही लोभ और भय के बीच ही आंदोलित हो रहा है, तो फिर मनुष्य और पशु में भेद क्या है?
मनुष्यता उसी दिन प्रारंभ होती है जिस दिन तुम्हारी वृत्तियों से पीछे एक जागरण का स्वर, एक जागरण का स्रोत पैदा होता है। जागते ही तुम मनुष्य बनते हो, उसके पहले नहीं।
और ऐसा भी नहीं है कि कभी-कभी तुम न जागते होओ। ऐसा भी नहीं है कि जागने के क्षण कभी-कभी अचानक न आ जाते हों। क्योंकि जो तुम्हारा स्वरूप है, उसकी झलक कभी-कभी मिल ही जाती है। कितने ही आकाश में बादल घिरें, आकाश कभी न कभी दो बादलों के बीच से दिखाई पड़ ही जाता है।
तो खयाल रखना, तुम भी कभी-कभी जागते हो; हालांकि तुम उसका कोई हिसाब नहीं रखते, क्योंकि तुम प्रत्यभिज्ञा नहीं कर पाते कि यह क्या है। तुम उसे कुछ और-और नाम दे देते हो।
कभी ऐसा होता है कि अचानक खड़े हो तुम, सुबह का सूरज ऊगा, पक्षियों ने गीत गाया–और एक बड़ी गहरी शांति और सुकून तुम्हें मिला! तुम सोचते हो शायद सुबह के सौंदर्य के कारण, सूरज के कारण, पक्षियों के गीत के कारण। नहीं।
यद्यपि पक्षियों के गीत, सुबह के सूरज और खुले आकाश ने वातावरण दिया, उस वातावरण में क्षणभर को तुम अवाक रह गये, क्षणभर को विचारधारा बंद हो गई, क्षणभर को बादल यहां-वहां न हिले, बीच में से थोड़ा-सा आकाश, भीतर का आकाश दिखाई पड़ गया।
कभी किसी के प्रेम में मन शांत हो गया। कभी संगीत सुनते समय। कोई कुशल वीणा-वादक वीणा बजाता हो और उसके तार बाहर कंपते रहे और भीतर, तुम्हारे भीतर भी कुछ कंपा; वीणा बंद हुई, तुम्हारे भीतर भी कुछ क्षणभर को बंद हो गया। एक गहन शांति तुम्हें अनुभव हुई।
लेकिन तुम सोचोगे, शायद यह वीणा-वादक की कुशलता के कारण है। यद्यपि उसने निमित्त का काम किया, लेकिन वस्तुतः घटना तुम्हारे भीतर घटी।
ऐसे जीवन में तुम्हें कई बार क्षण मिलते हैं; लेकिन तुम उनके कारण गलत समझ लेते हो।
जब भी तुम्हें शांति मिलती है तो भीतर कुछ प्रकाश पैदा होता है, उसके कारण ही मिलती है।
एक बार यह समझ में आ जाये तो फिर तुम बाहर के कारणों को नहीं जुटाते; फिर तुम भीतर की ही जागृति को सम्हालने में लग जाते हो।
ऐ काश हो यह जज्बएत्तामीर मुस्तकिल।
चौंके तो हैं खराबिए-ख्वाबे-गरां से हम।।
काश! निर्माण का यह अवसर थोड़ा स्थायी हो जाये। गहरी नींद से चौंके तो हैं, लेकिन फिर कहीं हम नींद में न खो जायें।
ऐसा रोज होता है। तुम्हारी नींद भी टूटती है, लेकिन फिर तुम नींद में खो जाते हो।
ऐ काश हो यह जज्बएत्तामीर मुस्तकिल
चौंके तो हैं खराबिए-ख्वाबे-गरां से हम।
हो सकती है। यह निर्माण की क्षणभर को आई हुई दशा स्थायी हो सकती है।
लेकिन तुम्हें स्थायी करनी पड़े। इसे दोहराना पड़े। इसे बार-बार आमंत्रित करना पड़े। जब भी समय मिले, अवसर मिले, फिर-फिर इस भाव-दशा को जगाना पड़े–ताकि इससे पहचान होने लगे; ताकि इससे संबंध जुड़ने लगे; ताकि धीरे-धीरे तुम्हारे भीतर यह प्रकाश का स्तंभ खड़ा हो जाये।
(मेरे जीवन में होंश के प्रयोग ने यह काम किया, शायद आपके भी काम आ जाए। इसकी ख़ासियत ही यही है कि इसको बार बार या अधिक बार करने के लिए प्रयत्न नहीं करना पड़ता और यह अपने आप मेरे सारे कार्य में फैलता चला गया। बस एक बार साधना है किसी एक रोज़ के कार्य को करते समय )
