निरोध को उपलब्ध व्यक्ति पका हुआ व्यक्ति है – ओशो

नारद कहते हैं :- ‘वह भक्ति कामनायुक्त नहीं है, क्योंकि वह निरोधस्वरूपा है।’ ‘निरोधस्वरूपा!’ साधारणतः भक्ति-सूत्र पर व्याख्या करने वालों ने निरोधस्वरूपा का अर्थ किया है कि जिन्होंने सब त्याग दिया, छोड़ दिया। नहीं, मेरा वैसा अर्थ नहीं है। जरा सा फर्क करता हूं, लेकिन फर्क बहुत बड़ा है। समझोगे तो उससे बड़ा फर्क नहीं हो सकता। निरोधस्वरूपा का अर्थ यह नहीं है कि जिन्होंने छोड़ दिया, निरोधस्वरूपा का अर्थ है कि जिनसे छूट गया। (जैसे कोई बच्चा रंगीन पत्थर इकट्ठे करके मुट्ठी में बांधकर रखता है क्योंकि उनको वह बहुमूल्य समझता है, उनको ही वह हीरा समझता है और जब उसको कोई असली हीरा दिखाता है कि इसको हीरा कहते हैं तब उसके हाथ से पत्थर छूट ही जाते हैं। उनको छोड़ने का […]

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भक्ति साकार से शुरू होकर निराकार तक पहुँचे तभी पूर्णता को प्राप्त होती है।

भक्ति तो साकार होगी; भगवान साकार नहीं है। थोड़ी कठिनाई होगी तुम्हें समझने में। क्योंकि शास्त्रों से बंधी हुई बुद्धि को अड़चने हैं।भक्ति तो साकार है; लेकिन भगवान साकार नहीं है। क्योंकि भक्ति का संबंध भक्त से है, भगवान से नहीं है। भक्त साकार है, तो भक्ति साकार है। 

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भक्त को तो पता ही नहीं होता कि वह भक्ति कर रहा है।

मेरे अनुभव से यह बताने कि
का प्रयत्न है कि असंभव मनुष्य के लिए कुछ है ही नहीं। हमारा होना ही संभव को असंभव बनाता है। और आज के संसार में जहां कई प्लेटफार्म पर अलग अलग आइडेंटिटी बनाकर चलना पड़ता है तब हमारा मिटना कैसे संभव है? तो यह कैसे संभव हो सकता है इसका एक प्रयत्न किया है उसकी तरफ़ इशारा किया है।

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