मनुस्मृति के बजाय भीतर की आँख हमारे जीवन को दिशा दे

ख़ुद मनु अपनी लिखी किताब मनुस्मृति का पालन नहीं करते तो लोगों के लिए उसका पालन असंभव है। प्रेम और सत्य, ध्यान से अपनेआप फलित होगा।
मनुस्मृति से मनु झूठे साबित हुए Image credit : Amazon Kindle link https://amzn.in/dhi2UtO

मनुस्मृति में प्रिय असत्य कहने और अप्रिय सत्य नहीं कहने को लेकर ओशो ने विरोध जताते हुए ध्यान को साधने की बात कही, सत्य और प्रेम उससे अपनेआप फलित होंगे क्योंकि वह मनुष्य का नैसर्गिक गुण है। ध्यान जो नैसर्गिक नहीं है उसे इस तरह गिरा देता है जैसे हीरे को देखने के बाद जो बच्चे के हाथ से रंगीन पत्थर गिरते हैं जो उसने हीरा समझकर मुट्ठी में दबाए थे।

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ओशो की पुस्तक: ज्यों मछली बिन नीर, प्रवचन #5 सत्य की कसौटी से लिया गया यह पहला प्रश्न आज कई मायनों में फिर से सार्थक सिद्ध हो रहा है। फ़्रांस का दार्शनिक गुर्जिएफ़ कहता है कि मैं जो कह रहा हूँ उससे ज़्यादा महत्वपूर्ण मेरे शिष्यों द्वारा किया गए प्रश्नों के जवाब हैं, क्योंकि ये एक्सिस्टेंस मुझसे कहलाना चाहता है। वह आने वाली पीढ़ियों को मेरा मार्गदर्शन है। ओशो ने भी वही प्रयोग जारी रखा और मेरे देखे ओशो से पूछे हुए प्रश्न के जवाब आज की कई समस्याओं के समाधान के लिए सही मार्गदर्शन साबित हो भी रहे हैं। मैंने ऐसे कई प्रश्न पहले भी अपनी पोस्ट में शामिल किया हैं उसी में एक महत्वपूर्ण कड़ी आज पेश कर रहा हूँ। 

ध्यान देकर और समय निकालकर पूरा पढ़ेंगे तभी मेरा प्रयत्न और आपका बहुमूल्य समय सार्थक सिद्ध होगा।

पहला प्रश्न: ओशो, मनुस्मृति का यह बहुत लोकप्रिय श्लोक है:

सत्यं ब्रूयात्ंप्रियं ब्रूयान्न ब्रूयात्सत्यमप्रियम्‌।

प्रियं च नानृतं बू्रयादेष धर्मः सनातनः।।

अर्थात मनुष्य सत्य बोले, प्रिय बोले; अप्रिय सत्य को न बोले और असत्य प्रिय को भी न बोले। यह सनातन धर्म है।

ओशो, इस पर कुछ कहने की कृपा करें।

ओशो इसका उत्तर कुछ इस प्रकार देते हैं।कोष्ठक में मेरे अपने अनुभव भी शामिल करता हूँ।

शरणानंद! मनुस्मृति इतने असत्यों से भरी है कि मनु हिम्मत भी कर सके हैं इस सूत्र को कहने की, यह भी आश्चर्य की बात है। मनुस्मृति से ज्यादा पाखंडी कोई शास्त्र नहीं है।

भारत की दुर्दशा में मनुस्मृति का जितना हाथ है, किसी और का नहीं। मनुस्मृति ने ही भारत को वर्ण दिए हैं।

मनुस्मृति के अनुसार:- 

शूद्रों का यह जो महापाप भारत में घटित हुआ है, जैसा पृथ्वी में कहीं घटित नहीं हुआ, उसके लिए कोई जिम्मेवार है तो मनु जिम्मेवार हैं। यह मनुस्मृति की ही शिक्षा का परिणाम है, क्योंकि मनुस्मृति है हिंदू धर्म का विधान। वह हिंदू धर्म की आधारशिला है।

इन पांच हजार वर्षों में शूद्रों के साथ जैसा अनाचार हुआ है, बलात्कार हुआ है, वह अकल्पनीय है। उस सबके पाप के भागीदार मनु हैं।

शूद्र की स्त्री के साथ कोई ब्राह्मण अगर बलात्कार करे तो कुछ रुपयों के दंड की व्यवस्था है। और कोई शूद्र अगर ब्राह्मण की स्त्री के साथ बलात्कार करे तो उसे मृत्यु-दंड की व्यवस्था है। कैसा सत्य है यह! शूद्र की स्त्री की कीमत कुछ रुपये है और ब्राह्मण की स्त्री की कीमत–शूद्र का जीवन।

बलात्कार भी ब्राह्मण करे तो यूं समझो कि धन्यभागी हो तुम कि तुम्हारे साथ बलात्कार किया। बड़ी कृपा है मनु की कि उन्होंने यह नहीं कहा कि उसको कुछ रुपयों का पुरस्कार दो। देना तो यही था पुरस्कार, कि कितनी कृपा की ब्राह्मण महाराज ने! धन्यभागी है शूद्र की पत्नी! उसकी देह को इस योग्य माना!

ऐसे असत्यों का प्रचार करने वाले लोग भी सुंदर-सुंदर सुभाषित कह गए हैं। यह सुंदर सुभाषितों की आड़ में बहुत पाप छिपा हुआ है।

शूद्र को उन रास्तों पर चलने की आज्ञा नहीं जहां ब्राह्मण रहते हों। उन कुओं से पानी भरने की आज्ञा नहीं, जहां से दूसरे उच्च वर्णों के लोग पानी भरते हों।

शूद्र मनुष्य है या मनुष्य नहीं? पशु भी चल सकते हैं उन रास्तों पर, जहां ब्राह्मण रहते हैं, क्योंकि गऊ तो माता है! और गऊ माता है, सो बैल पिता हुए ही। इससे कैसे बचोगे? वह तो स्वाभाविक तर्क होगा फिर। भैंसें भी चल सकती हैं, ये भी चाचियां समझो, न सही मां। भैंसे चल सकते हैं, इनको चाचा समझो। गधे चल सकते हैं, इनको मौसेरे भाई-बंधु समझो।

मगर शूद्र नहीं चल सकता। शूद्र चले तो उसे जीवन-दंड भी दिया जा सकता है।

शूद्र अगर वेद पढ़े, तो मनु ने विधान किया: उसके कान में सीसा पिघला कर भर दो। अगर वेद-वचन बोले, उसकी जबान काट दो।

शूद्र अगर ब्राह्मण का मजाक उड़ाए, तो उसकी जबान काट देने का विधान है। व्यंग्य करे, तो जबान काट देने का विधान है। गाली दे दे, तो उसकी जबान काट देने का विधान है। अगर शूद्र कोई अपने हाथ से ब्राह्मण को छू दे, तो उसका हाथ काट देने का विधान है।

इस तरह की अनाचार से भरी हुई बातें और इस तरह के लोग सनातन धर्म की व्याख्या कर रहे हैं! इनसे व्याख्या हो नहीं सकती। होगी भी तो उसमें बुनियादी भूलें हो जाएंगी। स्वाभाविक है कि भूलें हों।

मनुस्मृति के सूत्र पर वापस लौटते हैं ओशो:-

अब जैसे यह सूत्र माना कि बहुत प्रसिद्ध है और प्रसिद्ध होने के कारण बहुत पुनरुक्त होता है, और बहुत पुनरुक्त होने के कारण तुम यह भूल ही जाते हो कि इस पर विचार भी करें। इसे आदमी स्वीकार करने लगता है। पुनरुक्ति एक तरह का सम्मोहन पैदा करती है, सोच-विचार को समाप्त कर देती है।

सोचो थोड़ा, मनु कहते हैं: ‘मनुष्य सत्य बोले।’

लेकिन अगर मनुष्य ने सत्य अनुभव नहीं किया है, तो बोलेगा कैसे? अनुभव की तो कोई बात ही नहीं की जा रही है, बोलने का सवाल है।

सत्य का अनुभव बुनियादी बात है। सत्य का अनुभव तुम्हें सत्य बनाएगा। और तुम जब सत्यरूप हो जाओगे, तो तुम उठोगे भी तो सत्य होगा, बोलोगे तो भी सत्य होगा, न बोलोगे तो भी सत्य होगा। तुम्हारे मौन में भी सत्य की आभा होगी। तुम्हारे वचनों में भी सत्य की सुगंध होगी। उठने और बैठने में भी सत्य की ही मुद्राएं होंगी। तुम्हारा हर पल सत्य में भिगोया हुआ होगा। फिर अलग से सत्य बोलने के लिए कोई आयोजन न करना होगा।

आयोजन करना पड़ता है इसलिए कि सत्य तुम्हारा जीवन नहीं है। और जब जीवन नहीं है तो सत्य बोलोगे तो वह सत्य उधार होगा। वह तुम्हारा तो नहीं हो सकता। और जो तुम्हारा नहीं है वह सत्य ही कैसा? जो तुम्हारा नहीं है वह तो असत्य ही है। रहा होगा किसी के लिए सत्य, जिसका था, मगर तुम्हारे लिए नहीं।

