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ओशो से उनके शिष्य ने प्रश्न किया :-
ओशो,
आजकल हमारे देश में नीति-निर्माण बार-बार देश को इक्कीसवीं शताब्दी में ले जाने की बात कर रहा है। खासकर के पिछले डेढ़-दोवर्षों में यह बहस काफी बढ़ गई है कि देश को इक्कीसवीं शताब्दी में ले जाना है। क्या आप समझते हैं कि मौजूदा हालातों में यह संभवहोगा? पहली तो बात यह है कि देश बीसवीं सदी में भी है या नहीं! इक्कीस में ले जाना है, वह तो समझ में आ गया, मगर किसको लेजाओगे? यहां लोग हजारों वर्ष पीछे जी रहे हैं। इस देश के नेता-महात्मा गांधी जैसे लोग भी सोचते हैं कि चरखे के बाद जो भी वैज्ञानिकअनुसंधान आविष्कार हुए हैं, वे सब नष्ट कर दिए जाने चाहिए। चरखा आखिरी विज्ञान है। महात्मा गांधी रेलगाड़ी के खिलाफ थे, टेलीफोन के खिलाफ थे, टेलीग्राम के खिलाफ थे! अगर उनकी बात मान ली जाए…और उनकी बात मान कर इस देश के नेता चलते रहेहैं। कम से कम दिखाते तो रहे हैं, कम से कम गांधी की टोपी तो लगाए रहते हैं, कम से कम गांधी की खादी तो पहन रखी है। अगरउनकी बात मान ली जाए तो यह देश कम से कम दो हजार साल पीछे पहुंच जाएगा। इक्कीसवीं सदी की तो छोड़ दो, अगर यह पहलीसदी में भी पहुंच जाए तो धन्यभाग! जो लोग इसे इक्कीसवीं सदी में पहुंचाने की बातें कर रहे हैं, उनकी खुद की बुद्धि इतने सड़े-गलेविचारों से भरी है कि वे विचार सारी दुनिया में कभी के रद्द हो चुके, मगर भारत में अभी भी जिंदा हैं। बात तो बड़ी प्यारी है कि इक्कीसवींसदी में चले चलें और दूसरों से भी पहले चले चलें–मगर बैठे हैं बैलगाड़ी पर! दूसरे चांद पर पहुंच गए हैं। हां, कहानियों में कभी-कभीहम भी चांद पर पहुंच जाते हैं। मगर चांद पर भी पहुंच जाएंगे तो भी रहेंगे तो हम हीं। मैंने सुना है कि जब पहली बार पहला अमरीकी चांदपर उतरा तो वह देख कर हैरान हुआ कि एक हिंदू साधु धूनी रमाए वहां बैठा है! उसने कहा: हद्द हो गई! हम मर गए मेहनत कर-कर के, अरबों-खरबों डालरों का खर्च, और ये भैया धूनी लगाए यहां पहले ही से बैठे हैं! आध्यात्मिक चमत्कार ही है। सो उस अमरीकन ने जाकरउनके पैर छुए, जब उन्होंने पैर छुए तो साधु ने आंखें खोलीं और अमरीकी से बोला, सिगरेट है? बहुत दिन हो गए, अमरीकी सिगरेट कामजा नहीं मिला। उसने कहा: सिगरेट तो तुम ले लो, मगर यह तो बताओ यहां पहुंचे कैसे? साधु ने कहा: इसमें भी क्या अड़चन है! हमारेदेश की आबादी जानते हो? आजाद हुआ था, तब चार सौ मिलियन थी। अब नौ सौ मिलियन है। और इस सदी के पूरे होते-होते एकहजार मिलियन को पार कर जाएगी। तुम्हारे सब ढोंग-धतूरों की हम सुनते थे कि तुम यह आयोजन कर रहे हो, वह आयोजन कर रहे हो।