“मनुष्यो सतत जागते रहो! जो जागता है, उसकी बुद्धि बढ़ती है। जो सोता है, वह धन्य नहीं है। धन्य वही है, जो सदा जागता है।’-(जिन सूत्र का हिन्दी में अर्थ)
जागरह नरा! णिच्चं जागरमाणस्स बङ्ढते बुद्धी।(जिन सूत्र पाली भाषा में)
जो सुवति ण सो धन्नो, जो जग्गति सो सया धन्नो।।(जिन सूत्र पाली भाषा में)
जो जागता है वह धन्य है। मनुष्यो, सतत जागते रहो! जो जागेगा उसकी मेधा बढ़ती है। जो सोता है उसकी मेधा सो जाती है। जो जागता है उसका भाग्य भी जागता है। जो सोता है उसका भाग्य भी सो जाता है। जागरण की पराकाष्ठा ही भगवत्ता है। इसलिए मैंने कहा, भगवान का अर्थ है: जिसका भाग्य पूरा जाग गया; जिसने अपने भीतर कोई कोना-किनारा सोया हुआ न छोड़ा, जिसने अंधेरे की कोई जगह न छोड़ी।
-ओशो, जिन सूत्र भाग १, अध्याय #१५ मनुष्यों सतत जाग्रत रहो।
जाग्रत रहो का मतलब है कि हम भीतर की आँख से देखते रहें। इसे हम हमारा दृष्टा होना भी कहते हैं। मेरे अनुभव के आधार पर मैं जो कह सकता हूँ वह ओशो के शब्दों के सहारे नीचे कह दिया है:-
द्रष्टा (यानी भीतर की आँख से) होने का चमत्कार यह है कि जब हम (आँख बंद करके अपने ) शरीर को देखते हैं, तो हमारा द्रष्टा अधिक मजबूत होता है। जब हम अपने विचारों को देखते हैं, तो हमारा द्रष्टा और भी मजबूत होता है। और जब हम अनुभूतियों को देखते हैं, तो हमारा द्रष्टा फिर और मजबूत होता है। जब हम अपनी भाव-दशाओं को देखते हैं, तो द्रष्टा इतना मजबूत हो जाता है कि स्वयं बना रह सकता है — स्वयं को देखता हुआ, जैसे कि अंधेरी रात में जलता हुआ एक दीया, जो न केवल अपने आस-पास प्रकाश करता है, बल्कि स्वयं को भी प्रकाशित करता है!
ओशो कहते हैं:- लेकिन लोग बस दूसरों को देख रहे हैं, वे कभी स्वयं को देखने की चिंता नहीं लेते। हर कोई देख रहा है — यह सबसे उथले तल परदेखना है — कि दूसरा व्यक्ति क्या कर रहा है, दूसरा व्यक्ति क्या पहन रहा है, वह कैसा लगता है। हर व्यक्ति देख रहा है — देखने कीप्रक्रिया कोई ऐसी नई बात नहीं है, जिसे तुम्हारे जीवन में प्रवेश देना है। उसे बस गहराना है — दूसरों से हटाकर स्वयं की आंतरिकअनुभूतियों, विचारों और भाव-दशाओं की ओर करना है — और अंततः स्वयं द्रष्टा की ओर ही इंगित कर देना है।
लोगों की हास्यास्पद बातों पर तुम आसानी से हंस सकते हो, लेकिन कभी तुम स्वयं पर भी हंसे हो? कभी तुमने स्वयं को कुछ हास्यास्पदकरते हुए पकड़ा है? नहीं, स्वयं को तुम बिलकुल अनदेखा रखते हो — तुम्हारा सारा देखना दूसरों के विषय में ही है, और उसका कोईलाभ नहीं है।
अवलोकन की, दृष्टा होने की, अवेयरनेस की इस ऊर्जा का उपयोग अपने अंतस के रूपांतरण के लिए कर लो। यह इतना आनंद दे सकती है, इतने आशीष बरसा सकती है कि तुम स्वप्न में भी नहीं सोच सकते। सरल सी प्रक्रिया है, लेकिन एक बार तुम इसका उपयोग स्वयं पर करने लगो, तो यह एक ध्यान बन जाता है।
किसी भी चीज को ध्यान बनाया जा सकता है!