मेरा सत्य तुम्हारा सत्य नहीं है। मेरा सत्य सत्य इसीलिए है कि मेरा अनुभव है। और जब तक तुम्हारा भी अनुभव न बन जाए तब तक तुम्हारे लिए तो झूठ ही है, झूठ के ही बराबर है।

हां, तुम तोते की तरह दोहरा सकते हो। सो मनु ने तोतों की जमात पैदा कर दी। यह जो पंडितों का इतना बड़ा वर्ग इस देश की छाती पर दाल घोंट रहा है, मूंग दल रहा है, यह मनु खड़ा कर गए।

ये सब सत्य बोल रहे हैं। सत्य से इनका मतलब–वेद का उद्धरण दे रहे हैं, गीता दोहरा रहे हैं, रामचरितमानस दोहरा रहे हैं। इसमें से कोई भी इनका अनुभव नहीं, कोई भी निज की प्रतीति नहीं, स्वयं का साक्षात नहीं।

लाओत्सु कहता है कि सत्य तुमने कहा नहीं, दूसरे ने सुना नहीं कि झूठ हो जाता है। क्योंकि जब तुम कहते हो, तुम्हारा तो अनुभव होगा, लेकिन जिसने सुना उसका अनुभव नहीं है। वह सत्य नहीं सुनता, वह तो केवल शब्द सुनता है।

तुम भी ईश्वर को मानते हो, मगर ईश्वर तुम्हारा सत्य है? तुम छाती पर हाथ रख कर कह सकते हो, तुमने जाना? इतना ही कह सकते हो कि मैं मानता हूं। लेकिन मानना और जानना, जमीन-आसमान का भेद है। मानता वही है जो जानता नहीं। जो जानता है वह मानेगा क्यों? मानने की जरूरत क्या है? जब जानता ही है तो मानने का सवाल ही नहीं उठता।

तुम्हारे सत्य विश्वास हैं, अनुभूतियां नहीं। और विश्वास सब झूठ होते हैं। कैसे तुम सत्य बोलोगे?

मनु कहते हैं: ‘मनुष्य सत्य बोले।’

पाखंडी बन जाएगा मनुष्य सत्य बोलने की चेष्टा में।

(तुम स्वयं) सत्य हो। मैं तुमसे कहता हूं: मनुष्य सत्य बने, सत्य हो! सत्य उसका साक्षात्कार हो। सत्य उसका जीवन हो। फिर उस जीवन से जो भी निकलेगा वह सत्य होगा ही। गुलाब के पौधे पर गुलाब के पत्ते लगेंगे और गुलाब के फूल खिलेंगे। कुछ गुलाब की झाड़ी को यह कहने की जरूरत नहीं है कि देख, तुझमें गुलाब के फूल खिलने चाहिए। खिलेंगे ही।

हां, गेंदे के पौधे से कहो तो बात जमती है कि देख, गेंदा मत खिला देना, गुलाब खिला। अब गेंदे का पौधा बेचारा क्या करे! बाजार से प्लास्टिक के गुलाब के फूल खरीद लाए, लटका ले प्लास्टिक के फूल, अपने गेंदों को छिपा ले घूंघट में और घूंघट के बाहर लटका दे गुलाब के फूल–इतना ही हो सकता है।(यही भारत में हुआ भी कि लोगों ने वेदों को रट लिया, यह गेंदे के फूल पर प्लास्टिक के गुलाब लगाना ही तो हुआ!)  पाखंड ही हो सकता है। इस तरह के सूत्र पाखंड के जन्मदाता हैं।

मनु कोई बुद्धपुरुष नहीं हैं। मनु ने स्वयं जाना नहीं है, नहीं तो इस तरह की बात नहीं कहते।

बुद्ध तो कुछ और कहते हैं।

बुद्ध कहते हैं: अप्प दीपो भव! अपने दीये बनो।

ज्योति जलाओ। अपनी ज्योति, अपना दीया।

बुद्ध ने कहा है: मैं कुछ कहता हूं, इसलिए मत समझ लेना कि सत्य है। शास्त्र कहते हैं, इसलिए मत मान लेना कि सत्य है। शास्त्र गलत हो सकते हैं, फिर? मैं गलत हो सकता हूं, फिर? मैं धोखा दे सकता हूं, फिर? मैं धोखा न भी दूं, मैं खुद ही धोखे में हो सकता हूं, फिर?

तो बुद्ध ने कहा है: मेरी बात मत मान लेना। प्रयोग करना। जानना। और जब जानो, जब स्वयं की ज्योति जले, उस ज्योति में जो अनुभव हो, जो प्रकाशित हो, वह तुम्हारा होगा। सत्य सदा स्वयं का होता है। और फिर उस सत्य के अनुभव में जो पत्ते लगेंगे, फूल लगेंगे, फल लगेंगे, वे सब सत्य के होंगे। यह सिखाने की जरूरत नहीं है कि मनुष्य सत्य बोले।

ध्यान सिखाने की जरूरत है, सत्य सिखाने की जरूरत नहीं है। सत्य तो हम सबके भीतर पड़ा है। वह हमारा स्वभाव है।

(इस ध्यान को ही मैंने भीतर की आँख कहा है इस पोस्ट के टाइटल में) 

महावीर का सूत्र ज्यादा कीमती है: ‘वत्थू सहावो धम्म।’ वस्तु का स्वभाव धर्म है

हमारा स्वभाव हमारा धर्म है। हम अपने स्वभाव को पहचान लें और हमने सत्य जान लिया। फिर उसके बाद हम जो भी करें, वह सभी सत्य होगा। लेकिन अगर तुमने सत्य बोलने की चेष्टा की, तो तुम बड़ी झंझट में पड़ोगे।

क्या है सत्य फिर?

बाइबिल सत्य है? कुरान सत्य है? गीता सत्य है? धम्मपद सत्य है? ताओ तेह किंग सत्य है? क्या सत्य है? और इन सबकी बातों में बड़ा विरोध है।

खुद बाइबिल में दो हिस्से हैं–पुरानी बाइबिल और नई बाइबिल।

पुरानी बाइबिल यहूदियों की किताब है और नई बाइबिल ईसाइयों की किताब है। यहूदी तो सिर्फ पुरानी बाइबिल को मानते हैं; नई बाइबिल तो जीसस के वचन हैं, उसको तुमने(यहूदियों ने) इनकार कर दिया। जीसस को तो सूली पर लटका दिया।

लेकिन ईसाई दोनों बाइबिल मानते हैं और ईसाइयों के पास कोई उत्तर नहीं है इस बात का।

पुरानी बाइबिल में ईश्वर कहता है: मैं बहुत ईर्ष्यालु ईश्वर हूं। जो मेरे साथ नहीं है वह मेरा दुश्मन है। यह तो एडोल्फ हिटलर की भाषा है। एडोल्फ हिटलर ने यह लिखा ही है ‘मैनकैम्फ’ में कि जो मेरे साथ नहीं वह मेरा दुश्मन है। या तो मेरे साथ हो, या मेरे दुश्मन हो। बस दो ही कोटियों में आदमी को बांटा है।

और स्पष्ट कहता है पुरानी बाइबिल का ईश्वर कि मैं ईर्ष्यालु हूं। ईश्वर और ईर्ष्यालु! तो फिर ईश्वर को पाकर भी क्या करोगे? यही ईर्ष्या, यही लोभ, यही मोह, यही उपद्रव अगर वहां भी जारी रहना है तो यहां ही क्या बुराई है? फिर आदमी होने में क्या बुरा है?

और जीसस कहते हैं: ईश्वर प्रेम है।

और ईसाई दोनों किताबों को पूजता है बिना इसकी फिकर के कि जरा देखे इस विरोधाभास को: ईर्ष्या और प्रेम! जहां प्रेम है वहां ईर्ष्या नहीं है और जहां ईर्ष्या है वहां प्रेम नहीं है। ईर्ष्या और प्रेम तो यूं हैं जैसे प्रकाश और अंधकार। इनका कोई तालमेल कहीं नहीं होता। फिर भी दोनों की पूजा जारी है।

समस्या और ओशो का सुझाव भाग १

अंधे हैं लोग। इन अंधे लोगों से कहो कि सत्य बोलो, क्या सत्य बोलेंगे? सत्य का पता ही नहीं है। हां, दोहरा सकते हैं तोतों की तरह, यंत्रों की तरह। और सत्य जब दोहराया जाता है तो मुर्दा होता है। मुर्दा सत्य सड़ी हुई लाश होती है। उससे दुर्गंध उठती है। उससे जीवन मुक्त नहीं होता, बंधन में पड़ता है।

मैं नहीं कहता कि सत्य बोलो। इसका यह अर्थ नहीं कि मैं कहता हूं कि सत्य मत बोलो। मेरी बात को समझने की कोशिश करना।