हमने कहा, क्यों फिजूल की बातों में पड़ते हो, अरे एक के ऊपर एक खड़े होने लगो–एक के ऊपर एक! जैसे बंबई में मकान खड़े करते हैंऐसे आदमियों को एक के ऊपर एक खड़ा करते चले गए और चूंकि हम साधु थे, इसलिए सबके ऊपर! मगर सब नालायक, यहां मुझेअकेला छोड़ कर अपने-अपने काम-धंधे पर चले गए। कहानियों में इक्कीसवीं सदी में पहुंच जाना आसान है। और भोली-भाली जनताको, नासमझ जनता को, जिसे इक्कीस तक गिनती भी पढ़नी नहीं आती, जिसके लिए दस यानी बस–उसको तुम इक्कीसवीं सदी कीबात करो, कि इक्तीसवीं सदी की बात करो, कोई फर्क नहीं पड़ता। सोचती है जब तुम कह रहे हो तो ठीक ही कह रहे होओगे। औरफिर तुम्हारी किसी बात का कोई भरोसा भी नहीं रहा है, क्योंकि चालीस साल से तुमने हर बार धोखा दिया। चालीस साल से भारत केनेता धोखे पर धोखा दे रहे हैं। जनता के मन में एक समादर की भावना थी चालीस साल पहले। इन्हीं लोगों के प्रति, इनके बापदादों केप्रति। आज भारत के बेपढ़े लोगों के मन में भी राजनीतिज्ञों के प्रति कोई सम्मान नहीं है, सिर्फ अपमान है। इनकी गिनती भी लुच्चे-लफंगोंके सिवाय और किन्हीं में की जाती नहीं–की भी नहीं जा सकती। लुच्चे-लफंगे तो किसी एकाध आदमी को इधर-उधर थोड़ा-बहुतलूट-खसोट लेते हैं, किसी की जेब काट ली–ये सारे देश की संभावनाओं को नष्ट कर रहे हैं। सारे देश के आने वाले भविष्य को खराबकर रहे हैं। लेकिन लफ्फाजी की बातें तो इन्हें करनी ही पड़ेंगी। बातों के सिवाय इनके पास कुछ और है भी नहीं। इक्कीसवीं सदी। औरचारों तरफ भारत के लोगों को देखो!
इक्कीसवीं सदी को लाने का अर्थ होगा, जीवन के सारे मूल्य बदले जाएं। अभी भी हरिजनों के साथ वही व्यवहार हो रहा है जो पांचहजार साल पहले होता था। और झूठ ऐसा हमारी आत्माओं में घुसा है कि साधारण आदमी को हम छोड़ दें, साधारण आदमी की मैं बातही नहीं करता–महात्मा गांधी का यह निरंतर कहना था कि भारत का पहला राष्ट्रपति एक औरत होगी और हरिजन औरत होगी। न तोडाक्टर राजेंद्र प्रसाद औरत थे, जहां तक मैं समझता हूं, और न ही हरिजन थे–और गांधी ने ही उनको चुना! क्या हुआ उन पुराने वायदोंका? कहां गई वे ऊंची-ऊंची बातें? जो जहर तुमने हरिजनों को पिलाया, वह कहां गया? वह भी सब राजनीति थी। क्योंकि घबड़ाहट वहीकी वही थी, अंबेदकर के नेतृत्व में हरिजन भी अलग हो जाना चाहते थे। अगर मुसलमान अपना देश अलग मांग रहे हैं और उनकी मांगजायज समझी जा रही है। और हिंदू अपना देश अलग मांग रहे हैं तो हरिजन जो कि हिंदुओं का चौथा हिस्सा हैं। और हजारों साल सेसताए गए लोग हैं। इस दुनिया में उनसे ज्यादा सताया गया और कोई भी नहीं है। अगर वे भी चाहें कि हमें अपना अलग देश दे दो, तोगांधी उपवास पर बैठ गए! आमरण उपवास! आमरण उपवास एक का भी नहीं हुआ, क्योंकि मरने के पहले ही संतरे का रस–उस सबकाआयोजन पहले से होता है। डाक्टर जांच कर रहे हैं। और सारे देश में उथल-पुथल…कि महात्मा गांधी कहीं मर न जाएं–बात का रुख हीबदल दिया। हरिजनों की तो बात ही समाप्त हो गई। अंबेदकर की जान पर बन आई। लोग उसकी गर्दन दबाने लगे कि तुम माफी मांगोमहात्मा गांधी से और कहो कि हम अलग देश या अलग होने की मांग नहीं करेंगे। उसकी मांग जायज थी। लेकिन यहां जायज औरनाजायज की कौन फिकर करता है! और उसको भी लगा कि अगर महात्मा गांधी मर गए…तो मैं मर जाऊं यह तो कोई बड़ी बात नहीं है, इस देश में हरिजनों को जला कर खाक