अवलोकन तो तुम सभी जानते हो, इसलिए उसे सीखने का कोई प्रश्न नहीं है, केवल देखने के विषय को बदलने का प्रश्न है। उसे करीब पर ले आओ। अपने शरीर को देखो, और तुम चकित होओगे।
अपना हाथ मैं बिना द्रष्टा हुए भी हिला सकता हूं, और द्रष्टा होकर भी हिला सकता हूं। तुम्हें भेद नहीं दिखाई पड़ेगा, लेकिन मैं भेद को देख सकता हूं। जब मैं हाथ को द्रष्टा-भाव के साथ हिलाता हूं, तो उसमें एक प्रसाद और सौंदर्य होता है, एक शांति और एक मौन होताहै।
तुम हर कदम को देखते हुए चल सकते हो, उसमें तुम्हें वे सब लाभ तो मिलेंगे ही जो चलना तुम्हें एक व्यायाम के रूप में दे सकता है, साथ ही इससे तुम्हें एक बड़े सरल ध्यान का लाभ भी मिलेगा।
–ओशो की किताब ध्यानयोग: प्रथम और अंतिम मुक्ति से
मेरे अनुभव :-
समय के साथ, 20 वर्षों के भीतर, मैं अन्य कृत्यों के दौरान होंश या जागरूकता को लागू करने में सक्षम हो गया, जबकि मुझे बाद में एहसास हुआ कि कई कृत्यों में यह पहले ही स्वतः होने लगा था।
संपूर्णता के साथ जीना, जीवन को एक प्रामाणिक रूप में जीना यानी भीतर बाहर एक और ईमानदारी से जीना, लोगोंकी बिना भेदभाव के निःस्वार्थ भाव से सेवा करना और सभी बंधनों (धार्मिक, शैक्षिक, जाति, रंग आदि) से मुक्त होनातीन महत्वपूर्ण उत्प्रेरक हैं जो किसी को गहराई तक गोता लगाने में मदद करते हैं।
होंश का प्रयोग मेरे लिए काम करने का तरीका है, (instagram पर होंश) हो सकता है कि आपको भी यह उपयुक्तलगे अन्यथा अधिकांश लोगों के लिए गतिशील ध्यान है। लगभग 500 साल पहले भारतीय रहस्यवादी गोरखनाथद्वारा खोजी गई और ओशो द्वारा आगे संशोधित की गई 110 अन्य ध्यान तकनीकें हैं जिनका प्रयोग किया जा सकताहै और नियमित जीवन में उपयुक्त अभ्यास किया जा सकता है।
नमस्कार ….. मैं अपनी आंतरिक यात्रा के व्यक्तिगत अनुभवों से अपनी टिप्पणियाँ लिखता हूँ। इस पोस्ट में दुनिया भरके रहस्यवादियों की शिक्षाएँ शामिल हो सकती हैं जिन्हें मैं अपने अनुभव से तौलकर आज भी मानने लायक समझता हूँ। अधिकजानकारी के लिए और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर जुड़ने के लिए वेबसाइट https://linktr.ee/Joshuto पर एक नज़र डालें, या मेरे यूट्यूब चैनल या पॉडकास्ट आदि सुनें।
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मेरे सुझाव:-
ओशो के डायनामिक मेडिटेशन को ओशो इंटरनेशनल ऑनलाइन (ओआईओ) ऑनलाइन आपके घर से ओशो ने नई जनरेशन के लिए जो डायनामिक मेडिटेशन दिये हैं उन्हें सीखने की सुविधा प्रदान करता है। ओशो ध्यान दिवस अंग्रेज़ी में @यूरो 20.00 प्रति व्यक्ति के हिसाब से। OIO तीन टाइमज़ोन NY, बर्लिन औरमुंबई के माध्यम से घूमता है। आप अपने लिए सुविधाजनक समय के अनुसार प्रीबुक कर सकते हैं।