मैं कहता हूं: सत्य हो जाओ।

अप्प दीपो भव! दीये बनो।

फिर उस रोशनी में तुम जो बोलोगे वह सत्य ही होगा। वह असत्य नहीं हो सकता। फिर तुम्हें बोलना न पड़ेगा। अभी बोलना पड़ेगा। और जब बोलना पड़ता है उसका अर्थ है–जहां श्रम है, चेष्टा है, उसका अर्थ है: तुम दो हिस्सों में बंट गए। तुम्हारे भीतर तो कुछ था और बाहर तुमने कुछ दिखाया। भीतर तो झूठों की कतार लगी थी और बाहर सत्य बोलने की चेष्टा की। भीतर तो गालियां चल रही थीं और बाहर गीत गाया।

पैराबल १ 

मुल्ला नसरुद्दीन ने अपने मित्र चंदूलाल को एक रात निमंत्रित किया।

दोनों ने डट कर पी। मुल्ला की पत्नी गई थी मायके, सो कोई अड़चन थी नहीं। सो दिल खोल कर पी। और जब दोनों विदा होने लगे, तो द्वार पर जो बात हुई, वह जरा समझने जैसी है।

आमतौर से मेहमान से हम कहते हैं कि आपकी बड़ी कृपा, बड़ी अनुकंपा कि आप पधारे! हम धन्य हुए! गरीबखाने पर आप आए, गरीब की कुटिया को पवित्र कर दिया।

और मेहमान कहता है कि नहीं-नहीं ऐसी बात न करें। आपकी बड़ी कृपा कि आपने निमंत्रण दिया, मुझे इस योग्य माना कि अपना अतिथि बनाया! इतना सत्कार किया, इतनी सेवा की!

मगर वह जो बात वहां हुई, बिलकुल सच्ची हो गई, क्योंकि दोनों पीए थे।

मुल्ला ने कहा: मैं भी धन्य हूं। मेरी भी कृपा देखो कि मैंने तुम्हें निमंत्रण दिया। और चंदूलाल ने कहा: अरे नहीं-नहीं, मैं धन्य हूं! मेरी कृपा देखो कि मैंने तुम्हारे जैसे का भी निमंत्रण स्वीकार किया!

समस्या और ओशो का सुझाव भाग २

यही पड़ा होता है भीतर तो। बाहर हम कहते हैं, बड़ी कृपा, आप पधारे! और भीतर यह होता है, यह दुष्ट कहां से आ गया!

रास्ते पर मिल जाते हो तो भीतर कहते हो: हे भगवान, कहां से इस दुष्ट की शक्ल सुबह-सुबह दिखाई पड़ गई, दिन भर न बिगड़ जाए!

ऐसे उससे यह कहते हो कि बड़ा सौभाग्य, बड़े दिनों में दर्शन हुए! अहोभाग्य, सुबह-सुबह दर्शन हो गए!

मगर भीतर कुछ और चल रहा है, बाहर कुछ और चल रहा है। इस तरह के वचनों ने ही, इस तरह के नैतिक वचनों ने ही तुम्हें खंड-खंड कर दिया है।

तुम्हें खंड-खंड करके ही तो पाखंडी बना दिया है। पाखंड का मतलब ही यह होता है कि जो व्यक्ति खंड-खंड है वह पाखंडी है। पाखंड यानी खंड-खंड हो जाना। अखंड होने में पाखंड नहीं होता। अखंड का मतलब होता है: जैसा भीतर है वैसा बाहर है।

मनुस्मृति के सूत्र पर ओशो 

मुझसे लोग नाराज इसलिए हैं कि मैं पाखंड में जरा भी भरोसा नहीं करता। जो मेरे भीतर है वही मैं कहता हूं। जैसा है वैसा ही कहता हूं–बुरा लगे बुरा लगे, भला लगे भला लगे। जो मेरे लिए सत्य है वही कहता हूं, जो परिणाम हो।

परिणाम की चिंता करके जो बोलता है वह तो सत्य बोल ही नहीं सकता। वह तो परिणाम के हिसाब से बोलेगा। वह तो दुकानदार है। वह तो यह देखता है कि लाभ किससे होगा, क्या कहूं जिससे लाभ हो? वह अगर सत्य भी बोलेगा तो तभी बोलेगा जब लाभ होता हो। उसने तो सत्य को भी लाभ का ही साधन बना लिया है। और सत्य किसी चीज का साधन नहीं है, परम साध्य है। सब-कुछ सत्य पर समर्पित है, लेकिन सत्य किसी के लिए समर्पित नहीं है।

सत्य से ऊपर कोई धर्म नहीं। सत्य से ऊपर कोई परमात्मा नहीं। सत्य ही परम धर्म है और सत्य ही भगवत्ता है। मगर यह अनुभव से हो।

मैं नहीं कहूंगा कि सत्य बोलो।

मैं कहूंगा: सत्य हो जाओ। बोलना तो बड़ा आसान है, होने का सवाल है।

लेकिन मनु कहेंगे: प्रेम बोलो।

मैं कहूंगा: प्रेमपूर्ण हो जाओ।

वे तुम्हें पाखंड सिखा रहे हैं। वे कह रहे हैं: जरा जबान का अभ्यास कर लो–मृदु, सुंदर, प्रीतिकर सत्य हो, बोलो। इसलिए कहते हैं: सत्य बोलो, प्रिय बोलो। लेकिन प्रेम भीतर न हो तो प्रिय कैसे बोलोगे? कहां से लाओगे प्रियता? वह माधुर्य कहां से लाओगे?

भीतर प्रेम लहरा रहा हो तो उसमें जब डुबकी लगा कर शब्द आते हैं तो मीठे हो जाते हैं, नहाए होते हैं, स्वच्छ होते हैं, ताजे होते हैं, जीवंत होते हैं।

मगर भीतर मृदुता नहीं है। भीतर तो कटुता भरी है। जहर हो भीतर। भीतर जहर रहे आओ और ऊपर मीठा बोलना, तो तुम दो हो गए–बोलने में कुछ, होने में कुछ। और ध्यान रखना, करोगे तो तुम वही जो तुम हो। बोलो तुम लाख कुछ और, होगा तो वही जो तुम हो। और जरा सी खरोंच में निकल आएगा।

पैराबल २

मुल्ला नसरुद्दीन बीमार था, बहुत बीमार था। सर्द रात, बड़ी बर्फीली रात, पानी जमा जा रहा है ऐसी सर्दी। आधी रात को डॉक्टर को मुल्ला की पत्नी ने खबर की। डॉक्टर की भी छाती दहले बाहर निकलने में। लेकिन मजबूरी है, बीमार मरणासन्न है।

पत्नी ने कहा: आना ही होगा। इसी वक्त आना होगा। शायद यह आखिरी ही क्षण हों, आ जाओ तो शायद बच जाएं।

झिझकता हुआ डॉक्टर, गालियां देता हुआ, कि मर ही क्यों न गया यह आदमी शाम को और रात तक किसलिए जिंदा है, और हमको भी मारने के पीछे लगा है. मगर मजबूरी डॉक्टर की, गालियां कितनी ही दो। गया।

पत्नी को कहा कि तुम नाहक परेशान हो रही हो, बचने की कोई उम्मीद नहीं है। मैं दोपहर को ही तो देख कर गया था, बचने की कोई उम्मीद नहीं है। सुबह हो जाए तो बहुत। अब काहे को रात गई मुझे बुलाया? कुछ किया नहीं जा सकता। भीतर तो क्रोध से आगबबूला हो रहा था।

लेकिन पत्नी ने कहा कि आखिरी घड़ी है। सोचा एक बार और आप देख लो, शायद कुछ उपाय हो सके तो और कर लो। कहने को न रह जाए। यह मन में बात न रह जाए कि आखिरी क्षण में चिकित्सक को नहीं बुलाया। मगर एक बात की प्रार्थना है कि यह जो आप कह रहे हो कि अब बचने की उम्मीद नहीं है, मुल्ला के सामने न कहना। उनको दुख न लगे। विदा कम से कम हो ही रहे हैं तो मौन से और शांति से विदा हो जाएं।

डॉक्टर ने कहा: ठीक। भीतर गया, नब्ज देखी, तापमान लिया और मुस्कुरा कर कहा कि अरे नसरुद्दीन, दोपहर को देख कर गया था तो मुझे लगता था पता नहीं बचोगे कि नहीं, मगर अब तो बिलकुल हालत ठीक है। दिन-दो दिन में उठ आओगे, चलने-फिरने लगोगे। चमत्कार हो गया मालूम होता है। सब ठीक है, बिलकुल स्वास्थ्य जैसा होना चाहिए हो गया। दवा असर कर गई मालूम होता है। और भाग्यशाली हो, अभी तुम्हारी किस्मत में जाना नहीं लिखा है। अभी जीओगे दस-पचास वर्ष।

और तभी मुल्ला की पत्नी दरवाजा खोल कर भीतर आई। दरवाजा खोला तो हवा का सर्द झोंका भीतर आया। और मुल्ला की पत्नी दरवाजा खुला ही छोड़ कर पास आकर खड़ी हो गई।

डॉक्टर एकदम चिल्लाया कि बाई, कम से कम दरवाजा तो बंद कर दे। क्या नसरुद्दीन के साथ हमको भी मारना है?