कर दिया जाएगा–एक कोने से दूसरे कोने तक। उनके झोपड़ों में आग लग जाएगी, उनकीस्त्रियों पर बलात्कार होंगे, गांधी के मरने का बदला लिया जाएगा। यह बात ही खत्म हो गई कि वह जो कह रहा था, ठीक कह रहा थाया गलत कह रहा था–यह बात का रुख ही बदल गया। मामला यह हो गया कि इतने हरिजनों को इतने उपद्रव में डालना उचित है यानहीं? यूं ही बेचारे बहुत परेशान रहे हैं। अब और यह आखिरी परेशानी है। तो अंबेदकर खुद ही संतरे का रस लेकर हाजिर हो गए, माफीभी मांग ली–जानते हुए कि यह आदमी धोखा दे रहा है हरिजनों को, यह आदमी इस देश को धोखा दे रहा है। लेकिन हरिजनों को न तोअलग होने का हक है, न अलग मताधिकार का हक है। उतनी छोटी सी मांग थी कि या तो अलग देश दे दो या कम से कम अलगमताधिकार दे दो, ताकि इनकी आवाज भी तुम्हारी संसद में पहुंच सके कि इन पर क्या गुजरती है–इसकी खबर भी नहीं छपती, इसकीखबर भी तुम तक नहीं पहुंचती। और आश्र्वासन दिया गांधी ने कि चिंता न करो, पहला राष्ट्रपति हरिजन होगा। और न केवल हरिजन, बल्कि, स्त्री। क्योंकि स्त्री को भी बहुत सताया गया है। हरिजन को भी बहुत सताया गया है। स्वतंत्रता में यह सब न चलेगा। स्वतंत्रता आभी गई–न कोई हरिजन, न कोई स्त्री! स्वतंत्रता आई और करोड़ों लोग मरे, लुटे, न मालूम कितने बच्चों की जानें गईं, कितनी स्त्रियों कीइज्जत गई, कितने लोगों को जबरदस्ती जिंदा जलाया गया। गजब की आजादी आई! यह प्रेम से हो सकता था। लेकिन महात्मा गांधीऔर उनके शिष्यों ने यह नहीं होने दिया। इसे उस स्थिति तक पहुंचा दिया, जहां दुश्मनी आखिरी जगह पहुंच गई। कि जब यह हुआ तोइसका परिणाम हिंसा के सिवाय और कुछ न था। यही पंजाब में हो रहा है। यही आसाम में हो रहा है। यही कश्मीर में हो रहा है। यहीदेश के कोने-कोने में होगा। और ये छुटभैये देश को इक्कीसवीं सदी में ले चले! एक ही तरकीब है ले जाने की–इक्कीसवीं सदी केकैलेंडर छाप लो और घरों में टांग दो। पहुंच गए इक्कीसवीं सदी में! गिनती करने लगो इक्कीसवें सदी की। किसी के बाप का हक है किरोके। कैलेंडर हमारा, हम छापते हैं, हमें नहीं रहना बीसवीं सदी में, हमें इक्कीसवीं सदी में रहना है। कैलेंडर में पहुंच सकते हो, जिंदगी मेंनहीं। और जिंदगी में जो तुम्हें पहुंचा सकते हैं, उनकी तुम सुनने को भी राजी नहीं हो। मैं तुम्हें इक्कीसवीं सदी में पहुंचा सकता हूं, लेकिनतुम मेरी बात भी सुनने को राजी नहीं हो। क्योंकि इक्कीसवीं सदी में पहुंचना दो बातों पर निर्भर है। पहला, तुम्हें अपने अतीत से मुक्तहोना होगा, निर्भार होना होगा। तुम इस बुरी तरह बंधे हो पीछे से कि एक कदम आगे बढ़ते हो और दो कदम पीछे हट जाते हो। हर मामलेमें तुम पीछे बंधे हो। पीछे से सारे संबंध छोड़ देने होंगे। जरा सोचो, प्रकृति ने भी आंखें तुम्हारी खोपड़ी में पीछे नहीं लगाई हैं। आंखें हैंआगे देखने को, जो बीता सो बीता, जो छूटा सो छूटा, जो टूटा सो टूटा। आंखें आगे लगाओ।