वह खरोंच जरा ही सी, हवा का झोंका और बात निकल आई जो दबी पड़ी थी।

ऊपर से तो कह रहा था कि अब तुम काफी जीओगे।

लेकिन हमारी भी अरथी उठवाना है क्या सुबह ही? इनकी तो उठी ही है, इनकी तो खाट खड़ी ही है, हमारी भी खड़ी करवा देना है क्या? बंद कर दरवाजा!

समस्या और मनुस्मृति के सूत्र पर ओशो

कैसे छिपाओगे? कब तक छिपाओगे? यहां-वहां से बह कर बात निकल आएगी। बच नहीं सकती।

‘प्रिय बोले–मनु कहते हैं–और अप्रिय सत्य को न बोले।’ यह बात तो और भी गलत है, बुनियादी रूप से गलत है।

सत्य तो जब भी बोला जाएगा, अप्रिय होगा। क्योंकि तुम झूठ में जी रहे हो, झूठ ही तुम्हारी सांत्वना है।

अगर अप्रिय सत्य न बोलना हो तो न जीसस बोल सकते हैं, न बुद्ध बोल सकते हैं।

फिर तो मनु ही बोल सकते हैं–मनु, जिनको कि सत्य का कोई पता नहीं है।

फिर न तो लाओत्सु बोल सकते हैं, न जरथुस्त्र बोल सकते हैं। फिर तो इस जगत में जिन लोगों ने सत्य बोला है, वे कोई नहीं बोल सकते, क्योंकि जब भी कोई सत्य बोलेगा वह अप्रिय होने वाला है। अप्रिय इसलिए नहीं कि सत्य अप्रिय होता है; अप्रिय इसलिए कि तुम झूठ में रगे-पगे हो और जब सत्य बोला जाता है, तुम्हारे झूठों पर चोट पड़ती है।

और तुमने झूठों को सत्य मान रखा है। तो जब कोई सत्य बोलेगा, तुम्हारे झूठ गिरेंगे। तुम्हें यूं लगेगा कि जैसे किसी ने तलवार उठा ली और तुम्हारे झूठों को जड़ों से काट डाला। जैसे कोई कुल्हाड़ी लेकर तुम्हारे ऊपर टूट पड़ा है।

सत्य तो जब भी होगा, अप्रिय ही होगा।

बुद्ध का वचन है कि झूठ पहले मीठा, बाद में कड़वा होता है; सत्य पहले कड़वा बाद में मीठा होता है। और बुद्ध ज्यादा ठीक बात कह रहे हैं।

सत्य तो पहले कड़वा लगेगा ही, जहर जैसा लगेगा।

क्योंकि तुम्हारी सारी सांत्वनाएं छीन लेता है, तुम्हारी नींद उखड़ जाती है, तुम्हारी बेहोशी टूट जाती है।

तुम्हें कोई जगा दे नींद में से तो कोई प्रिय थोड़े ही लगता है। भला तुमने ही कहा हो कि सुबह-सुबह उठा देना।

पैराबल ३

जर्मनी का प्रसिद्ध विचारक हुआ, इमैनुअल कांट। वह घड़ी के कांटे से चलता था। कहते हैं जब वह विश्वविद्यालय पढ़ाने जाता था, लोग अपनी घड़ियां ठीक कर लेते थे। क्योंकि नियम से, मिनट, सेकेंड, ऐसा घड़ी का पाबंद था कि मशीन की तरह चलता था।

एक दफा जा रहा था विश्वविद्यालय, कीचड़ थी और एक जूता कीचड़ में फंस गया, तो उसने लौट कर जूता नहीं उठाया, क्योंकि उतने में तो देर लग जाएगी। कुछ सेकेंड तो देर हो ही जाती, जूता निकलता कीचड़ से, साफ करता, पहनता, पैर में डालता। इतनी देर से वह नहीं पहुंचेगा। वह एक जूता वहीं छोड़ गया। एक ही जूता पहने हुए वह विश्वविद्यालय पहुंचा।

जब उसके विद्यार्थियों ने पूछा कि आपके एक जूते का क्या हुआ? उसने कहा कि वह लौटते में कीचड़ में से निकालूंगा। अभी निकालता तो पांच-दस सेकेंड लेट हो सकता था। उसको देख कर लोग घड़ियां सुधार लेते थे।

उसने एक गांव छोड़ा नहीं, जिस गांव में रहा पूरी जिंदगी वहीं रहा। इसलिए नहीं छोड़ा कि दूसरे गांव में जाए तो कहीं जीवन के क्रम में कोई व्याघात न पड़ जाए।

अरे ट्रेन लेट हो जाए, भोजन समय पर न मिले, नींद वक्त पर न ले पाए.। ठीक सो जाता था नौ बजे। अगर नौ बजे उसके मेहमान भी बैठे हों तो उनसे भी यह नहीं कहता था कि अब मेरा सोने का वक्त हो गया, क्योंकि इतना भी समय खोना क्यों। जैसे ही घड़ी में नौ बजे वह छलांग लगा कर अपने बिस्तर में होकर कंबल ओढ़ लेता था।

वह जो बैठा आदमी एकदम चौंका ही रह जाए कि क्या हुआ। नौकर आकर उससे कहता था कि भैया अब घर जाओ, वे तो सो गए। नौ बज गए। नौ बज जाएं तो वे एक शब्द नहीं बोलते, क्योंकि उतनी देर.। ऐसा बिलकुल पाबंद था।

सुबह तीन बजे उठना नियम था। हिंदुस्तान में ब्रह्ममुहूर्त ठीक है, गर्म देश है। और तुम सोना भी चाहो तो मच्छर कहां सोने देंगे! और सुबह-सुबह मच्छर और भनभनाते हैं। सच तो यह है अभी-अभी वैज्ञानिकों ने खोज की है कि सुबह आधा घंटा सूर्योदय के पहले और सांझ सूर्यास्त के बाद आधा घंटा, बस ये दो ही समय में मच्छर योग्य होते हैं लोगों में बीमारी फैलाने में, और बाकी समय में उनकी योग्यता नहीं होती।

ब्रह्ममुहूर्त में सावधान रहना मच्छरों से। (यहाँ ऐसा प्रतीत होता है की ओशो ब्राह्मणों को मच्छर कहकर उनसे सावधान होने का कह रहे हैं, क्योंकि साधारण मच्छर तो पूरे दिन…) वही वक्त है जब मच्छर बीमारी डाल सकता है–सिर्फ आधा घंटा सुबह और आधा घंटा शाम। अगर ये दो वक्त तुम बचा लो, मच्छर तुम्हें कोई बीमारी नहीं दे सकता। उसी समय उसकी संभावना है।

तो यहां तो मच्छर वैसे ही किसी को ब्रह्ममुहूर्त में सोने नहीं देते। और गर्म देश है। मगर ठंडे देश में तीन बजे रात उठना कठिन काम है।

उसने कभी विवाह नहीं किया–इसीलिए कि स्त्री आए, कौन झंझट करे! माने न माने, सुने न सुने। वक्त पर काम हो या न हो। नौकर ठीक। नौकर है तो मान कर चलेगा। नौकर का काम यह था कि वह तीन बजे उठाए। और एक ही नौकर टिका, क्योंकि कोई भी नौकर दो-चार दिन में कह दे कि बस माफ करिए, अब मैं जाता हूं, मुझे नहीं करना यह काम। क्योंकि काम क्या था, चौबीस घंटे घड़ी की सुई की तरह चलना। और सबसे कठिन काम था सुबह तीन बजे। कांट को उठाना बहुत मुश्किल था, हालांकि वह कहता था कि तीन बजे उठाओ, मगर उठना नहीं चाहता था। छीन-छीन कर अपना कंबल अंदर घुस जाता था। शाम को कहता था कि चाहे कुछ भी हो जाए, उठाना। और सुबह गालियां बकता था, कि नौकर तू है कि मैं हूं? छोड़ कंबल, निकल बाहर! और फिर अपने बिस्तर में घुस जाए। और दूसरे दिन सुबह फिर डांटे कि जब मैंने कहा था कि उठाना.।

एक ही पहलवान छाप नौकर था, वह रुका। वह उठा देता था। यहां तक नौबत आ जाती थी कि मार-पीट हो जाती थी। कहा जाता है कि वह नौकर भी ऐसा था कि जमा देता था दो-चार; अगर उसके साथ छीना-झपटी करे तो वह कहता था: मालिक, आपने ही कहा। फिर अब बाद में मत कहना। लगा देता दो-चार उठा-पटक उनको। पटक देता उठा कर नीचे फर्श पर। मगर उठा कर रहता। बिस्तर उठा लेता, निकाल बाहर कर देता कमरे के। वही नौकर टिका और उससे कांट बहुत खुश था। हालांकि सुबह बहुत गालियां बकता था, झूमा-झटकी होती थी, कपड़े फट जाते; मगर वह नौकर भी एक था! उसको क्या पड़ी थी! उसको मजा आने लगा था कि ठीक है, इनको उठा कर वह अपना सो जाता था जाकर कि अब तुम अपना करो ब्रह्ममुहूर्त में जो तुम्हें करना है। वही एक नौकर टिका।

एक दफा वह छोड़ कर चला गया तो उसको वापस दुगनी तनख्वाह पर लाना पड़ा, क्योंकि उसके बिना कांट का जीना मुश्किल हो गया। कौन उठाए तीन बजे उसे!

नींद और मनुस्मृति पर ओशो

जब कोई तुम्हें नींद से उठाएगा, तो छीना-झपटी होने वाली है। सत्य तो अप्रिय होगा ही।

और मनु कहते हैं: ‘अप्रिय सत्य को न बोले।’ तब तो फिर सत्य बोला ही नहीं जा सकता। और यह भी कहते हैं कि ‘असत्य प्रिय को भी न बोले।’ तब तो बिलकुल बोला नहीं जा सकता। बोलना ही खत्म। अप्रिय सत्य को न बोले, यह एक शर्त लगा दी। और असत्य प्रिय को न बोले।

और असत्य ही प्रिय होता है, क्योंकि असत्य तुम्हें सांत्वना देता है।

असत्य की ईजाद क्यों करता है आदमी?

संतोष के लिए, सांत्वना के लिए।

पैराबल ४

तुम्हारी पत्नी मर जाती है, मोहल्ले-पड़ोस के लोग आकर समझाते हैं कि मत रोओ, अरे आत्मा तो अमर है!

जैसे इनको पता है!

एक सज्जन की पत्नी मर गई, तो मैं भी गया। वहां मैंने देखा कि मोहल्ले के लोग उन्हें समझा रहे हैं कि आत्मा तो अमर है। एक सज्जन बहुत ही समझा रहे थे। बड़े श्लोक वगैरह उद्धरण दे रहे थे और बड़ी प्रामाणिकता से सिद्ध कर रहे थे कि आत्मा तो अमर है।

अरे गीता में लिखा हुआ है: न हन्यते हन्यमाने शरीरे! नैनं छिंदन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः। आग जलाती नहीं, शस्त्र छेदते नहीं।

शरीर कट जाए, शरीर मर जाए, मिट जाए, आत्मा नहीं मरती।

तो मैंने कहा कि इनको तो ज्ञान उपलब्ध हो गया मालूम होता है।

संयोग की बात, दो साल बाद उनकी पत्नी मरी, तो मैं उनके घर गया।

वे रो रहे थे।

मैंने कहा: अरे, तुम और रो रहे!. न हन्यते हन्यमाने शरीरे!

भूल गए?

दूसरे की पत्नी मरी तो क्या ज्ञान बघार रहे थे, अपनी मरी तो सब भूल गए!

तो क्यों बकवास लगा रखी थी उस दिन?

वे मुझसे कहने लगे: भई, अभी विवाद न छेड़ो, अभी मैं मुसीबत में पड़ा हूं, तुम विवाद खड़ा कर रहे।

(ओशो ने कहा) मैं विवाद खड़ा नहीं कर रहा, विवाद तुमने खड़ा करवाया। दूसरे की पत्नी मरी तो आत्मा अमर है। अपना जाता क्या! अपनी मरी, तब पता चलना चाहिए। अभी सबूत दो। रोओ मत। आत्मा मरी ही नहीं। और शरीर तो मरा ही हुआ है।

इसके लिए क्या रोना? अरे मिट्टी मिट्टी में मिल गई, बात खत्म! यही बातें तुम समझा रहे थे, यही मैं तुम्हें दोहरा रहा हूं, सिर्फ याद दिला रहा हूं।

उन्होंने मुझे बड़े गुस्से से देखा।

मैंने कहा: गुस्से से देखने का कोई सवाल नहीं है।

अगर तुम्हें पता नहीं तो क्यों बकवास छेड़ रखी थी?

क्यों उस बेचारे को बकवास सुना रहे थे अपनी?

और थोड़ी देर में, मैं वहां बैठा ही था कि वे सज्जन आए जिनकी पत्नी पहले मर चुकी थी।

वे भी समझाने लगे कि भैया, क्यों रो रहे हो?

अरे देह तो आती-जाती है। आत्मा का न कोई जन्म, न कोई मृत्यु। मैंने कहा: मालूम होता है आपकी पत्नी जब से मरी, आपको ज्ञान उपलब्ध हो गया। तब तो आपकी हालत खराब थी, ये ज्ञानी थे। अब इनकी हालत खराब है, आप ज्ञानी हैं। मगर कसौटी तब आएगी.

मैंने कहा: आपके पिताजी बहुत बीमार हैं, जल्दी ही मरेंगे, तब मैं आऊंगा। तब देखूंगा।

अरे, उन्होंने कहा: तुम कैसी बातें करते हो! पिताजी बीमार हैं, इसका मतलब है कि मरेंगे? तुम इस तरह की कठिन बातें और कठोर वचन बोलते हो! क्यों मरेगे?

अरे, मैंने कहा: तुम अभी तो कह रहे थे, कोई मरता ही नहीं! अभी मरे भी नहीं, मैंने सिर्फ कहा ही है, उतने से ही तुम नाराज हो रहे हो!

जब मरते ही नहीं तो मेरे कहने से क्या मर जाएंगे?

क्या तुम सोचते हो मेरे कहने से मर जाएंगे?

इनकी पत्नी मर गई तो भी नहीं मरी और तुम्हारे पिता मेरे कहने से मरे जा रहे हैं! अरे कोई मरता नहीं भैया! आत्मा अमर है!

दोनों मुझ पर नाराज।

ओशो फिर कहते हैं मनुस्मृति के सूत्र पर

यहां सांत्वना के खेल चल रहे हैं। यहां एक-दूसरे के घाव पर मलहम-पट्टी की जाती है।

यहां कोई सत्य बोलेगा तो अप्रिय होने वाला है, क्योंकि तुम प्रिय असत्यों में डूबे हुए हो।

तुम्हारी जिंदगी प्रिय असत्यों के सिवाय और है क्या?

इन्हीं प्रिय असत्यों की ईंटों से तो तुमने चुनी है अपनी इमारत। और सत्य तो इस पूरी इमारत को गिरा देगा–ऐसे, जैसे कोई ताशों के पत्तों से घर बनाए और हवा का झोंका गिरा जाए। सत्य आया, एक झोंका और तुम्हारे सारे ताश के महल नीचे गिर जाएंगे।

मैं मनु से राजी नहीं हूं। प्रिय होगा–असत्य होगा। सत्य होगा–अप्रिय होगा।

फिर तुम्हें याद दिला दूं, लेकिन यह कोई सत्य का स्वभाव नहीं है अप्रिय होना, यह तुम्हारे कारण है।

और असत्य का प्रिय होना भी तुम्हारे कारण है।

तुम सत्य को खोजना नहीं चाहते। तुम सस्ता सत्य चाहते हो, वह झूठा ही होने वाला है।

तुम ऐसा सत्य चाहते हो जो मिल जाए मुफ्त, कुछ करना न पड़े। न कोई ध्यान, न कोई प्रार्थना, न कोई योग–कुछ करना न पड़े, कोई दे दे मुफ्त। वह असत्य ही होने वाला है।

हां, प्रिय हो सकता है, मगर होगा असत्य। और जब इस असत्य पर चोट करेगा कोई, तो कड़वा लगेगा, दुश्मन लगेगा।

जीसस को लोगों ने सूली क्यों दी?

अगर जीसस प्रिय सत्य ही बोल सकते थे तो जरूर बोले होते। लेकिन मजबूरी थी।

महावीर को लोगों ने मारा, पीटा। क्यों?

बुद्ध पर लोगों ने पागल हाथी छोड़े, पत्थर सरकाए, चट्टानें गिराईं। क्यों?

किस कारण?

अगर ये सारे लोग प्रिय सत्य बोल सकते थे तो क्यों नहीं बोले?

इन्हें कुछ अप्रिय सत्य बोलने की सनक सवार थी?

सुकरात को क्यों जहर देकर मारा गया?

सत्य बोल रहा था बेचारा, और तो कुछ कर नहीं रहा था। सिर्फ सत्य बोल रहा था। लेकिन नग्न सत्य हमेशा, नींद में जो पड़े हैं, असत्यों को ओढ़े जो बैठे हैं, उनको बहुत तिलमिला जाता है।

सुकरात का एक ही कसूर था कि वह लोगों को याद दिला रहा था कि तुम असत्य में जी रहे हो। और यह याद कोई बर्दाश्त नहीं करना चाहता।

उसने तो कुछ किसी को कहा नहीं, चोट नहीं पहुंचाई, कुछ नहीं किया। लेकिन उस पर अदालत में मुकदमा चला।

अदालत में जो प्रधान न्यायाधीश था, उसको भी थोड़ी तो ग्लानि हो रही थी, अपराध अनुभव हो रहा था। क्योंकि सुकरात जैसा अदभुत व्यक्ति इसको सजा देनी पड़ रही है! लेकिन जूरी में से अधिक लोग सजा के पक्ष में थे, मृत्यु-दंड के पक्ष में थे।

लेकिन न्यायाधीश ने फिर भी एक अवसर खोजा। उसने कहा कि तुमसे मैं यह प्रार्थना करता हूं सुकरात, तुम अगर एथेंस छोड़ कर चले जाओ तो हम तुम्हें कोई दंड न देंगे। एथेंस के लोग भी राजी हो जाएंगे कि तुमने एथेंस छोड़ दिया और फिर तुम्हें जो करना हो करो।

सुकरात ने कहा: मैं जहां जाऊंगा वहीं मुकदमा चलेगा। इससे क्या फर्क पड़ता है? एथेंस छोडूंगा तो जहां जाऊंगा वहीं झंझट होने वाली है। इसलिए झंझट से यहीं निपट लेना ठीक है। सत्य तो जहां जाऊंगा वहीं चोट करेगा।

और जब एथेंस जैसे सुसंस्कृत नगर में चोट कर रहा है, तो अब कहां जाऊंगा जहां चोट नहीं करेगा?