तुम्हें अपने बहुत से मूल्य बदलने होंगे। दुखदायी होगा। क्योंकि उन मूल्यों से बड़ा लगाव रहा है। तुमने कभी उनके अंधेरे पहलुओं कोदेखा ही नहीं। किसी ने तुमसे उनकी कभी आलोचना ही नहीं की। हम आलोचना करना भूल ही गए। हम तो बस अंधी श्रद्धा, अंधी पूजा, अंधा विश्र्वास…इक्कीसवीं सदी में जाना हो तो तुम्हें इस अंधेपन को छोड़ना होगा। मशीनें नहीं ले जा सकतीं तुम्हें, आंखें चाहिए, साफआंखें चाहिए। जो दूर तक देख सकती हों। और विश्र्वासी की आंखें इतनी अंधी होती हैं कि वह पास तक भी नहीं देख सकतीं, दूर तकदेखने का तो सवाल ही क्या है। तुम्हें संदेह करना सीखना होगा। क्योंकि संदेह की तलवार ही तुम्हारे अंधविश्र्वासों को काटेगी। और तुम्हेंमौका देगी चिंतन का, मनन का, ध्यान का।
यह जो पश्र्चिम में विज्ञान पैदा हुआ है, तीन सौ वर्षों में ही पैदा हुआ है। और इन तीन सौ वर्षों में ईसाइयत से इंच-इंच पर लड़ कर पैदाहुआ है। क्योंकि छोटी-छोटी बातों पर ईसाइयों का अड़ंगा है। बाइबिल कहती है, जमीन चपटी है। विज्ञान की खोज कहती है, जमीनगोल है। बाइबिल कहती है, सूरज जमीन के चक्कर लगाता है। और विज्ञान ने पाया कि बात उलटी ही है–जमीन सूरज के चक्करलगाती है। और जब गैलीलियो ने पहली दफा अपनी किताब में यह लिखा कि जमीन सूरज के चक्कर लगाती है तो उस बूढ़े आदमी कोजो बिलकुल मरणासन्न था, घसीट कर पोप की अदालत में ले जाया गया। और पोप ने उससे कहा कि तुम अपनी किताब में बदलाहटकर लो, अन्यथा जिंदा जला दिए जाओगे। गैलीलियो ने कहा: मुझे कोई अड़चन नहीं है, मैं किताब में बदलाहट कर लूंगा। जिंदा जलनेका मुझे कोई शौक नहीं है, मर कर तो जलना ही है, इतनी जल्दी भी क्या है। रही किताब, सो किताब में बदल दूंगा। मगर एक बात कहेदेता हूं, मेरे किताब में बदलने से कोई भी फर्क नहीं होगा; जमीन सूरज के चक्कर लगाएगी और लगाएगी। लाख मेरी किताब में मैं कुछभी लिखूं, न सूरज पढ़ता है मेरी किताब, न जमीन पढ़ती है मेरी किताब। और तुम इतना परेशान क्यों हो? एक छोटी सी लकीर, अगरबाइबिल के खिलाफ चली जाती है तो तुम्हारी इतनी परेशानी क्या है? और पोप ने जो शब्द कहे, वे खयाल रखने जैसे हैं। पोप ने कहाकि परेशानी यह है कि अगर बाइबिल का एक वचन भी गलत सिद्ध हो जाता है, तो लोगों को संदेह उठने शुरू हो जाएंगे कि कौन जाने, जब एक बात गलत हो गई तो दूसरी बातें भी गलत हों–कौन जाने! और अब तक वे मानते रहे कि बाइबिल ईश्र्वर की लिखी हुई किताबहै। और अगर ईश्र्वर भी गलतियां कर सकता है तो पोप की क्या हैसियत है, जो इस बात का दावा करता है कि उससे गलतियां होती हीनहीं हैं। हम बाइबिल में लिखी किसी बात के खिलाफ कुछ भी बरदाश्त न करेंगे। लेकिन लड़ाई जारी रही। तीन सौ वर्षों में निरंतरविज्ञान इंच-इंच लड़ा। इस देश में कोई लड़ाई नहीं हुई है। इस देश में विज्ञान सिर्फ तुमने स्कूल और कालेज में पढ़ा है, सिर्फ ऊपर-ऊपरहै। विज्ञान भी पढ़ रहे हैं, हाथ में हनुमान जी का ताबीज भी बांधे हुए बैठे हैं। ये नालायक तुम्हें इक्कीसवीं सदी में ले जाएंगे? विज्ञान कीपरीक्षा देने जाते हैं, पहले हनुमान जी के मंदिर में नारियल फोड़ आते हैं! वैज्ञानिक