एथेंस उस समय दुनिया की सबसे सुसंस्कृत नगरी थी। सच तो यह है कि उस तरह की सुसंस्कृत नगरी दुनिया में न कभी थी, न फिर कभी हुई।

सुकरात ने कहा: एथेंस छोड़ कर कहां जाऊं? कहीं नहीं जाऊंगा। यहीं रहूंगा। जीऊंगा तो यहीं रहूंगा। मौत की सजा देनी हो तो सजा दे दो।

न्यायाधीश ने फिर उसे एक मौका दिया और कहा कि तो फिर तुम यह करो। रहो तुम एथेंस में, हम तुम्हें बुढ़ापे में एथेंस से निकालना भी नहीं चाहते। मगर सत्य बोलना बंद कर दो।

सुकरात ने कहा: यह तो और भी असंभव है।

यह तो मेरा धंधा है। ‘धंधा’ शब्द का उपयोग किया–यह मेरा धंधा है।

सत्य बोलना मेरा धंधा है।

इसके बिना तो मैं रह नहीं सकता। यह मेरा श्वास है। जैसे मैं श्वास के बिना जी नहीं सकता, सत्य बोले बिना नहीं जी सकता। मैं तो बोलूंगा तो सत्य। चलूंगा तो सत्य। उठूंगा तो सत्य। जीवन रहे कि जाए, उसका कोई मूल्य नहीं। तुम बेहतर हो, मृत्यु-दंड दे दो। कम से कम कहने को बात रह जाएगी कि मैं मरा तो सत्य के लिए मरा और मैंने कोई समझौता न किया।

मनु कहते हैं: ‘अप्रिय सत्य को न बोले।’ तब तो सत्य बोला ही नहीं जा सकता।

सुकरात जैसा कलाविद नहीं बोल सका, फिर कौन बोल सकेगा?

बुद्ध जैसा व्यक्ति नहीं बोल सका, फिर कौन बोल सकेगा?

और कहते हैं: ‘असत्य प्रिय को भी न बोले।’

और पूरी मनुस्मृति असत्य प्रियों से भरी हुई है।

ब्राह्मणों की खुशामद और ब्राह्मणों को सबकी छाती पर बिठा देने की चेष्टा, षडयंत्र। सब असत्य।

यह झूठी बात है कि ब्राह्मण परमात्मा के मुंह से पैदा हुए और

शूद्र परमात्मा के पैरों से पैदा हुए और

क्षत्रिय बाहुओं से पैदा हुए और

वैश्य जंघाओं से पैदा हुए।

बकवास है।

कहीं मुंह से कोई पैदा होता है, कि पैरों से कोई पैदा होता है?

यह परमात्मा क्या हुआ, ये तो पूरे शरीर पर योनियां ही योनियां हो गईं! यह तो परमात्मा क्या हुए, गर्भ ही गर्भ हो गए! मुंह भी गर्भ, बांहें भी गर्भ, जंधाएं भी गर्भ, पैर भी गर्भ।

ये तो सारी स्त्रियों को मात कर दिए। ये तो शुद्ध स्त्री हो गए। और चार-चार स्त्रियों का काम अकेले कर रहे हैं।

और पुरुष कहां है?

चलो यह भी मान लो कि परमात्मा के मुंह से पैदा हुआ ब्राह्मण और पैर से पैदा हुए शूद्र।

मगर वह पुरुष कहां है, जिसने यह गर्भाधारण करवा दिया?

वह पुरुष कौन है?

और क्या गजब के गर्भाधारण हुए–किसी का मुंह में हुआ, किसी का पैर में हुआ, किसी का जंघाओं में हुआ!

जहां होता है गर्भाधारण, पेट में, वहां तो किसी का भी न हुआ।

तुम गजब देखते हो! झूठों के भी कोई अंत होते हैं। कपोल-कल्पनाओं के भी कोई अंत होते हैं! और शर्म भी नहीं है मनु को यह कहने में कि ‘असत्य प्रिय को भी न बोले।’

यह ब्राह्मणों की खुशामद है। ब्राह्मणों को प्रसन्न करने की चेष्टा है। खुद भी ब्राह्मण हैं, इसलिए खुद के अहंकार को भी मजा आ रहा है, कि हम श्रेष्ठतम हैं, मुंह से पैदा हुए।

लेकिन परमात्मा का मुंह हो कि परमात्मा का पैर, दोनों दिव्य हैं।

कोई पैर अलग थोड़े ही हैं, सब संयुक्त है।

रक्त जो तुम्हारे सिर में घूम रहा है, थोड़ी देर में पैर में घूमता है, थोड़ी देर में फिर सिर में आ जाता है। रक्त का वर्तुल घूम रहा है। तुम बिलकुल संयुक्त हो। हर चीज जुड़ी है। नस-नस से गुथी है।

कुछ ऐसे भेद हैं क्या?

कहां जांघें खत्म होती हैं, कहां पैर शुरू होते हैं, कहां मुंह खत्म होता है और कहां हाथ शुरू होते हैं, कहीं कोई सीमा है?

कोई सीमा-रेखा है?

मनुष्य का व्यक्तित्व, पूरा शरीर एक है।

जब मनुष्य का व्यक्तित्व एक है, परमात्मा का तो और भी एक होगा।

और परमात्मा कोई व्यक्ति थोड़े ही है कि उसका मुंह है, हाथ हैं, पैर हैं। परमात्मा तो इस समस्त अस्तित्व का, इस समष्टि का नाम है। इसमें कहां मुंह, कहां हाथ, कहां पैर, लेकिन शूद्रों को अपमानित करना था।

शूद्रों को पद-दलित करना था। शूद्रों का शोषण करना था। उनके शोषण का उपाय खोजना था। शोषण की सबसे पुरानी परंपरा भारत की है। इसी शोषण का यह परिणाम हुआ।

क्योंकि शूद्रों की संख्या बड़ी, वैश्यों की भी संख्या बड़ी।

ये दोनों ही निम्न हैं, क्योंकि दोनों ही नाभि के नीचे से पैदा हुए हैं।

मनु के हिसाब के नाभि के ऊपर से जो पैदा हो, वह उच्च वर्ण और नाभि के नीचे जो पैदा हो वह निम्न वर्ण।

क्षत्रियों को थोड़ा खुश करना जरूरी था, क्योंकि क्षत्रियों के हाथ में तलवार थी। क्षत्रिय यानी राजनीति।

ब्राह्मण यानी धर्म-पुरोहित, पंडित। इन दोनों की सांठ-गांठ है।

क्षत्रिय को तो प्रसन्न रखना पड़ेगा, नहीं तो वह तलवार खींच ले। वह गर्दन उतार दे। आखिर उसी ने तलवार खींची भी।

यह जो जैन धर्म और बौद्ध धर्म की बगावत हुई, यह क्षत्रियों की बगावत थी ब्राह्मणों के खिलाफ।

इसलिए जैनों के चौबीस तीर्थंकर क्षत्रिय हैं, बुद्ध भी क्षत्रिय हैं। यह क्षत्रियों की बगावत है।

यह क्षत्रियों के बर्दाश्त से बाहर हो गया–यह ब्राह्मणों का छाती पर बैठे रहना। ये जो दो धर्म पैदा हुए भारत में, ये क्षत्रियों से पैदा हुए।

वैश्यों और शूद्रों और क्षत्रियों, इन तीनों को ब्राह्मण ने नीचा रखने की कोशिश की; क्षत्रिय को अपने से नंबर दो, क्योंकि उसके हाथ में तलवार थी। उसको थोड़ा प्रसन्न करना जरूरी था। उसको शूद्र के और वैश्य के ऊपर रख दिया। यह एक बड़ी साजिश मनुस्मृति की है।

यह सरासर झूठ है। यहां कोई न ऊंचा है, न कोई नीचा है। सब शूद्र की तरह पैदा होते हैं और सब ब्रह्म का साक्षात करने की क्षमता लेकर पैदा होते हैं।

मेरे हिसाब में सब शूद्र की तरह पैदा होते हैं और सब ब्राह्मण हो सकते हैं। यह सबका जन्मसिद्ध अधिकार है।

जन्म से न कोई ब्राह्मण होता है, न कोई वैश्य होता है, न कोई क्षत्रिय होता है। जन्म से सभी शूद्र होते हैं, क्योंकि जन्म से सभी बीज होते हैं–सिर्फ संभावनाएं मात्र।

फिर तुम्हारे हाथ में है कि तुम क्या बन जाओगे। अगर धन इकट्ठा करोगे तो वैश्य बन जाओगे। अगर धन के लिए लोलुप रहे तो वैश्य बन जाओगे।

अगर पद के लोलुप रहे–और ये दो ही तो उपद्रव हैं–तो राजनीति में पड़ जाओगे, तो क्षत्रिय बन जाओगे।

बस दो ही उपद्रव हैं: धन और पद

चीन का एक सम्राट अपने महल की छत पर खड़ा था और सागर में चलते हुए सैकड़ों जहाजों को देख रहा था। उसका बूढ़ा वजीर भी उसके पास था।

सम्राट ने कहा कि देखते हैं, आज आकाश खुला है, सागर भी शांत है, तूफान नहीं, आंधी नहीं, कितने सैकड़ों जहाज चल रहे हैं, कितना सुंदर दृश्य है!