दृष्टिकोण पैदा नहीं हो पाया है। उधार है हमारा सबविज्ञान; पढ़-लिख लेते हैं, समझ लेते हैं, मगर भीतर, भीतर हम वही के वही हैं। भीतर हमारे विश्र्वास के आधार वही के वही हैं। मेरे एकमित्र थे बड़े डाक्टर। न मालूम कितने लोगों का उन्होंने इलाज किया होगा। और उनकी बड़ी दूर-दूर तक प्रसिद्धि थी। लेकिन जब उनकीपत्नी बीमार पड़ी, तो एक दिन मुझसे बोले कि सब इलाज कर रहे हैं, लेकिन उसे लाभ नहीं हो रहा। मेरा नौकर कहता है कि अगर कोईसाधु-संत आशीर्वाद दे दें, तो ही कुछ हो सकता है। मैंने कहा: तुम इतने बड़े डाक्टर हो, तुम जानते हो कि बीमारी हो तो उसका कारणहोता है। उसका निदान करो, कारण को मिटाने की कोशिश करो। तुम्हारी पत्नी किसी साधु-संत के अभिशाप से तो बीमार हुई नहीं हैकि वरदान देने से ठीक हो जाएगी। अगर अभिशाप से बीमार हुई होती तो शायद वरदान देने से ठीक भी हो जाती। वे बोले, तुम कुछ भीकहो, यह मामला ऐसा है कि यहां बुद्धि चकराती है। बात तुम्हारी समझ में आती है, मगर अगर तुम किसी साधु-संत को जानते हो तोबताओ।
यहां इंजीनियर हैं, डाक्टर हैं, आर्किटेक्ट हैं, वैज्ञानिक हैं, लेकिन यह सब केवल बौद्धिक विचार रह जाता है। उनके भीतर सदियों-सदियोंके पड़े हुए संस्कार, ऐसी जंजीरों की तरह जकड़े हुए हैं। पश्र्चिम भी चले जाते हैं, वहां से भी शिक्षा लेकर लौट आते हैं, मगर यहां आकरफिर वही गोरखधंधा! और वही गोरख धंधा करते हैं तो लोग बड़ी प्रशंसा करते हैं। कहते हैं कि देखो पश्र्चिम भी हो आया है, पश्र्चिम केविश्र्वविद्यालयों में शिक्षा भी पाई, मगर अपने भारतीत्व को नहीं खोया। अभी भी मंदिर जाता है, अभी भी मस्जिद पहुंच जाता है। अभी भीरोज सुबह उठ कर बाइबिल को पहले नमस्कार करता है, फिर दूसरा काम शुरू करता है।
इस देश को इक्कीसवीं सदी में जरूर ले जाया जा सकता है। लेकिन इस देश को इक्कीसवीं सदी में ले जाने के पहले, ये जो हजारों वर्षके पुराने संस्कार हैं, इनसे मुक्त करना जरूरी है। और उनसे मुक्त करने का एक ही उपाय है। और मैं उसी उपाय की चर्चा कर रहा हूंनिरंतर कि तुम किसी तरह ध्यान करना सीख लो, कि तुम किसी तरह उस अवस्था को अपने भीतर पैदा करना सीख लो, जहां विचारों कीतरंग बंद हो जाती है। जहां कोई हलचल, कोई ऊहापोह, कुछ भी नहीं होता। जहां तुम निस्तरंग, शांत और मौन हो जाते हो। उस मौन मेंतुम अतीत से टूट जाते हो, वर्तमान में आ जाते हो। और जो आज आ गया, उसे हम कल की यात्रा पर ले चल सकते हैं। मगर पहले उसेआज तो लाना होगा। आज की छलांग, कल तक पहुंचा देगी। लेकिन आज तो आना ही होगा। अभी भारत वर्तमान में भी नहीं है। इसकीनजरें पीछे हैं, इसके आराध्य पीछे हैं, इसका स्वर्णयुग पीछे है। ये पूरे हालात बदलने होंगे। मैंने सुना है, एक रास्ते पर एक दुबला-पतलायुवक मोटर साइकिल पर तेजी से भागा जा रहा है, हवा बहुत तेज है और उलटी है। सो उसने गाड़ी रोक कर अपना कोट उलटा करलिया, ताकि छाती पर हवा इतने जोर से न लगे, सर्दी-जुकाम न पकड़ जाए। कोट उलटा कर लिया, बटनें पीछे लगा लीं, मफलर गले