उस वजीर ने कहा: महाराज, गलती हो तो क्षमा करें। जहाज सिर्फ दो हैं, ज्यादा नहीं।

सम्राट ने पूछा: दो! क्या कहते हो तुम? अनेक स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं और तुम कहते हो दो!

उसने कहा: मैं फिर कहता हूं दो हैं।

या तो धन के जहाज चल रहे हैं या पद के जहाज चल रहे हैं।

बस जहाज तो दो ही हैं, दिखाई कितने ही पड़ते हों।

बस दो ही दौड़ें हैं आदमी की, दो ही गतियां हैं–धन की या पद की

तो जिनकी धन की दौड़ थी, वे वैश्य हो जाते हैं;

जिनकी पद की दौड़ है, वे क्षत्रिय हो जाते हैं।

और जो सब दौड़ छोड़ देते हैं, जो अपने स्वरूप में समा रहते हैं, जो अपने भीतर अंतर-गर्भ में प्रवेश कर जाते हैं, वे बह्म को उपलब्ध हो जाते हैं, वे ब्राह्मण हो जाते हैं।

प्रत्येक व्यक्ति शूद्र की तरह पैदा होता है।

फिर ये तीन संभावनाएं हैं–या तो वैश्य हो जाए, धन के पीछे दीवाना या क्षत्रिय हो जाए, पद के पीछे दीवाना और या फिर ब्राह्मण हो जाए, स्वयं की भगवत्ता को जान कर।

जन्म से कोई भेद नहीं होता। कर्म से भेद होता है।

अनुभव से भेद होता है।

कृत्य से भेद पड़ता है।

असत्य तो बहुत बोले हैं मनु। जितनी मनुस्मृति असत्य से भरी है, उतना कोई शास्त्र नहीं। मगर वे सब असत्य प्रिय हैं, क्योंकि जो पद पर थे उनकी खुशामद है।

इसका ही स्वाभाविक परिणाम यह हुआ कि भारत में जब भी कोई बाहर से हमला हुआ तो आम जनता ने उस हमले का कोई विरोध नहीं किया।

क्या जरूरत थी विरोध करने की?

उसको तो चूसा ही जाना था–अपने चूसें की पराए चूसें, भेद ही क्या पड़ता था! किसको ढोना है, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता था।

हूण आएं, मुगल आएं, तुर्क आएं, अंग्रेज आएं, पुर्तगाली आएं, कोई भी आए, क्या फर्क पड़ता था आम जनता को?

शूद्र को क्या भेद पड़ता था?

यह मनु की वजह से यह भारत दो हजार साल गुलाम रहा है, क्योंकि तुमने जब शूद्र को पद-दलित कर दिया, उसको तो पैरों के नीचे दबना ही है, फिर किसके बूटों के नीचे दबता है, क्या फर्क पड़ता है?

(मेरा मानना है कि यदि भारत में बुद्ध धर्म का वैसा ही स्वागत किया जाता जैसा पारसियों का किया गया तो ना मुसलमान धर्म का जन्म होता और ना ही ईसाई धर्म का। बुद्ध के सत्य को दमित करके मनुवादी खुश भले हुए होंगे लेकिन यह सत्य की प्रकृति ही नहीं है कि वह असत्य या मनुष्यों द्वारा दबाया जा सके। वह ईसा के रूप में दूसरी जगह जन्म लेकर फलता फूलता रहा, फिर जब ईसाई धर्म भी राह से भटकने लगा तो मोहम्मद के माध्यम से किताब बनकर उतरा। और अब वापस भारत आ गया इन दोनों धर्मों के सहारे। बुद्ध धर्म भी वापस आ गया। थोड़ा समय लगा 2000 साल का लेकिन अनंत काल जिस सत्य के पास सुरक्षित हैं उसमें से 2000 साल कुछ भी नहीं। दलितों के लिए ज़रूर कठिन समय रहा, लेकिन उसका फ़ायदा मिलने का समय आ गया है।)

बूट सफेद चमड़ी ने पहने हैं कि काली चमड़ी ने पहने हैं, क्या फर्क पड़ता है?

उसे तो बूटों के नीचे ही दबना है।

और सच तो यह है कि सफेद चमड़ी के बूटों के नीचे वह कम दबा.।

क्योंकि मुसलमानों में कोई वर्ण नहीं होते।

जब मुसलमानों की सत्ता आई तो शूद्र में थोड़ा बल आया, वैश्य में थोड़ा बल आया।

क्योंकि ब्राह्मणों की पुरानी ताकत कम हो गई।

ब्राह्मणों का बोझ छाती पर से थोड़ा कम हो गया। ब्राह्मणों का बल कम हो गया। इसलिए आम जनता ने कोई विरोध नहीं किया गुलामी का, क्योंकि आम जनता को तो गुलामी ऐसे लगी कि बोझ कम हो रहा है।

और जब अंग्रेज भारत में आए तो आम जनता को बहुत सुखद प्रतीत हुआ, क्योंकि सदियों की गुलामी से यह गुलामी ज्यादा बेहतर मालूम पड़ी।

कल विद्याधर वाचस्पति ने जो पूछा था प्रश्न कि ‘अंग्रेजों ने हमें चूसा, हमारा खून चूसा, और इन्हीं फिरंगियों ने हमारा सदियों तक शोषण किया–और आप फिर भी पाश्चात्य सभ्यता की प्रशंसा में बोल देते हैं।’

मैं उनसे यह पूछना चाहता हूं कि भारत में दोनों ही राज्य थे–ब्रिटिश राज्य था और देशी राज्य भी थे।

अगर अंग्रेजों के चूसने के कारण तुम बर्बाद हुए तो देशी राज्यों में तो बर्बादी नहीं होनी चाहिए थी। मगर देशी राज्य की जनता और प्रजा ज्यादा बदतर हालत में थी, बजाय ब्रिटिश राज के।

यह थोड़ा सोचने जैसा है।

शोषण कहां ज्यादा चल रहा था?

नेपाल तो स्वतंत्र था, उस पर तो कोई ब्रिटिश हुकूमत नहीं थी। लेकिन नेपाल ने कौन सी गरिमा पा ली स्वतंत्रता में, कौन सा गौरव पा लिया?

वही गरीबी। तुमसे भी ज्यादा गरीब। देशी रियासतें–निजाम और ग्वालियर, और कितने रजवाड़े थे–इनकी हालत बदतर थी।

अंग्रेज ने चूसा हो भला, लेकिन चूसने के साथ-साथ उसने तुम्हें विज्ञान भी दिया, टेक्नालॉजी भी दी, उद्योग भी दिया। उसने चूसा हो भला, लेकिन तुम्हारे हित के लिए भी बहुत कुछ किया। उस हित को तुम भुला मत देना। तुम्हें शिक्षा भी दी। तुम्हें लोकतंत्र और स्वतंत्रता और समाजवाद का पाठ भी पढ़ाया।

तुम्हारे सारे नेता पश्चिम से ही स्वतंत्रता का स्वाद लेकर आए।

भारत को तो स्वतंत्रता का कोई स्वाद ही नहीं था।

भारत में तो सिर्फ ब्राह्मण स्वतंत्र था, बाकी सब गुलाम थे।

थोड़ी स्वतंत्रता क्षत्रिय की भी थी। लेकिन वह भी तभी तक थी जब तक वह ब्राह्मण के पैर छुए। कितना ही बड़ा सम्राट हो, छूना तो ब्राह्मण के पैर ही पड़ेंगे उसको।

असली राज्य तो ब्राह्मण का था। पुरोहितों ने इतना बड़ा राज्य कभी नहीं किया जितना इस देश में चला।

और सबकी जड़ में मनु महाराज हैं।

इसलिए मैं कहता हूं कि मनु से तो छुटकारा इस देश का चाहिए।

मगर मनु इस देश के खून, हड्डी-मांस-मज्जा में घुस गए हैं।

अभी भी तुम शूद्र के साथ बैठ कर भोजन नहीं कर सकते। भीतर से ग्लानि उठने लगेगी, उबकाई आने लगेगी, कै हो जाए ऐसा लगने लगेगा।