सेठीक से बांध लिया। फिर चला अपनी गाड़ी पर। उधर से आ रहे थे एक सरदारजी, उन्होंने इसको देखा, उन्होंने कहा, मार डाला, यहआदमी उलटा बैठा है और इतनी तेजी से साइकिल चला रहा है। घबड़ाहट में वे टकरा गए। आदमी नीचे गिरा, बेहोश हो गया। सरदारजीने कहा, अच्छी मुसीबत में हम भी पड़े, यह आदमी है कैसा! अब इसका सिर किसी तरह सीधा करें। यहां तो कोई दिखाई भी नहीं पड़ताकि जिसको बुलाएं सहायता के लिए। सो उन्होंने एक जोर से झटका दिया–सरदारी झटका–वाहे गुरुजी की फतह! वाहे गुरुजी काखालसा! और दिया जोर से झटका, उसका मुंह दूसरी तरह फेर दिया। तभी वहां पुलिस की गाड़ी पहुंच गई, पूछा कि क्या मामला है? सरदारजी ने कहा: क्या मामला है–यह आदमी बेचारा मोटर साइकिल पर उलटा बैठा था। उन्होंने पूछा, जिंदा है? सरदारजी ने कहा: जिंदा था। अजीब किस्म का आदमी है, जब तक उलटी खोपड़ी थी, जिंदा था। मैंने बामुश्किल इसकी खोपड़ी उलटी की। गुरुजी कीदुआ से खोपड़ी तो उलटी से सीधी हो गई, मगर श्वास बंद हो गई। अब भैया श्वास तुम सम्हालो, मुझे दूसरे काम पर जाना है। उन्होंनेगौर से देखा कि मामला क्या है। बात तो ठीक कहता है। कोट के बटन सबूत देते हैं। बटन खोले तो देखा कि बात यह थी कि उसने कोटउलटा किया हुआ था, तब तक सरदारजी जा चुके थे। वह आदमी मुफ्त मारा गया।
इस भारत की दशा भी कुछ ऐसी ही है। तुम जिस तरफ जा रहे हो, उस तरफ तुम्हारा मुंह नहीं है। जिस तरफ से तुम आ रहे हो, तुम्हारामुंह अब भी वहीं है! तुम अगर बार-बार गड्ढों में गिरते हो तो कुछ आश्र्चर्य नहीं है। भविष्य की तरफ देखो। अतीत के साथ बहुत दिन बंधकर देख लिया, कुछ भी न पाया। हाथ खाली हैं, पेट खाली है, गरीबी रोज बढ़ती जाती है। भविष्य की तरफ देखो हालात बदलने शुरू होजाएंगे। प्रतिभा की तुम्हारे पास कोई कमी नहीं है, मगर प्रतिभा को गलत आयाम, गलत दिशा में उलझा रखा है। प्रतिभा को ठीक-ठीकदिशा दो। और मेरा अनुभव यह है कि अगर तुम ध्यान की चौबीस घंटों में कुछ देर के लिए भी अनुभूति ले लो, नहा जाओ, ताजे हो जाओ, तो तुम वर्तमान में आ जाओगे। वहीं, जहां तुम हो। और यहीं से जाता है रास्ता भविष्य की तरफ। इक्कीसवीं सदी हो या बाईसवीं सदीहो, यहीं से जाता है रास्ता भविष्य की तरफ। लेकिन जो राजनीतिज्ञ तुमसे कह रहे हैं कि भविष्य…इक्कीसवीं सदी लानी है, वे खुद भीयहां नहीं हैं। इक्कीसवीं सदी तो बहुत दूर, अभी उनकी बीसवीं सदी भी नहीं आई। और तुम दिल्ली में जाकर देख सकते हो–सब तरहके ज्योतिषी, सब तरह के हस्तरेखा-विद, सब तरह के महात्मा, साधु-संत अड्डा जमाए हुए बैठे हैं। हर राजनीतिज्ञ का कोई न कोईमहात्मा गुरु है। कोई न कोई हस्तरेखा-विद, उसकी हाथ की रेखाओं को पढ़ कर बताता है कि कब किस घड़ी में वह चुनाव का फार्मभरे–तारे कब सहयोगी हैं और कब तारे विरोधी हैं।
-फिर अमृत की बूँद पड़ी, ओशो, #१२
— फिर अमरित की बूंद पड़ी – Phir Amrit Ki Bund Pari by Osho, #४ मैं तुम्हें इक्कीसवीं सदी में ले जा सकता हूँ
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