चाहे शूद्र कितना ही नहाया-धोया हो।

और गंदे से गंदे ब्राह्मण के पास बैठ कर तुम भोजन कर सकते हो। गंदे से गंदा ब्राह्मण तुम्हारा भोजन बना सकता है। नाक साफ करता रहे उसी हाथ से, तुम्हारी चपाती भी बनाता रहे उसी हाथ से, कोई फिकर नहीं। ब्राह्मण महाराज है! इनकी तो नाक भी है तो सनातन धर्म समझो! इसका स्वाद तो बात ही और है

शूद्र तुम्हारे पास बैठ जाए तो बेचैनी मालूम होने लगती है। हालांकि तुम चाहे बुद्धि से यह समझते भी होओ कि यह बात मूर्खतापूर्ण है, मगर बुद्धि का वश नहीं है। अचेतन में घुस गई बात, गहरे में उतर गई बात। सदियों-सदियों का संस्कार हो गया है।

यह पूरा सूत्र ही गलत है।

सत्य बनो, बोलना अपने से आएगा। बोलने पर मेरा जोर नहीं है। आचरण पर मेरा जोर नहीं है।

प्रिय बनो। प्रेम से लबालब हो जाओ, तुम्हारे जीवन में प्रेम ही धर्म हो–सनातन धर्म। तो तुम्हारे जीवन से जो भी निकलेगा वह प्रिय होगा।

और सत्य बोलो, चाहे अप्रिय ही क्यों न हो। अप्रिय ही होगा। और असत्य कभी न बोलो, चाहे कितना ही प्रिय हो। ये कहते तो हैं मनु लेकिन खुद पूरी मनुस्मृति में वे इसी तरह के असत्य बोले हैं जो प्रिय हैं।

जब भी तुम इन सूत्रों को समझना चाहो तो इनकी पूरी पृष्ठभूमि को समझने की कोशिश करना।

इनको संदर्भ के बाहर निकाल कर पढ़ोगे तो शायद तुम्हें साफ नहीं हो पाएगा। संदर्भ के बाहर न निकालो। इनके पूरे संदर्भ में पढ़ो।

और इन सूत्रों की जांच ही करनी हो तो उनका पूरा शास्त्र उठा कर देखो, तब तुम्हें पता चलेगा कि वे (मनु) खुद भी इन सूत्रों को मानते हैं या नहीं मानते हैं। और अगर खुद ही न मानते हों तो दो कौड़ी के सूत्र हैं ये।

खुद मानते हों, तो ही इनकी कोई मूल्यवत्ता है। तो ही इनमें कोई अर्थ है। तो ही इनमें कोई यथार्थ है।- — ज्यूं मछली बिन नीर – Jyun Machhli Bin Neer by Osho .

मेरे अनुभव से :-

ओशो ने जो ध्यान सिखाने की बात कही है सत्य बोलना या प्रिय बोलना नहीं, तो मेरा अनुभव भी कहता है कि ध्यान हमारे भीतर की आँख को फिर से सक्रिय करता है।

द्रष्टा (यानी भीतर की आँख से) होने का चमत्कार यह है कि जब तुम (आँख बंद करके अपने ) शरीर को देखते हो, तो तुम्हारा द्रष्टा अधिक मजबूत होता है। जब तुम अपने विचारों को देखते हो, तो तुम्हारा द्रष्टा और भी मजबूत होता है। और जब अनुभूतियों को देखते हो, तो तुम्हारा द्रष्टा फिर और मजबूत होता है। जब तुमअपनी भाव-दशाओं को देखते हो, तो द्रष्टा इतना मजबूत हो जाता है कि स्वयं बना रह सकता है — स्वयं को देखता हुआ, जैसे किअंधेरी रात में जलता हुआ एक दीया न केवल अपने आस-पास प्रकाश करता है, बल्कि स्वयं को भी प्रकाशित करता है!

लेकिन लोग बस दूसरों को देख रहे हैं, वे कभी स्वयं को देखने की चिंता नहीं लेते। हर कोई देख रहा है — यह सबसे उथले तल परदेखना है — कि दूसरा व्यक्ति क्या कर रहा है, दूसरा व्यक्ति क्या पहन रहा है, वह कैसा लगता है। हर व्यक्ति देख रहा है — देखने की प्रक्रिया कोई ऐसी नई बात नहीं है, जिसे तुम्हारे जीवन में प्रवेश देना है। उसे बस गहराना है — दूसरों से हटाकर स्वयं की आंतरिकअनुभूतियों, विचारों और भाव-दशाओं की ओर करना है — और अंततः स्वयं द्रष्टा की ओर ही इंगित कर देना है।

लोगों की हास्यास्पद बातों पर तुम आसानी से हंस सकते हो, लेकिन कभी तुम स्वयं पर भी हंसे हो? कभी तुमने स्वयं को कुछ हास्यास्पदकरते हुए पकड़ा है? नहीं, स्वयं को तुम बिलकुल अनदेखा रखते हो — तुम्हारा सारा देखना दूसरों के विषय में ही है, और उसका कोईलाभ नहीं है।

अवलोकन की, अवेयरनेस की इस ऊर्जा का उपयोग अपने अंतस के रूपांतरण के लिए कर लो। यह इतना आनंद दे सकती है, इतने आशीष बरसा सकती है कि तुम स्वप्न में भी नहीं सोच सकते। सरल सी प्रक्रिया है, लेकिन एक बार तुम इसका उपयोग स्वयं पर करने लगो, तो यह एक ध्यान बन जाता है।

किसी भी चीज को ध्यान बनाया जा सकता है!

अवलोकन तो तुम सभी जानते हो, इसलिए उसे सीखने का कोई प्रश्न नहीं है, केवल देखने के विषय को बदलने का प्रश्न है। उसे करीबपर ले आओ। अपने शरीर को देखो, और तुम चकित होओगे।

अपना हाथ मैं बिना द्रष्टा हुए भी हिला सकता हूं, और द्रष्टा होकर भी हिला सकता हूं। तुम्हें भेद नहीं दिखाई पड़ेगा, लेकिन मैं भेद कोदेख सकता हूं। जब मैं हाथ को द्रष्टा-भाव के साथ हिलाता हूं, तो उसमें एक प्रसाद और सौंदर्य होता है, एक शांति और एक मौन होताहै।

तुम हर कदम को देखते हुए चल सकते हो, उसमें तुम्हें वे सब लाभ तो मिलेंगे ही जो चलना तुम्हें एक व्यायाम के रूप में दे सकता है, साथही इससे तुम्हें एक बड़े सरल ध्यान का लाभ भी मिलेगा।

–ओशो , ध्यानयोग: प्रथम और अंतिम मुक्ति

मेरे प्रयोग के अनुभव जो शायद आपके कुछ काम आ सकें:-

समय के साथ, 20 वर्षों के भीतर, मैं अन्य कृत्यों के दौरान होंश या जागरूकता को लागू करने में सक्षम हो गया, जबकि मुझे बाद में एहसास हुआ कि कई कृत्यों में यह पहले ही स्वतः होने लगा था।

संपूर्णता के साथ जीना, जीवन को एक प्रामाणिक रूप में जीना यानी भीतर बाहर एक और ईमानदारी से जीना, लोगोंकी बिना भेदभाव के निःस्वार्थ भाव से सेवा करना और सभी बंधनों (धार्मिक, शैक्षिक, जाति, रंग आदि) से मुक्त होनातीन महत्वपूर्ण उत्प्रेरक हैं जो किसी को गहराई तक गोता लगाने में मदद करते हैं।

होंश का प्रयोग मेरे लिए काम करने का तरीका है, (instagram पर होंश) हो सकता है कि आपको भी यह उपयुक्तलगे अन्यथा अधिकांश लोगों के लिए गतिशील ध्यान है। लगभग 500 साल पहले भारतीय रहस्यवादी गोरखनाथद्वारा खोजी गई और ओशो द्वारा आगे संशोधित की गई 110 अन्य ध्यान तकनीकें हैं जिनका प्रयोग किया जा सकताहै और नियमित जीवन में उपयुक्त अभ्यास किया जा सकता है।

कॉपीराइट © ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन, अधिकतर प्रवचन की एक एमपी 3 ऑडियो फ़ाइल को osho डॉट कॉम से डाउनलोड किया जा सकता है या आप उपलब्ध पुस्तक को OSHO लाइब्रेरी में ऑनलाइन पढ़ सकते हैं।यू ट्यूब चैनल ‘ओशो इंटरनेशनल’ पर ऑडियो और वीडियो सभी भाषाओं में उपलब्ध है। OSHO की कई पुस्तकें Amazon पर भी उपलब्ध हैं।

मेरे सुझाव:-

ओशो के डायनामिक मेडिटेशन को ओशो इंटरनेशनल ऑनलाइन (ओआईओ) ऑनलाइन आपके घर से सीखने की सुविधा प्रदान करता है। ओशो ध्यान दिवस अंग्रेज़ी में @यूरो 20.00 प्रति व्यक्ति के हिसाब से। OIO तीन टाइमज़ोन NY, बर्लिन औरमुंबई के माध्यम से घूमता है। आप अपने लिए सुविधाजनक समय के अनुसार प्रीबुक कर सकते हैं।

 

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